परिचय
दोस्तो, आज हम एक ऐसे रहस्य पर विचार करेंगे जिसे जानने के लिए किताबों की नहीं, बल्कि अपनी आत्मा की तहों में झाँकना पड़ता है। ओशो ने बड़ी चतुराई से कहा था:
“अगर तुम्हें सामने वाले से ईर्ष्या बंद हो गई है तो, इसका मतलब है, मैं तुम्हें बिगाड़ने में सफल रहा!”
यह “बिगाड़ना” शब्द सुनकर चौंकिए मत—यह कोई नकारात्मक शक्ति नहीं, बल्कि अहंकार के ताले खोल देने वाला एक दिव्य बल है। जब आप किसी की सफलता, खुशी या प्रेम देखकर जले बिना रह जाते हैं, तब समझिए कि आपका अंदरूनी दरिद्र पिता-पिता की मानसिकता और समाज द्वारा आपके भीतर बोए गए बीज चूर-चूर हो चुके हैं। आज हम इस प्रवचन में ईर्ष्या की मनोविज्ञान से लेकर उसकी जड़ों तक, सामाजिक कंडीशनिंग से लेकर ध्यान-मार्ग तक, रूपक कहानियों से लेकर आधुनिक जीवन की व्यावहारिक चुनौतियों तक का विस्तार से अनावरण करेंगे। हमारा लक्ष्य यह नहीं कि आप किसी महान संत की तरह सिद्ध हो जाएँ, बल्कि यह कि आप स्वयं के भीतर झाँकें, वहां छुपे भय और अभाव की पहचान करें, और अंततः प्रेम, मौन, करुणा एवं पूर्ण स्वतंत्रता की ओर अग्रसर हों।
1. ईर्ष्या की मनोविज्ञान और उसकी जड़ें
ईर्ष्या, एक तीखी चुभन है—जैसे तुम किसी फूल की खुशबू से मोहित हो, किंतु तुम्हारे हाथ उस खुशबू को पकड़ नहीं पाते। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से ईर्ष्या दो मुख्य भावों का सम्मिश्रण है: पहला, आत्म-अस्वीकृति—“मैं बस इतना भी कहाँ हूँ?”; दूसरा, तुलना की बीमारी—“वह कितना आगे बढ़ गया, मैं अभी तक वहीं खड़ा हूँ।”
1.1 आत्म-अस्वीकृति का दर्द
जब बचपन में हमें ‘क्यों इतने कम नंबर लाए?’ या ‘तेरा बच्चा तो बहुत कामयाब है!’ सुनाई देता है, तब हमें यह सीख मिलती है कि हमारा मूल्य दूसरों की दृष्टि से आंका जाता है। इस तरह बीज अंकुरित होते हैं—“मैं खुद में अधूरा हूँ।” यही अधूरापन जब कहीं बाहरी सफलता देखता है, तो जलन छिड़ जाती है।
1.2 तुलना की जकड़न
स्कूल की रैंकिंग, परीक्षा के स्वरूप, सामाजिक शो–ऑफ—इन सबने हमें ‘रैंक’ का गुलाम बना दिया। हम इस दौड़ में अपने आप को भूल गए कि जीवन प्रतिस्पर्धा सिर्फ अंकों या पदों तक सीमित नहीं, बल्कि एक अनुभव है—खुशी, समर्पण, आत्म-समृद्धि। तुलना की इस मरीज़ी ने हमें बांध रखा है, जिससे निकलने पर ही असली स्वतंत्रता है।
2. सामाजिक Conditioning: बचपन से लेकर आधुनिकता तक
सामाजिक conditioning एक ऐसी मशीन है जो जन्म से ही हमें संवारती और संकुचित करती चली आती है।
पैतृक दबाव: “तू डॉक्टर बनेगा या इंजीनियर?”
