तुम भाग रहे हो...
तुम हमेशा भाग ही रहे हो।

कभी बाहर, कभी भीतर।
कभी विचारों में, कभी शहरों में,
कभी रिश्तों में, कभी धर्मों में।

और जिस जगह खड़े हो,
वहाँ खड़े होने से डरते हो।

क्या तुमने कभी ज़रा-सा ठहर कर देखा है —
जिस जगह खड़े हो, वहां क्या है?
वो जगह क्या सच में इतनी बुरी है,
या तुम ही इतने बिखरे हुए हो कि तुम्हें कुछ अच्छा दिखता ही नहीं?

1. भागने की भूख — जीवन का स्थायी नर्क

हर आदमी कुछ और बनना चाहता है।
कोई कुछ और होना चाहता है।
और यह “कुछ और” कभी आता नहीं।

सच तो यह है —
जो तुम्हारे पास है, वह तुम्हें नहीं चाहिए।
और जो चाहिए, वह केवल कल्पना है।

कल्पना...
एक जाल है जो तुम्हें अपने ही वर्तमान से चुराता है।

तुम इस क्षण को छोड़कर,
उस क्षण की प्रतीक्षा में हो जो कभी आता नहीं।

और जब आएगा भी —
तो फिर वही होगा जो इस क्षण में है: तुम्हारा असंतोष।

2. “अगर मैं वहाँ होता...” — ये मन की सबसे कुटिल चाल है

अगर मैं किसी और शहर में होता...
अगर मेरी नौकरी बदल जाती...
अगर मेरी शादी किसी और से होती...
अगर मैं ओशो के समय में जन्मा होता...

“अगर” — यही तुम्हारा नरक है।
ये "अगर" तुम्हें एक भ्रम देता है कि कहीं और कुछ सुंदर है,
और इस भ्रम में तुम अपने ही अस्तित्व को खो रहे हो।

ओशो कहते हैं —
“मन को कुछ भी मिलेगा, वह हमेशा कहेगा — और!”

तुम्हें एक घर चाहिए —
मिल जाएगा तो कहोगे: अब थोड़ा बड़ा चाहिए।
गाड़ी चाहिए — मिल जाएगी तो कहोगे: अब नया मॉडल चाहिए।

मन को जो भी दो, वह उसका अपमान करता है।

3. असंतोष कोई परिस्थिति नहीं — वह तुम्हारा संस्कार है

सुख कभी बाहरी नहीं होता।
वह एक दृष्टि है, एक अवस्था है।

सुख तब आता है जब तुम स्वीकार करते हो —
“मैं जहां हूं, जैसा हूं — ठीक हूं।”

सुख तब आता है जब तुम अपने मन की मांगों को पहचानते हो — और उन्हें छोड़ देते हो।

पर तुम ऐसा नहीं करते।
तुम कहते हो —
“जब मेरी परिस्थितियाँ बदल जाएंगी, तब मैं खुश हो जाऊँगा।”

लेकिन क्या तुमने देखा है कि परिस्थितियाँ तो बदलती रहती हैं,
फिर भी तुम वही के वही हो?

4. यह मत पूछो “कहाँ होना चाहिए” — पूछो “कैसे होना चाहिए”

तुम्हारा मन हमेशा “कहाँ” में उलझा रहता है —
कौन सा शहर, कौन सा रिश्ता, कौन सी नौकरी।

ओशो पूछते हैं —
“तुम कैसे हो?
तुम्हारी उपस्थिति कैसी है?
तुम अपने भीतर कैसे अनुभव कर रहे हो जीवन को?”

अगर तुम भीतर से प्रेमपूर्ण नहीं हो,
तो स्वर्ग भी नरक बन जाएगा।

अगर तुम भीतर से शांत नहीं हो,
तो हिमालय भी तुम पर बोझ बन जाएगा।

5. गूढ़ रूपक — “सूखा हुआ कुआं”

तुम एक सूखे कुएं के पास बैठे हो,
और सोचते हो कि कहीं और जाकर पानी मिलेगा।

तुम भागते हो, एक और कुएं की तरफ।
पर वहाँ भी सूखा।

क्यों?

