क्या तुमने कभी देखा है —

तुम कपड़े क्यों पहनते हो?

“ढांपने के लिए?”
ये उत्तर सतही है।
क्योंकि अगर ढांपना ही उद्देश्य होता,
तो जितना शरीर ढंका जाना था,
उतना ही ढंका जाता।

लेकिन अब तो बात ही उल्टी हो गई है।
कपड़े अब शरीर को नहीं छिपाते,
बल्कि शरीर को उभारते हैं।


1. वस्त्र — आवरण या आकर्षण?

कपड़े पहनने की शुरुआत जब हुई थी,
तो शायद मौसम की वजह से हुई होगी।
शीत, गर्मी, धूप, बरसात —
इनसे बचाने के लिए।

पर अब?

अब कपड़े फैशन हैं।
अब कपड़े “दिखाने” के यंत्र हैं।
ढांपने का बहाना भर है।

तुम देखो —
कपड़े पारदर्शी होते जा रहे हैं।
फिटिंग ऐसी कि हर उभार, हर कोण स्पष्ट हो जाए।
कपड़ा शरीर से चिपका हो — ताकि छिपे नहीं, और खुले भी नहीं।
“क्लास” भी बना रहे, “कामुकता” भी बहे।


2. निरवस्त्रता — क्या वह वास्तव में अश्लील है?

समाज कहता है —
“निरवस्त्रता अश्लील है।”
लेकिन ओशो कहते हैं —
अश्लीलता दृष्टि में है, शरीर में नहीं।

नग्नता तो नैसर्गिक है।
तुम जन्मे कैसे थे?
कपड़े पहनकर?

नग्नता में मासूमियत है।
कपड़ों में छल है।

बच्चा नग्न होता है,
क्योंकि वह अभी तक “नकाब” नहीं पहनता।
वह कपड़े पहनता है जब समाज उसे सिखाता है कि —
शरीर को छिपाना है,
लेकिन थोड़ा बहुत दिखाना भी है!


3. रूपक — “कपड़ों का जाल”

सोचो —
एक मकड़ी ने जाल बुना।
वह चाहती थी कि कोई भी कीड़ा उसमें फँसे।
उसने जाल को पारदर्शी रखा, चिपचिपा रखा।

कपड़े उसी जाल जैसे हो गए हैं —
जो दूसरों को फँसाने के लिए पहने जाते हैं।
स्त्री हो या पुरुष —
अब कपड़े “नैतिकता” नहीं,
“आकर्षण” का चुम्बक बन गए हैं।


4. एक कहानी — आदिवासी और अंग्रेज महिला

ओशो एक कहानी सुनाते हैं —
एक अंग्रेज महिला एक आदिवासी गाँव गई।
वहाँ सभी स्त्रियाँ नग्न थीं।
वह बहुत घबरा गई।

उसने एक महिला से पूछा —
“तुम ऐसे नग्न होकर कैसे रह सकती हो?”

आदिवासी स्त्री ने हँसकर जवाब दिया —
“तुम इतने कपड़े पहन कर कैसे रह सकती हो?
हर कोई तुम्हारे कपड़ों को घूर रहा है!”

जिसने नग्नता को सहज माना,
वह अबोध है।
जिसने कपड़ों को कला बनाया,
वह व्यापारी है।


5. मनोविज्ञान — कपड़े और कामुकता

तुम जानो या न जानो —
कपड़े शरीर को जितना ढांपते नहीं,
उससे अधिक कामुक बनाते हैं।

क्यों?

क्योंकि “छिपाने” से पहले “जानने” की जिज्ञासा जगती है।

जो नग्न है, वह स्पष्ट है।
उसमें कोई रहस्य नहीं बचता।

पर जो आधा छिपा है,
जो दिखा भी और नहीं भी —
वही रहस्य बनता है।

और कामुकता वही रहस्य है —
जिसे तुम समझ नहीं पाते,
फिर भी खिंचते चले जाते हो।


6. हास्य — "कपड़े और सभ्यता का धोखा"

समाज कहता है —
“सभ्य बनो, वस्त्र पहनो।”
और फिर वही समाज
बिकनी फैशन शो करता है!
रैंप पर “सौंदर्य प्रतियोगिता” होती है
जहाँ “कपड़े जितने कम, उतना ज्यादा अंक” मिलते हैं!

