“तृप्ति के लिए सपना पैदा होता है। जो जिंदगी में तृप्त नहीं होता, उसे हम सपने में पूरा करते हैं।”

यह वाक्य अपने आप में एक संपूर्ण यात्रा है। यह किसी किताब से निकला हुआ विचार नहीं है। यह मेरी अपनी यात्रा का सार है — और शायद तुम्हारी भी। मैंने इसे पढ़ा नहीं, मैंने इसे जिया है।

कई वर्षों पहले जब जीवन केवल पाने की दौड़ था, मैं लगातार कुछ न कुछ हासिल करने में लगा था। कभी करियर, कभी संबंध, कभी खुद की पहचान — और हर बार यह विश्वास था कि एक बार यह मिल जाए, तो शांति मिल जाएगी... एक बार यह पूरा हो जाए, तो भीतर कुछ ठहर जाएगा।

लेकिन ऐसा कभी हुआ नहीं।

मिलता रहा, पर मन ठहरता नहीं था। और हर बार कुछ न कुछ छूटता चला गया। तब मैंने देखा, हर इच्छा जब पूरी होती है, तब एक नई इच्छा जन्म ले लेती है। और जब वह पूरी नहीं हो पाती, तब वह सपना बन जाती है।

❖ स्वप्न — एक आंतरिक प्रतिक्रिया

स्वप्न क्या है?
एक अधूरी चाह की तस्वीर।
स्वप्न वह है जो हमने न पाया — पर फिर भी उससे मोह नहीं छूटा।
और मन चतुर है — वह कहता है, “चलो इसे यथार्थ में नहीं पा सके, तो कल्पना में पा लें।”

मैंने देखा है, नींद में ही नहीं, दिन में भी — हम स्वप्न देखते हैं। हम यह सोचते हैं कि आने वाले कल में कोई जादू होगा। कोई प्रेम मिलेगा, कोई धन बरसेगा, कोई पहचान मिलेगी — और वह सब बदल देगा।

लेकिन क्या वास्तव में कुछ बदलता है?

ओशो कहते हैं — “मन भविष्य में ही जीता है, क्योंकि वर्तमान से उसका कोई संबंध नहीं होता।”

मुझे लगा यह वाक्य बड़ा बौद्धिक है। लेकिन जब ध्यान में गहराई से बैठा, तो सचमुच देखा — मन कभी यहाँ नहीं होता। वह या तो अतीत का अफसोस है, या भविष्य की योजना। और जब वह यहाँ नहीं है, तो तृप्ति कैसे होगी?

❖ तृप्ति — एक अनुभूति, कोई वस्तु नहीं

तृप्ति बाहर से नहीं आती। यह कोई वस्तु नहीं, जिसे कहीं से खरीद लिया जाए।
यह तो एक गहन मौन है — जब मन ठहरता है, जब स्वप्न गिरते हैं, जब आकांक्षा का धागा टूटता है।

एक दिन मैं सुबह-सुबह ध्यान में बैठा था। बाहर पक्षी चहचहा रहे थे, हल्की हवा चल रही थी। कुछ नहीं कर रहा था — केवल बैठा था, साँस ले रहा था, देख रहा था। तभी भीतर कुछ घटा — एक तरह का ठहराव, जैसे नदी का बहाव रुक गया हो। कोई इच्छा नहीं थी, कोई योजना नहीं, कोई ख्वाहिश नहीं।
और वही क्षण — पहली बार — तृप्ति का स्पर्श हुआ।

वह कोई बहुत बड़ी बात नहीं थी, कोई चमत्कार नहीं — वह तो इतना सहज था कि मैं रो पड़ा। इतना वर्षों से तलाश रहा था, वह तो यहीं था — इस क्षण में।

ओशो कहते हैं, “तृप्ति बाहर नहीं, भीतर घटती है। और भीतर का द्वार वर्तमान क्षण है।”

❖ सपना — मोह और माया का जाल

जब हम तृप्त नहीं होते, तब सपने हमारा सहारा बनते हैं।
जैसे बच्चा अँधेरे में डर जाए, तो वह आँखें बंद करके परियों की कहानी सोच लेता है — ठीक वैसे ही, हम अपने भीतर की रिक्तता को ढकने के लिए कल्पनाओं से काम चलाते हैं।

मैंने यह भी अनुभव किया है कि सपनों का मोह ही सबसे बड़ा बंधन है।
हम उन चीज़ों से जल्दी मुक्त हो सकते हैं जो हमें नहीं मिलीं, लेकिन उन कल्पनाओं से मुक्त होना कठिन होता है जिनमें हमने जीवन रचा होता है।

