क्या तुमने कभी सोचा है, तुम दिन-रात किस चीज़ के पीछे भाग रहे हो?

ध्यान से देखो, ज़रा ठहर कर देखो — क्या तुम जीवन के पीछे भाग रहे हो?
या केवल उस चीज़ के पीछे जो जीवन जैसा दिखता है — सुरक्षा?

“जो सुरक्षा छोड़ देता है वही संन्यासी। जो सुरक्षा को पकड़ कर जीता है, वही गृहस्थ है।”
यह केवल कोई दार्शनिक वाक्य नहीं है, यह जीवन का द्वार है — अगर तुम इसे समझो।


1. सुरक्षा क्या है? और क्यों ये मृत्यु है?

सुरक्षा का अर्थ है — सुनिश्चितता
और जीवन का स्वभाव क्या है?
क्या तुमने कभी जीवन को सुनिश्चित पाया है?

तुम्हारा जन्म सुनिश्चित नहीं था, तुम्हारी साँस अगली आएगी या नहीं, इसका भरोसा नहीं।
फिर भी तुम सुरक्षा चाहते हो — जीवन से ठीक उलटी दिशा में चलने की कोशिश।

सुरक्षा, जीवन की मृत्यु है। असुरक्षा ही जीवन की धड़कन है।
जीवन तब है जब तुम गिर सकते हो, डगमगा सकते हो, और फिर उठ सकते हो।
जब तुम सुरक्षित हो — तुम ठहर जाते हो। और जहाँ ठहर गए, वहीं से सड़ना शुरू।


2. गृहस्थ और संन्यासी: दो दृष्टिकोण, दो धारणाएं

गृहस्थ का अर्थ है —
जो दीवारें बनाता है:
चार दीवारें घर की,
चार दीवारें रिश्तों की,
चार दीवारें सपनों की,
और फिर उसी में घुटता है।

संन्यासी का अर्थ है — दीवारें गिरा देना।
नंगे पाँव चलना, खुले आकाश के नीचे सो जाना,
जीवन की अनिश्चितता को आलिंगन करना।


3. सवाल जो चुभते हैं, और इसलिए ज़रूरी हैं

  • क्या तुमने कभी सोचा — तुम किसे सुरक्षित करना चाहते हो?
    शरीर को? जो मिट्टी है?
    मन को? जो स्मृतियों की गठरी है?
    आत्मा को? जिसे कोई छू भी नहीं सकता?

  • क्या तुम पिंजरे को ही घर मान बैठे हो?
    तुम्हें लगता है, यही तुम्हारी दुनिया है —
    लेकिन क्या तुमने दरवाज़े की ओर देखा भी कभी?


4. एक कहानी — पिंजरे का पक्षी

एक पिंजरे में बंद पक्षी था।
उसने वहीं उड़ना सीख लिया था — दीवार से दीवार तक।
एक दिन किसी ने करुणावश उसका पिंजरा खोल दिया।
पक्षी बैठा रहा —
क्योंकि पिंजरे की उड़ान को ही उसने आकाश मान लिया था।

क्या तुम वही पक्षी नहीं हो?
क्या तुम्हारा पिंजरा — शादी, बैंक बैलेंस, समाज, धर्म —
तुम्हारे लिए आकाश बन गया है?


5. रूपक — बाँधी गई नदी

अगर तुम नदी को बाँध दो,
वह सरोवर बन जाएगी।
गहरी तो होगी,
लेकिन गतिहीन।
मृत।

और अगर तुम उसे बहने दो —
वह संगीत है, जीवन है, उन्माद है।


6. मनोविज्ञान और सुरक्षा का भ्रम

तुम्हारा दिमाग बना ही ऐसे है — डर को पहले देखता है
“Fight or Flight” — जानवरों की एक सहज प्रवृत्ति,
जिसे तुम आज भी पाल कर बैठे हो।

तुम्हें असुरक्षा में खतरा दिखता है,
और सुरक्षा में सुख।
ओशो कहते हैं — नहीं!
सुरक्षा में मौत है।
सुनिश्चितता में जड़ता है।

समाज ने तुम्हें सिखाया —
“बीमा करा लो, जीवन सुरक्षित हो जाएगा।”
क्या मृत्यु ने कभी किसी का बीमा पढ़ा है?


7. व्यंग्य की छाया में सच

लोग कहते हैं —
“हमने रिटायरमेंट फंड बना लिया, अब चिंता नहीं।”
अरे भाई,
अब तो तुम्हारी ज़िंदगी ही रिटायर हो चुकी है!

गृहस्थ क्या करता है?
अपने सपनों के चारों ओर दीवारें खड़ी कर लेता है,
और फिर मरते दम तक उन्हीं में सोता रहता है।


8. ओशो का संन्यास — न त्याग, न पलायन

ओशो का संन्यास —
किसी जंगल में जाना नहीं है।
किसी गेरुए वस्त्र में लिपटना नहीं है।
बल्कि जीवन के बीच में,
भीड़ के बीच में,
अज्ञात में कूदने का साहस।

हर पल मरने और हर पल पुनः जन्म लेने का संकल्प।

संन्यास का अर्थ है —
“अब मैं नहीं चलाऊँगा, अब जीवन चलेगा।”
विश्वास, समर्पण, मौन।


9. ध्यान — असुरक्षा की ओर पहला क़दम

ध्यान का अर्थ है —
भीतर उतरना।
भीतर वो जगह है जहाँ न समाज है,
न सुरक्षा है, न असुरक्षा।

वहाँ केवल “मैं” है — निर्विकार, निर्विचार।

जब तुम भीतर सुरक्षित हो जाते हो,
तब बाहर की सुरक्षा बेमानी हो जाती है।


10. प्रेरणादायक समापन — एक चुनौती, एक निमंत्रण

अब मैं तुमसे पूछता हूँ —
क्या तुमने अपने जीवन को सुरक्षित करके मार डाला है?
क्या तुमने जीवन की जगह केवल “व्यवस्था” को चुन लिया?

क्या तुम तैयार हो उस जलते हुए पुल को पार करने के लिए — जिसके बाद लौटना संभव नहीं?

(मौन...)


ध्यान की विधि — “अज्ञात में कूदना”

  1. हर दिन 10 मिनट एक अंधेरे कमरे में बैठो।

  2. आँखें बंद करो।

  3. कोई योजना मत बनाओ, कोई कल्पना मत करो।

  4. केवल उस अज्ञात का स्वाद लो — जहाँ कुछ नहीं है।

  5. धीरे-धीरे — तुम्हारा डर भी मौन हो जाएगा।


(धीरे से मुस्कुराते हुए...)

संन्यास का अर्थ है — हँसते-हँसते कूद जाना।
और अगर डर लगे —
तो हँसी को और गहरा कर दो।

क्योंकि जब तुम डरते हुए हँस सकते हो,
तब तुम संन्यासी हो।

(मौन...)


~ ओशो

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