शैक्षिक संरचना: ग्रेड्स—टॉपर्स और बॉटमर्स की श्रेणियाँ।
मीडिया एवं विज्ञापन: “इस कार से बढ़कर क्या सुख?” या “नया फोन नहीं तो नया आत्मविश्वास नहीं।”
यह सारी conditioning हमें एक आदर्श-व्यक्ति की शक्ल में ढालने की कोशिश करती है। हम सीखते हैं कि हमारा मूल्य तभी है जब हम परिभाषित पैमाने पर खरे उतरें। इस मानसिक बंदरगाह से निकलना ही ओशो का “बिगाड़ना” है—जो आपके भीतर के मूढ विश्वासों को तोड़ता है और एक नई चेतना को जन्म देता है।
3. भीतर की दरिद्रता और ईर्ष्या
ओशो ने ईर्ष्या को “भीतर की दरिद्रता” कहा। पर यह दरिद्रता क्या है? यह वह खालीपन है जिसको भरने के लिए हम बाहरी वस्तुओं, सफलता, प्रशंसा की भिक्षा माँगते हैं। जैसे कोई बंजर खेत बार-बार खाद डालने के बावजूद हरा नहीं होता, वैसे ही यह खालीपन बार-बार सफलता हासिल करने पर भी नहीं मिटता।
हमारी आत्मा को पोषण नहीं मिला—न प्रेम, न स्वीकृति, न शांति। अब जब किसी को देखकर वह पोषण मिलता दिखता है, तो अरुचि या जलन उठती है। यह जलन यहाँ रुकती नहीं, बढ़ती जाती है, जब तक हम उसकी तह तक नहीं पहुँचते और उसे ध्यान की लौ में नहीं जलाते।
4. “बिगाड़ना”—व्यंग्य से सत्य की ओर
यहाँ “बिगाड़ना” शब्द ओशो की व्यंग्य कला है। आओ इसे ध्यान की भाषा में समझें:
1. अहंकार का ध्वंस
अहंकार अपने साथ सुरक्षा का ढाल लेकर चलता है। ईर्ष्या उस ढाल पर चीर फाड़ने का काम करती है।
2. टूटकर निर्माण
जैसे टूटे हुआ फसल का बाली सिर्फ बीज का आवरण होता है, वैसे ही अहंकार का टूटना नए जीवन का उद्घाटन है।
3. सकारात्मक शॉक
जिस तरह से उखड़ी पौध को ज़मीन में पलटने से जड़ें मजबूत होती हैं, वैसे ही जब ईर्ष्या से आपका अहंकार चौंकता है, तो आप अपने असली सरोकार से मिलते हैं।
इस ‘व्यंग्य’ में प्रकाश है—बिगाड़कर ही शुद्ध चेतना और मौन का स्वागत करता है।
5. ध्यान और साक्षी भाव: ईर्ष्या का अंत
ध्यान एक दर्पण नहीं, बल्कि एक घूमता हुआ लेंस है जो आपकी आंतरिक दुनिया को प्रकाशित करता है। साक्षी भाव का तत्त्व इस लेंस की आत्मा है।
5.1 शरीर-प्राण-दार्शनिक निरीक्षण
जब ईर्ष्या का भाव उठे, तो तुरंत अपने शरीर पर ध्यान दें—उंगली की नोक पर, पलक की झपकी में, या सीने की धड़कन में।
इस संवेदी जागरूकता से वह भाव “मैं हूँ” से “यह हो रहा है” में परिवर्तित हो जाता है।
5.2 साक्षी भाव की शक्ति
आप कहें “मैं ईर्ष्या कर रहा हूँ” तब अहंकार इसमें उलझ जाता है। पर जब कहें “ईर्ष्या हो रही है,” तब अहं से दूर हो जाते हैं—मन केवल देखता है, और देखने भर से परिवर्तन आरंभ हो जाता है।
5.3 अभ्यास का निरंतर क्रम
रोज़ाना कम-से-कम पंद्रह मिनट शांत बैठकर अपने विचारों और भावों को आने-जाने दें। बिना रोक-टोक, बिना मूल्यांकन। धीरे-धीरे ईर्ष्या का झरना सूख जाएगा, शांति की नदी बह निकलेगी।
