“लोगों को तब भी सम्मान दें जब वे इसके लायक न हों,
सम्मान आपके चरित्र का प्रतिबिंब है, उनके चरित्र का नहीं।”
क्या आपने कभी सोचा है…
कि आप जब किसी को देख रहे होते हैं, तब दरअसल आप अपने ही भीतर कुछ देख रहे होते हैं?
क्या आप जान पाए हैं… कि आपकी आँखें बाहर नहीं, भीतर की दुनिया को रोशन कर रही हैं?
सम्मान… एक ऐसा शब्द, जिसे हमने नैतिकता के गत्ते में लपेट कर कहीं किनारे रख दिया है।
हमने उसे योग्यताओं से बाँध दिया है—"जो अच्छा हो, उसे ही सम्मान दो। जो बुरा हो, उससे मुँह फेर लो।"
लेकिन क्या यह सम्मान है? या कोई सौदा?
1. सम्मान का अर्थ – आत्मा से जुड़ाव की एक घटना
सम्मान… एक ऊर्जा है।
वह किसी व्यवहार का पुरस्कार नहीं, वह स्वयं का उत्सव है।
जिस क्षण तुम किसी को सम्मान देते हो, तुम यह नहीं कह रहे कि वह व्यक्ति महान है…
तुम यह कह रहे हो कि तुममें महानता है।
सम्मान देना – यह भीतर से बहने वाली एक सहज धारा है।
यह प्रेम की तरह है, जैसे सूरज प्रकाश देता है…
तुम्हारे पूछने पर नहीं, तुम्हारे लायक होने पर नहीं।
वह तो बस देता है। क्योंकि वह प्रकाश है।
क्या तुम भी उस सूरज की तरह बन सकते हो?
मौन…
थोड़ा रुकिए…
इस प्रश्न को भीतर उतरने दीजिए…
क्या तुम वह बन सकते हो जो बिना शर्त देता है?
2. जब सम्मान पात्रता से परे होता है
क्योंकि जब तुम पात्रता देखने लगते हो, तब तुम न्यायाधीश बन जाते हो।
और न्यायाधीश कभी प्रेम नहीं कर सकता,
न्यायाधीश कभी करुणा नहीं कर सकता,
न्यायाधीश केवल तराजू तौलता है।
लेकिन जीवन कोई तराजू नहीं है।
जीवन एक धुन है—जिसमें सुर भी हैं, बेसुर भी।
और केवल वही गायक महान है,
जो बेसुरी ध्वनियों को भी सुर में बदल दे।
क्या तुम्हारा हृदय ऐसा गायक बन सकता है?
3. सम्मान – एक मनोवैज्ञानिक और वैज्ञानिक यात्रा
जब तुम किसी को सम्मान देते हो – सचमुच भीतर से –
तो मस्तिष्क में एक रसायन सक्रिय होता है: ऑक्सिटोसिन।
यह प्रेम का हार्मोन है…
यह वही है जो माँ को शिशु से जोड़ता है…
यह वही है जो दो मित्रों को बिना कहे जोड़ देता है।
और आश्चर्य की बात यह है कि जब तुम सम्मान देते हो,
तो यह रसायन सबसे पहले तुम्हारे भीतर सक्रिय होता है।
इसलिए जब तुम कहते हो – "उसने तो बुरा किया, मैं क्यों सम्मान दूँ?"
तो असल में तुम अपने ही मस्तिष्क को उस रसायन से वंचित कर रहे हो
जो तुम्हें शांत, स्थिर और प्रेमपूर्ण बनाता है।
4. प्रतिबिंब – दूसरों में स्वयं को देखना
जो तुम दूसरों को देते हो, वह लौटकर तुम्हारे पास आता है।
लेकिन वह देरी से नहीं, उसी क्षण लौट आता है – तुम्हारी ऊर्जा में, तुम्हारे चेहरे की त्वचा में,
तुम्हारी नींद की गहराई में।
जब तुम किसी को अपमानित करते हो,
तब एक हिस्सा तुम्हारा भी टूटता है।
क्योंकि हर व्यक्ति जो तुम्हारे सामने आता है,
वह तुम्हारा ही कोई छाया-स्वरूप है।
वह तुम्हारे अंधेरे का आईना है।
और तुम जो व्यवहार करते हो,
वह तुम्हारी भीतर की आकृति को आकार देता है।
क्या तुम अपने भीतर सुंदर आकृति बनाना चाहते हो?
5. रूपक – सूरज की तरह सम्मान देना
सूरज से सीखो।
वह कभी नहीं पूछता कि सामने जो है – वह फूल है या काँटा?
वह तो बस देता है…
क्योंकि देना उसका स्वभाव है।
तुम भी अपने सम्मान को स्वभाव बना लो, सौदा नहीं।
क्योंकि जब तुम कहते हो – “यह व्यक्ति योग्य नहीं है सम्मान का”,
तो तुम दो बातें कह रहे होते हो –
एक, तुम स्वयं को श्रेष्ठ मानते हो,
और दो, तुम अपना प्रकाश रोक रहे हो।
क्या सूरज ने कभी तुमसे पूछा –
“आज तुमने कितना अच्छा कर्म किया? तभी मैं प्रकाश दूँगा”?
