प्रिय आत्मन,

जब हम “अस्तित्व कोई कार्य नहीं है, यह एक उत्सव है” — इस ओशो की उक्ति पर ध्यान देते हैं, तो हमें एक ऐसी सुगम लहर मिलती है जो अंतरतम को चुमते हुए बहकर हमारे भीतर तक पहुँचती है। ओशो, वह मौन का बिंदु जिसे शब्दों ने स्पर्श भी नहीं किया, वह सतत् नृत्य जो अनगिनत रूपों में दिखाई देता है, हमें यही घोषणा करता है कि जीवन कोई बोझ नहीं, कोई कठिन लक्ष्य नहीं, बल्कि एक आनंददायी उत्सव है। आइए इस प्रवचन में हम मिलकर इस गूढ़ सत्य को खोलें, अनुभव करें और उसे मनुष्यता के विस्तार में फैलने दें।

१. “अस्तित्व कार्य नहीं है” का अर्थ

ओशो कहते हैं: “तुम्हारी ज़िंदगी कोई मिशन नहीं, कोई बड़ा उद्धार का कार्य नहीं—यह स्वयं में पूर्ण है।”

 जीवन में बोझ की कल्पना: जब हम कहते हैं, “मुझे ज़िंदगी का उद्देश्य पाना है,” तो हम अनजाने में एक बोझ उठा लेते हैं। उस बोझ के दबाव में हमारे कदम कठोर हो जाते हैं, हमारी सांसें भारी, और हमारा हृदय चिंतित।

 पूर्णता का एहसास: परंतु, क्या संसार किसी लक्ष्य का इंतजार कर रहा है? नदी अपने समुद्र तक पहुँचने के लिए उत्सुक नहीं होती; वह तो बहते हुए हर क्षण को जीती है—बादलों के छाँव में, सूरज की किरणों में, चट्टानों से टकराकर संगीत सी बजाती हुई। उसी प्रकार, हमारा अस्तित्व भी किसी लक्ष्य की प्रतीक्षा नहीं करता, वह स्वयं में पूर्णता का आनंद है।

 विषम लय की विडंबना: आधुनिक परिभाषाओं में हमने “क्यों” को इतना महत्व दे दिया कि “कैसे” जीना है, भूल ही गए। ओशो हमें स्मरण कराते हैं कि “कैसे” जीना ही असली कला है।

२. “उत्सव” की अवधारणा

 जीवन को गूंजता संगीत मानना: उत्सव केवल झूमते-नाचते क्षण नहीं, बल्कि प्रत्येक दृश्य, प्रत्येक ध्वनि, प्रत्येक स्पंदन का आनन्द लेना है। जैसे वसंत ऋतु की पहली बूंद बारिश की खुशबू को जगाती है, वैसे ही जीवन के छोटे-छोटे अनुभव हमें अव्यक्त आनंद तक ले जाते हैं।

 ओशो की भाषा में समृद्धि: “उत्सव” शब्द में एक परिपूर्णता है—यह शब्द ही बहुरंगी है, जिसमें भोर की ताज़गी, शाम की मधुरता, चंद्रमा की कोमलता सब समाहित हैं। जीवन एक रहस्यमयी मेजबानी है, जहाँ तुम आमंत्रित हो, लेकिन मेज़बान भी तुम स्वयं हो।

 दो बोतल वाली कहानी: एक संत ने दो बोतलें भरी—एक में मीठा रस और दूसरी में पानी। अपने शिष्य से कहा: “पहले इस पानी को बेशकीमती रस समझकर स्वाद ले, फिर जब चाहो तो असली रस का आनन्द।” यहाँ पानी उत्सव का प्रतीक, रस स चैन है—लेकिन जब तक तुम्हारे भीतर पानी भी रस नहीं बनता, तब तक असली रस का आस्वाद अधूरा है।

३. ऊर्जा का नृत्य

 भौतिक स्तर पर: हर कोशिका, हर अणु अनवरत कम्पन में है। इतरा रहे हो या थके—एक सूक्ष्म तरंग सदैव दौड़ रही है। वैज्ञानिक इसे “थर्मल ऊर्जा” कहते हैं; ओशो इसे “जीवन की मीठी धुन”।

 मानसिक स्तर पर: विचार वही ऊर्जा है जो दृश्य बनकर उपस्थित होती है। जब तुम प्रेम, क्रोध या भय महसूस करते हो, तब ये भावनाएं ऊर्जा के रूप हैं जो तुम्हारे मन-मस्तिष्क में घूमा-फिरा कर कह रही हैं, “जी ले, नाच ले!”