कितनी अजीब बात है —
अर्धनग्नता को हम “स्टाइल” कहते हैं,
और नग्नता को “असभ्यता”।

यह दोहरापन —
यही समाज की बीमारी है।


7. कपड़े और वासना — गहराई से समझो

वासना का स्रोत शरीर नहीं है,
बल्कि वह दृष्टि है जो वस्त्रों के पीछे झाँकती है।

अगर कपड़ा शरीर को सचमुच ढांपता,
तो वासना का जन्म ही न होता।

वासना पैदा होती है जब
तुम “आधा देखो और आधा सोचो।”

और यह “सोचना” ही असली वासना है।

ओशो कहते हैं —
वासना कपड़े से नहीं आती,
सोच से आती है।


8. संन्यास और वस्त्र

संन्यासी —
वह जो वस्त्रों से ऊपर उठ गया है।

नग्न होने का अर्थ यह नहीं कि
वह समाज को चौंकाना चाहता है,
बल्कि वह अब छिपाना नहीं चाहता।

ओशो के “नव-संन्यासी” वस्त्र पहनते हैं,
पर सजग होकर।
वे वस्त्रों के पीछे नहीं छिपते,
बल्कि वस्त्रों को उपयोग करते हैं — सहज रूप में।


9. ध्यान — वस्त्रों से परे जाना

ध्यान का अर्थ है —
भीतर उतरना,
जहाँ न शरीर है, न वस्त्र,
न नग्नता, न कपड़े।

वहाँ केवल “तुम” हो —
एक नंगा अस्तित्व,
जो किसी भी आवरण से परे है।

ध्यान में उतरते ही
तुम्हारा “मैं” वस्त्रों की चिंता छोड़ देता है।
क्योंकि आत्मा को ढांकने की ज़रूरत नहीं होती।


10. प्रेरणादायक समापन — कपड़ों से बाहर झाँको

अब मैं तुमसे पूछता हूँ —
क्या तुमने कभी यह देखा कि
तुम जो पहनते हो, वह तुम्हें ढांपता है या उभारता है?

क्या तुम अपने वस्त्रों से छल कर रहे हो?

क्या तुमने कभी सच में नग्न होना चाहा है —
भीतर से? मन से? अस्तित्व से?

ओशो कहते हैं —
सच्ची नग्नता बाहर की नहीं,
भीतर की होती है।

जो भीतर से निर्वस्त्र हो गया —
वह मुक्त हो गया।


ध्यान विधि — “कपड़ों से परे देखना”

  1. हर रात सोने से पहले,
    दर्पण के सामने बैठो —
    कपड़े उतारकर।

  2. स्वयं को देखो —
    जैसा तुम हो।
    न समाज जैसा चाहता है,
    न तुम्हारी कल्पना जैसा है।

  3. शरीर को स्वीकार करो,
    हर उभार, हर झुर्री, हर अपूर्णता।

  4. फिर आँखें बंद करो और भीतर उतर जाओ।
    महसूस करो —
    एक अस्तित्व,
    जो वस्त्रों से परे है।


कपड़े कोई बुराई नहीं हैं।

पर कपड़ों के पीछे छिपना बुराई है।

कपड़े शरीर के लिए हैं,
न कि आत्मा के।

जो आत्मा को ढांपता है,
वही असली अश्लीलता है।

नग्न हो जाओ — भीतर से।
और फिर पहन लो कुछ भी —
तुम्हारा स्पर्श ही उसे पवित्र कर देगा।

कोई टिप्पणी नहीं:

Blogger द्वारा संचालित.