“जिस दिन कोई सुख में भी शांत हो जाता है, संत हो जाता है।”
यह वाक्य सिर्फ शब्दों का संयोजन नहीं है, यह जीवन के उस सत्य को छूता है जो दिखाई नहीं देता, पर हर कहीं मौजूद है। यह उन क्षणों का बोध है जहाँ आदमी केवल अनुभव नहीं करता, बल्कि साक्षी हो जाता है।
हमने सुख को हमेशा एक लक्ष्य की तरह देखा है — कुछ पाना है, ताकि सुख मिलेगा।
लेकिन क्या कभी सोचा है — सुख मिलने के बाद क्या होता है?
अगर ध्यान से देखो, तो पाओगे कि सुख स्वयं में अशांत कर देने वाला अनुभव है।
सुख उत्तेजित करता है, भावनाओं को उछाल देता है, और व्यक्ति का केंद्र डगमगा जाता है।
मैंने स्वयं कई बार यह अनुभव किया है — जब मन प्रसन्न होता है, कोई इच्छा पूरी होती है, तो भीतर एक कंपन उठता है। और वह कंपन, उतना ही गहरा होता है जितना किसी दुःख में होता है — फर्क सिर्फ यह है कि वह मीठा होता है।
ओशो ने कहा है — "मिठास भी अगर असजग हो, तो वह भी जहर है।"
❖ सुख — वह लहर जो भीतर से बाहर फेंकती है
तुम समुंदर के किनारे खड़े हो, एक लहर आती है और तुम्हें बहा ले जाती है।
यह लहर कुछ और नहीं — तुम्हारा सुख है।
तुम्हें कोई प्रेम करता है — और तुम उस प्रेम में डूब जाते हो।
तुम्हें धन मिलता है — और तुम भविष्य के सपनों में खो जाते हो।
तुम्हारी कोई उपलब्धि होती है — और तुम स्वयं को उससे जोड़ लेते हो।
यही असली संकट है — हम सुख को पकड़ लेते हैं।
हम उसमें रुकते नहीं, बहने लगते हैं।
हम सजग नहीं रहते, खो जाते हैं।
और खो जाना ही अशांति है।
सुख में सजग रहना — शांति है।
और यह शांति — संतत्व का द्वार है।
❖ संत की परिभाषा — वह जो भीतर रुका हुआ है
एक बार एक शिष्य ने ओशो से पूछा,
"भगवान, आप इतना मुस्कराते क्यों हैं, और फिर भी शांत कैसे हैं?"
ओशो ने कहा,
"क्योंकि मैं मुस्करा रहा हूँ, पर उसमें डूबा नहीं हूँ।
मैं जानता हूँ, यह भी बीत जाएगा।
मुझे सुख लुभाता नहीं, वह केवल आता-जाता है।
मैं साक्षी हूँ।"
साक्षीभाव ही संत का हृदय है।
वह देखता है, भीतर भी और बाहर भी।
और इस देखने में, न वह भीतर बहता है, न बाहर बंधता है।
उसके लिए सुख और दुःख समान हो जाते हैं।
गौर से देखो — समान हो जाना का अर्थ दुःख में सुख देखना नहीं है,
बल्कि दोनों में सजगता बनाए रखना है।
❖ संत और सांसारिक मनुष्य — सुख के संदर्भ में अंतर
एक साधारण व्यक्ति जब सुख में होता है, तो वह ज्यादा बोलने लगता है, ज्यादा सक्रिय हो जाता है।
वह योजना बनाता है कि अब और क्या पा सकता है, कैसे इस सुख को स्थायी बना सकता है।
परंतु सुख स्वभावतः क्षणिक है — वह जाएगा ही।
और जब वह जाता है, तो वही व्यक्ति टूट जाता है।
एक संत भी उसी सुख का अनुभव करता है — लेकिन वह उसमें लिप्त नहीं होता।
उसके भीतर एक मौन बना रहता है।
वह जानता है — यह लहर है, आई है, अब जाएगी।
वह भीतर एक ऐसा आकाश बना लेता है, जहाँ कोई भी अनुभव देर तक टिक नहीं सकता।
यही अंतर है —
साधारण व्यक्ति अनुभव को पकड़ता है।
संत अनुभव को बहने देता है।
❖ सुख में शांत रहना — सजगता की पराकाष्ठा
ध्यान कोई क्रिया नहीं, ध्यान एक स्थिति है।
वह स्थिति तब घटती है जब तुम किसी भी अनुभव के केंद्र में स्थित रह सको — बिना लिप्त हुए।
ध्यान का अभ्यास यही सिखाता है —
जब कोई प्रिय तुम्हारे सामने खड़ा हो और तुम उस प्रेम में भी सजग रहो।