क्योंकि हर कुआँ तुम्हारे ही भीतर का प्रतिबिंब है।
जब तक तुम भीतर नहीं भीगो,
तब तक बाहर सब सूखा है।

6. एक तीखी कहानी — “शव से चिपका आदमी”

एक आदमी था जो शव से लिपट कर रो रहा था।
लोगों ने पूछा —
“तुम किसका शोक मना रहे हो?”

उसने कहा —
“मुझे नहीं पता, ये तो रास्ते में मिला था।
पर इसके साथ रोना अच्छा लग रहा है।”

तुम्हारे सुख-दुख का कोई वास्ता परिस्थितियों से नहीं है।
तुम जिन्हें पकड़ कर बैठे हो —
शायद वे शव हैं।

पर तुम रोते हो, चिपके रहते हो,
क्योंकि दुख की आदत लग चुकी है।

7. मन की विकृति — परिवर्तन की भूख कभी नहीं मिटती

मन हमेशा कहेगा:
“बदलाव! बदलाव! बदलाव!”

ओशो कहते हैं —
“जो मन बदलाव चाहता है, वह कभी ठहरता नहीं।
और जो ठहरता नहीं, उसे जीवन नहीं मिलता।”

जैसे कोई झील अगर हर क्षण बहती रहे —
तो उसमें आकाश का प्रतिबिंब नहीं पड़ता।

तुम्हारा मन भी बहता रहता है —
इसलिए तुम खुद को कभी नहीं देख पाते।

8. ध्यान — जहां हो, वहीं रहो

ध्यान का अर्थ है —
जहां हो, वहीँ रहना।

कोई अपेक्षा नहीं।
कोई विरोध नहीं।
कोई भागना नहीं।

बस बैठ जाना — और होना।

जब तुम अपने होने को ही स्वीकार कर लेते हो,
तो तुम जीवन के साथ हो जाते हो।

फिर कोई द्वंद्व नहीं बचता।

9. संन्यास — “जहाँ तुम हो, वहाँ उतर जाओ”

ओशो का संन्यास कोई जगह छोड़ना नहीं है।
संन्यास कोई संसार से भागना नहीं है।

संन्यास का अर्थ है —
जहाँ हो, वहाँ पूरी उपस्थिति से उतर जाना।

तुम्हारा घर ही तुम्हारा आश्रम बन सकता है।
तुम्हारा दैनिक जीवन ही ध्यान बन सकता है —
अगर तुम उसे पूरी सजगता से जियो।

10. अंतिम चुनौती — क्या तुम अपने “अब” को जी सकते हो?

अब मैं तुमसे पूछता हूँ:

क्या तुम जहाँ हो, वही रह सकते हो — बिना भागे?
क्या तुम वह हो सकते हो जो तुम हो — बिना बदलने की लालसा के?
क्या तुम उस शून्य को छू सकते हो — जो हर अपेक्षा के पार है?

अगर हाँ,
तो तुम मुक्त हो।

अगर नहीं —
तो दौड़ते रहो,
प्याले बदलते रहो,
पर स्वाद वही रहेगा — बासी।

ध्यान विधि — “इस क्षण में डूबो”

  1. हर सुबह 15 मिनट, कुछ मत करो।
    न आँखें बंद, न कोई मुद्रा।
    बस वहीं बैठो — जहाँ तुम हो।

  2. कुछ बदलो मत।
    कुछ सुधारो मत।
    कोई सोच मत लाओ।

  3. केवल देखो — सांस को आते-जाते,
    शरीर को थमते हुए,
    और मन को भटकते हुए।

  4. फिर एक क्षण आएगा —
    जब सब ठहर जाएगा।

और वही क्षण है —
जहाँ तुम “जहाँ हो, जैसे हो” —
वहीं आनंद में डूबे हो।

ओशो कहते हैं —
"जहाँ हो, वहीँ परमात्मा है।
जैसे हो, वैसे ही द्वार खुलता है।
अगर तुम उस क्षण में नहीं थे —
तो तुम कहीं भी नहीं थे।"

क्या अब यह प्रवचन तुम्हारे भीतर कहीं उतर पाया?

या मन अभी भी किसी और जगह की तलाश में है...?

कोई टिप्पणी नहीं:

Blogger द्वारा संचालित.