6. एक छोटी कहानी – जिसे समाज ने त्यागा
एक गाँव में एक बूढ़ा भिखारी था।
गंदा, दुर्गंध भरा, फटे कपड़े…
लोग उसका मजाक उड़ाते थे, बच्चे पत्थर फेंकते थे।
एक दिन गाँव में एक संत आया।
उसने उस भिखारी को देखा, और जाकर उसके चरणों में झुक गया।
सब लोग हँस पड़े – “यह कैसा संत है? एक भिखारी के आगे झुकता है?”
संत मुस्कराया – “तुम्हें इस भिखारी में गंदगी दिखती है,
मुझे इसके भीतर की थकी आत्मा दिखती है – जो दुनिया से ठुकराई गई है।
मैं उसके भीतर सोई हुई दिव्यता को जगा रहा हूँ।”
और आश्चर्य…
वही भिखारी कुछ दिनों में बदल गया।
साफ रहने लगा, मुस्कराने लगा, और अंततः गाँव का सबसे शांत व्यक्ति बन गया।
क्या आपने कभी किसी को उसके भीतर के प्रकाश के कारण सम्मान दिया है?
7. व्यंग्य – जब तुम भी उसी कुएँ में गिर जाते हो
जब तुम किसी गिरे हुए को देखकर कहते हो –
“अरे, देखो कितना गिरा हुआ है…”
तब ध्यान दो –
तुम कहाँ खड़े हो?
उस पर टिप्पणी करते हुए तुम भी उसी कुएँ के किनारे खड़े हो…
और कई बार तो खुद उसी में उतर चुके होते हो –
केवल यह भ्रम पाल रखे होते हो कि तुम ऊपर हो।
क्या तुम्हारा उत्तर उसकी गरिमा बढ़ाएगा?
या तुम्हारी अपनी आत्मा का पतन कर देगा?
8. ध्यान और सम्मान – एक अभ्यास
अब ज़रा सोचो,
यदि तुम हर दिन किसी एक ऐसे व्यक्ति को सम्मान दो,
जिसे तुम सामान्यतः अनदेखा करते हो –
किसी चौकीदार को, सफाईकर्मी को,
या उस सहकर्मी को जो हमेशा चुप रहता है…
तो यह क्या होगा?
यह केवल सामाजिक बदलाव नहीं होगा।
यह तुम्हारे भीतर एक ध्यान का जन्म होगा।
क्योंकि हर बार जब तुम बिना पात्रता देखे किसी को सम्मान दोगे,
तब तुम अपने भीतर के अहंकार को गिरा दोगे।
और यह अहंकार गिरना… यही ध्यान है।
यही आत्म-जागरूकता है।
9. स्वयं से प्रश्न पूछो
तो अब प्रश्न तुम्हारे लिए है –
क्या तुम सम्मान दे रहे हो,
क्योंकि तुम एक सामाजिक छवि बनाए रखना चाहते हो?
या तुम सम्मान दे रहे हो…
क्योंकि तुम अपने ही भीतर की दिव्यता का उत्सव मना रहे हो?
10. निष्कर्ष – एक प्रेरणा, एक मौन
जीवन में सभी लोग महान नहीं होंगे,
सभी लोग योग्य नहीं होंगे…
लेकिन तुम तो हो न?
तुम्हारे भीतर इतना प्रेम, इतनी करुणा, इतना प्रकाश है,
कि तुम हर उस आत्मा को छू सकते हो
जिसे समाज ने धूल में छोड़ दिया।
सम्मान देना – यह परोपकार नहीं, आत्मोपकार है।
तो आइए, इस प्रवचन को एक छोटे-से ध्यान में बदल दें…
ध्यान विधि: (5 मिनट)
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आँखें बंद करें।
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तीन गहरी साँसें लें।
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अब किसी ऐसे व्यक्ति की छवि लाएँ… जिसे आपने नज़रअंदाज़ किया है, या अपमानित किया है।
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अब मन ही मन कहें – “तुम्हारे भीतर भी वही चेतना है जो मेरे भीतर है। मैं तुम्हें नमन करता हूँ।”
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मौन में रहो…
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और अनुभव करो, कैसे एक छोटा-सा सम्मान का भाव… तुम्हारी आत्मा को भर देता है।
और अंत में…
जिन्हें तुमने सम्मान दिया, शायद वे बदल जाएँ…
और शायद नहीं भी।
लेकिन तुम ज़रूर बदल जाओगे।
और यही तो ध्यान की शुरुआत है।
“सम्मान दो… क्योंकि तुम हो… और तुम ‘देने’ के योग्य हो।
बाक़ी सब तो केवल बहाना है।”
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