 आध्यात्मिक स्तर पर: वह नीरजenergie जो शून्य से सृष्टि की ओर प्रवाहित होती है, जिसे योगियों ने “प्राण”, संतों ने “तपस्य” कहा—वह सब कुछ समाहित कर लेती है। यही ऊर्जा नृत्य हमें ब्रह्माण्ड की अनंतता से जोड़ती है।

४. भिन्न रूपों में ऊर्जा का प्रवाह

 मृत्यु के बाद: शरीर का रूप बदलता है, लेकिन ऊर्जा का नाश नहीं होता। वैज्ञानिक कहते हैं—“ऊर्जा न तो बनाई जा सकती है न ही नष्ट, केवल रूपांतरित होती है।” मृत्यु केवल एक परिवर्तन का क्षण है, धूप का धीरे-धीरे ढल जाना, लेकिन धूप की ऊष्मा फिर भी हवा में बनी रहती है।

प्रकृति में रूपांतरण: पत्ते गिरते हैं, सूखकर मृदा बनते हैं, फिर बीजों में जमा हो चुके पोषक तत्वों के साथ नई कली फूटती है। एक नदी गरम चट्टानों के पास पहुंचकर भाप बन जाती है, बादलों में मिलकर फिर बारिश में उतर आती है। सब कुछ एक निरंतर चक्र—एक अद्भुत उत्सव।

 मानव जीवन चक्र: बाल्य, किशोर, युवावस्था, प्रौढ़ता, वृद्धावस्था—हर अवस्था ऊर्जा के अलग-अलग नृत्य के चरण हैं। इनको जियो, न कि इन्हें टालो या आतंकित होकर उनसे भागो।

५. ओशो के वैज्ञानिक दृष्टिकोण से

ऊर्जा संरक्षण का नियम: थर्मो डायनेमिक्स के प्रथम नियम के अनुसार, ऊर्जा का कुल मान एक सिस्टम में स्थिर रहता है। न तो यह घटता है, न बढ़ता है—केवल स्थान-स्थान, रूप-रूप बदलता है।

 आध्यात्मिक संकेत: जब ओशो कहते हैं “ऊर्जा गायब नहीं हो सकती”, तो वे वैज्ञानिक सत्य को आध्यात्मिक संदर्भ में परिभाषित करते हैं—मन, चेतना, आत्मा, सर्वत्र व्याप्त हैं। जैसे अणु गति करते हैं, वैसे ही चेतना भी अनवरत गतिमान है।

 व्यंग्यात्मक दृष्टि: पर हम लोग? हर सुबह अलार्म बजने पर कहते हैं, “उफ़, फिर सुबह हो गई!” मानो ऊर्जा खत्म हो गई हो! दोष हमारा है, न कि नियति का।

६. उदाहरण या कहानी

एक साधु की कथा सुनिए—

बहुत पुरानी गुफा में एक साधु रहता था। उसके पास कोई भिक्षा पात्र नहीं, कोई कुटिया नहीं, लेकिन एक चमचमाती मुस्कान हमेशा चेहरे पर रहती। लोग आश्चर्य करते कि उसके पास क्या है?

एक दिन एक नगरवासी आया और पूछा, “हे साधु! तुम्हारे पास तो कुछ भी नहीं, फिर तुम क्यों प्रसन्न हो?”

साधु ने नुकीली दृष्टि से देखा और बोला, “मेरे पास सब कुछ है—हवा का स्पंदन, सूर्य की किरणें, चाँदनी की कोमलता, पक्षियों का गीत, फूलों की खुशबू; जब मेरी आंखें खुली हैं, मैं उत्सव में हूँ।”

नगरवासी ने पूछा, “तो मैं क्या करूं?”

साधु ने कहा, “जब अगली बार कोई फूल देखो, उसे इस तरह देखो जैसे यह पहली बार खिल रहा हो। जब पानी पीओ, इसे प्रथम बार के प्यासनिवारक मानकर पियो। यही दृष्टि मन को खुला कर देती है।”

इस कहानी से स्पष्ट है कि हमें अपने आसपास के अति-आम अनुभवों को अति-अद्भुत बनाने की आवश्यकता है।

७. ध्यान और साक्षीभाव

 मौन की महिमा: उत्सव का अनुभव तभी हो सकता है जब मन का शोर थमता है। ध्यान वह कुंजी है जो द्वार खोलती है। जैसे धूल जमा स्क्रीन पर प्रकाश की किरणें अटक जाती हैं, वैसे ही व्याकुल विचार प्रकाश को रोके रखते हैं।