एक सपना टूटा, तो दूसरा आया। फिर तीसरा। और मैंने देखा — यह श्रृंखला कभी नहीं रुकती।
तब समझ में आया, समस्या सपने में नहीं है — समस्या उस तृप्ति की कमी में है जो इन सबकी जड़ है।

❖ ध्यान — स्वप्नों को देखने की कला

ओशो बार-बार कहते हैं — “ध्यान का अर्थ है — देखना। और केवल देखना।”
शुरुआत में यह आसान नहीं था। जब मैं आँखें बंद करता था, तब और भी स्वप्न आने लगते थे। कभी किसी पुराने रिश्ते की स्मृति, कभी भविष्य की चिंता।
लेकिन धीरे-धीरे मैंने देखा कि यदि केवल देखा जाए — बिना रोकने या बदलने की कोशिश किए — तो स्वप्न अपने आप गिरने लगते हैं।

ध्यान में बैठकर मैंने सीखा — मन को बदलो नहीं, बस देखो।
और इस देखने में, धीरे-धीरे वह जो अधूरी तृप्ति थी — वह सतह पर आने लगी।
वह पुराना दुःख, जो भीतर जमा था, वह आँखों से आँसू बनकर निकलने लगा।
और उस दुःख के पार — एक मौन था।
उस मौन में — मैं था।
और उस मौन में — मैं नहीं भी था।
बस एक साक्षी था — जो न चाहता था, न त्यागता था।
वही साक्षी — तृप्ति है।

❖ संसार और तृप्ति: क्या वे साथ-साथ हो सकते हैं?

लोग पूछते हैं — क्या संसार में रहते हुए तृप्ति संभव है?

मैं कहता हूँ — तृप्ति कोई परिस्थिति नहीं, यह एक दृष्टिकोण है।
मैंने देखा है, जब भीतर मौन होता है, तब कोई भी वस्तु बड़ी नहीं लगती, कोई भी घटना अंतिम नहीं लगती।
तब जीवन एक लहर की तरह आता है — और तुम बस उसके साथ बहते हो, बिना पकड़ के।

संसार में रहकर भी, अगर तुम भीतर से साक्षी हो जाओ, तो तुम तृप्त हो सकते हो।
ओशो ने भी यही कहा — “तुम बाजार में रहो, लेकिन बाजार तुम में न रहे।”
मैंने इसे धीरे-धीरे समझा — और देखा कि यह संभव है।

❖ निष्कर्ष — स्वप्न से तृप्ति तक की यात्रा

मेरे लिए यह यात्रा आसान नहीं थी।
मैंने भी तुम्हारी तरह हजारों सपने देखे — कुछ टूटे, कुछ बने, कुछ अधूरे रह गए।
मैं भी भागा, दौड़ा, थका... और फिर रुका।

उस रुकने में जो मिला, वही सत्य था।
मैं आज भी दौड़ता हूँ कभी-कभी — यह मन पुरानी आदतें जल्दी नहीं छोड़ता — लेकिन अब एक जागरूकता है।
अब मैं जानता हूँ कि यह सपना है — और इसे देखने भर से इसकी शक्ति कम हो जाती है।

अगर तुम इस प्रवचन को पढ़ रहे हो, तो शायद तुम भी उस तृप्ति की खोज में हो।
मैं कोई गुरु नहीं हूँ, कोई पूर्ण नहीं हूँ — मैं तो बस एक यात्री हूँ, तुम्हारी ही तरह।
लेकिन यदि मेरी आँखों ने कुछ देखा है, यदि मेरी आत्मा ने कुछ छुआ है — तो वह यह है:

"तृप्ति कोई उपलब्धि नहीं, यह एक समर्पण है।"
जब तुम खुद को पूरी तरह स्वीकार कर लेते हो — तब स्वप्न अपने आप टूटने लगते हैं।
और जब स्वप्न टूटते हैं — तो पहली बार, तुम्हारा साक्षात्कार खुद से होता है।

और वही मिलन — तृप्ति है।


✅ सुझाव

इस प्रवचन को और अधिक जीवंत बनाने के लिए आप चाहें तो प्राचीन उपनिषदों, जेन कथाओं, या ओशो के साक्षात उद्धरणों को जगह-जगह जोड़ सकते हैं। साथ ही, इसे ऑडियो प्रवचन की तरह भी रिकॉर्ड कर सकते हैं — जिससे यह एक जीवंत satsang का अनुभव दे।

यदि आप चाहें, तो मैं इसका सुंदर पीडीएफ संस्करण या स्वरूप भी बना सकता हूँ।

तृप्ति की ओर एक यात्रा — बस शुरुआत करो।

कोई टिप्पणी नहीं:

Blogger द्वारा संचालित.