जब जीवन कोई पुरस्कार दे, और तुम उसमें भी खो न जाओ।
जब तालियाँ बजे, तब भी तुम्हारा मौन न टूटे।
मैंने ध्यान के माध्यम से यह धीरे-धीरे सीखा है।
शुरुआत में हर सुख पर मैं उछल जाता था।
प्रशंसा मिलती, तो भीतर शोर हो जाता।
पर जब सजग होकर देखा — तब समझ आया कि ये लहरें मुझे मेरे भीतर से दूर ले जा रही थीं।
अब कभी कोई उपलब्धि मिलती है,
तो भीतर से एक धीमी मुस्कराहट आती है — पर वह सतही नहीं होती, वह एक साक्षी की होती है।
❖ संतत्व और समत्व — दोनों साथ-साथ
गीता कहती है —
“दुखेष्व अनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृह:”
(दुःख में विचलित न हो, सुख में आसक्त न हो)
यह श्लोक केवल धर्मशास्त्र नहीं, यह जीवन का शुद्ध विज्ञान है।
मन दो ही तरफ जाता है — या तो वह दुःख से लड़ता है, या सुख से चिपकता है।
पर दोनों ही अवस्थाओं में वह अशांत होता है।
जो व्यक्ति इन दोनों से ऊपर उठ सके,
वही समत्व को जीता है —
और समत्व ही संतत्व है।
❖ सुख में संत रहना — आधुनिक युग में क्यों कठिन है?
आज का समय सुख प्रधान है।
हर क्षण तुम्हें बताया जाता है — और चाहिए, और चाहिए, और चाहिए...
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लोग अपनी खुशी दिखा रहे हैं — और तुम सोचते हो, मुझे भी ऐसा होना चाहिए।
इस भीड़ में कोई शांत हो जाए — तो वह या तो पागल कहलाता है, या संत।
और संत पागल ही होता है — संसार की निगाह में।
पर वही सच्चा मनुष्य है।
क्योंकि उसे अब बाहर से कुछ चाहिए नहीं।
उसने भीतर की खोज शुरू कर दी है।
❖ व्यक्तिगत अनुभव — जब सुख ने मुझे केंद्र से गिराया
एक समय था जब मैं एक बड़ी उपलब्धि पर बहुत आनंदित हुआ।
वह एक ऐसा दिन था, जब मेरी सालों की मेहनत सफल हुई।
परंतु उसी रात जब मैं ध्यान में बैठा — तो कुछ टूट गया।
मन में एक खालीपन था।
जो मिला था, वह बाहर था —
पर भीतर कुछ नहीं बदला था।
वह क्षण बहुत मूल्यवान था।
क्योंकि वहाँ मैंने जाना —
सुख को पकड़ने की कोशिश ही पीड़ा है।
छोड़ देना — मुक्त हो जाना है।
अब जब सुख आता है —
तो मैं उसका स्वागत करता हूँ, पर विदाई का द्वार खुला रखता हूँ।
यही शांति है।
और इस शांति में, मैं संत को जन्म लेते देखता हूँ — अपने ही भीतर।
❖ संत बनने की प्रक्रिया — अभ्यास, सजगता, समर्पण
संतत्व कोई अचानक मिलने वाला वरदान नहीं है।
यह एक धीमी यात्रा है —
हर क्षण, हर अनुभव को सजगता से जीने की कला है।
जब तुम छोटे सुखों में भी सजग रहो —
जैसे एक कप चाय पीते समय,
या किसी मित्र की बात सुनते समय —
तो तुम भीतर शांति को आमंत्रित कर रहे हो।
और यही छोटे क्षण — बड़े परिवर्तन का आधार बनते हैं।
संत बनना कोई पहाड़ चढ़ना नहीं —
यह तो हर रोज़ की साधना है।
❖ निष्कर्ष — संत वही जो सुख में भी मौन हो
दुःख सबको तोड़ता है,
सुख सबको उछालता है।
परंतु जो इनमें नहीं डगमगाता —
वही संत है।
जो भीतर स्थिर हो गया है,
वही बाहर की हर स्थिति में शांत है।
“जिस दिन कोई सुख में भी शांत हो जाता है, संत हो जाता है।”
यह वाक्य केवल समझने की नहीं — जीने की बात है।
यदि तुम इसे जी सको —
तो तुमने जीवन को उसके शिखर पर छू लिया।
तब तक, भीतर मौन को सुनते रहिए… वहीं संतत्व का जन्म होता है।
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