साक्षीभाव: सिर्फ़ अनुभव ही नहीं, उसे देखना—देखकर स्वयं से अलग रहना। जैसे तुम नदी भी हो और नदी के किनारे खड़े पर्यवेक्षक भी। इसी द्वैत-रहित जागरूकता से जीवन का महोत्सव स्वयं सक्रिय हो उठता है।

व्यासंग्रह: ध्यान कभी-कभी प्यास बुझाने जैसा सरल होता है—बस साँसों का ध्यान, या पैरों का स्पर्श जमीन पर; फिर धीरे-धीरे मन का कैनवास साफ़ होता जाता है।

८. आधुनिक जीवन की विडंबना

 परियोजना प्रबंधन मोड: नौकरी, शादी, मकान, बच्चों की पढ़ाई—हम हर चीज़ को “प्रोजेक्ट” मानते हैं। जीना कार्य सूची बन जाने से हाथ का नाच थम जाता है।

 मीट्रिक पर निर्भरता: सोशल मीडिया के लाइक, प्रमोशन के पॉइंट, पैसों की गणना—हम अपने उत्सव को मीट्रिक्स में कैद कर लेते हैं और फिर खुद को वहाँ फिट करने में ख़ुद को पीसते हैं

 ओशो का व्यंग्य: कहते हैं, “तुम चूहों की दौड़ में हो, गोल गोल चक्कर लगाते हुए सोचते हो कि यही दौड़ जीवन है। सच तो यह है कि गोल चक्कर में भागना छोड़कर अपने पैरों पर ठहरो—तभी तुम्हें पता चलेगा कि पूरी गली तुम्हारे कमर तक खेल रही थी।”

हमने अस्तित्व को ‘कार्य’ बना दिया, और उत्सव को ‘इनाम’। यह सम्मोहन हमें बंदी बना देता है।

९. प्रेरणा—जीवन को उत्सव समझें

प्रिय साथियों, अब अवसर है—अपने बोझ को अपनी पीठ से उतारें।

1. हर सांस का संगीत: जब अगली बार साँस लो, उसे अनुभव करो मानो वह पहली बार आ रही हो।

2. हर क्षण का नृत्य: चलो, बिना किसी कारण के खुद को झूमने दो—जैसे पत्तों पर ओस बूँदें खुद-ब-खुद चमकती हैं।

3. मौन का आनंद: हर दिन पाँच मिनट मौन बैठो, खुद को पर्यवेक्षक बनाओ। देखो कैसे विचार आते हैं, कैसे जाते हैं, और तुम केवल देख रहे हो।

4. रूपकों की शक्ति: आसपास की चीज़ों को रूपकों से जोड़ो—पेड़ तारा है, बादल घुमंतू परिव्राजक हैं, समय स्वयं एक धुन है।

5. उत्सव का विस्तार: जितना संभव हो, दूसरों के साथ मिलकर जश्न मनाओ—हँसो, गाओ, बाग़ में टहलो।

अंत में, मैं आपसे यही कहूँगा: ज़िंदगी को कार्य-योजना के रूप में न देखो। यह तो उस अनोखे मेले की तरह है, जहाँ तुमने खुद अपनी शतरंज की गोटी नहीं, बल्कि मधुकी बारह सुरों का सामान खुद की बांहों में थाम रखा हो। चट्टानों से टकराकर नर्तन करती नदी की तरह अपना स्वर ढूँढो—चाहे पत्थर हों, कांटे हों, वह फिर भी बहती रहेगी, वह फिर भी हँसती रहेगी।

समापन स्वर में, एक गूढ़ सच: तुम्हारा अस्तित्व इधर-उधर भागते हुए, “कुछ सिद्ध” होते हुए खत्म नहीं होगा। यह तो अनंत यात्रा है—मौसम बदलेंगे, जंगल बदलेंगे, पर उत्सव अनवरत चलेगा। हर सांस, हर धड़कन, हर विचार, हर मौन—सब एक संगम है, एक अविरल संगीत है, एक सजीव छुअन है।

तो उठो, प्रिय आत्मा! अपना शोर बंद करो, अपनी पायलें बाँधो, और उस नृत्य में सम्मिलित हो जाओ—जहाँ न

 कोई आज, न कोई कल, केवल “यहाँ, अब” का आनंद है। अस्तित्व कार्य नहीं, यह आत्मा का महोत्सव है।

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