6. रूपक कथा: वीरान महल का उद्यान
एक शासक ने एक बेजोड़ सुंदर महल बनवाया, हर दीवार पर सोना-चांदी की जड़ाऊ तकनीक। लोग दूर-दूर से आते और “वाह!” की आवाज़ लगाते। पर महल की दीवारों से परे का आँगन वीरान था—कोई जीवित पत्ता नहीं, कोई पुष्प नहीं।
एक साधु आया, चुपचाप उस आँगन की मिट्टी में बीज बोया। राहगीर हँसे—“ये कैसी मूर्खता?” पर साधु ने हँसकर कहा, “तुम दीवारों की शोभा में मोहित हो, पर असली शोभा भीतर की हरियाली में है।” कुछ महीनों में वीरान आँगन में हरा-भरा जंगला उग आया—फूल, फल, पक्षी। महल की दिखावट और भी निखरी, क्योंकि उसने अब अन्दरूनी सुर्खियों को अंकुरित होने दिया था।
यह कथा बताती है कि जब हम अपनी आंतरिक दरिद्रता (वीरान आँगन) को पोषण दें (ध्यान, साक्षी भाव, आत्म-स्वीकृति), तो बाहरी दुनिया (महल) स्वतः खिल उठती है।
7. आधुनिकता में ईर्ष्या का प्रसार
आज सोशल मीडिया पर हर कोई अपनी “परफेक्ट लाइफ” दिखा रहा है—फिल्टर लगी मुस्कान, एंगल चमकदार, बैकग्राउंड झिलमिलाता। पर क्या वह असली है?
लाइक का भूत: हम गरिमा नहीं, ग्राफ दिखाते हैं।
फोलोअर्स का मोह: संख्या ने मित्रता की जगह ले ली।
विज्ञापनों की कमी-बोध मशीन: हर विज्ञापन कहता है, “तुम अधूरे रहोगे, जब तक यह वस्तु तुम्हारे पास नहीं होगी।”
इस तैयार दुनिया में ईर्ष्या अपना पंख फैला लेती है—“वह तो पहुंच गया, मैं अभी भी पीछे!” पर जब आप “बिगाड़े” जाते हैं—अपने उस अंधेरे विश्वास से टूटते हैं—तब आप इस नकली संसार को पहचान पाते हैं और अपनी आंतरिक समृद्धि की ओर बढ़ते हैं।
8. आंतरिक यात्रा: ईर्ष्या को पकड़ना और पार करना
अब कुछ व्यावहारिक कदम हैं, जिन्हें आज से ही लागू कर सकते हैं:
1. लिखित प्रतिविम्ब
हर शाम तीन वाक्यों में लिखें:
मैंने किससे ईर्ष्या महसूस की?
उस ईर्ष्या ने कौन-सा अभाव उजागर किया?
मैं उसे कैसे छोड़ सकता हूँ?
2. ध्यान द्योतक अभ्यास
सुबह-सुबह पाँच मिनट बैठकर अपने पूरे शरीर को संक्षिप्त रूप से स्कैन करें। जहाँ कहीं तनिक भी असुविधा या तनाव हो, बस वहाँ ध्यान टिकने दें—देखें, सुनें, जाने दें।
3. सांत्वना संवाद
जब जलन आए, तो उस भाव से बात करें: “तू क्या चाहता है?” यह प्रश्न आपको ईर्ष्या के मास्क के पीछे की असली इच्छा तक ले जाएगा—चाहे वह पहचान हो, प्रेम हो, या स्वीकृति।
4. सेवा की ओर अग्रसर
दूसरों की सहायता करें, बिना किसी अपेक्षा के। सेवा की ऊर्जा आपके भीतर की खाली जगह अपने आप भर देगी।
9. जब ईर्ष्या समाप्त होती है…
जब उस अंतिम चिंगारी—ईर्ष्या का अंत होती है, तब चार दिव्य तत्व जागृत होते हैं:
प्रेम: बिना शर्त, बिना सीमा, निस्वार्थ।
मौन: विचलन विराम, जहां आत्मा का नर्तन होता है।
करुणा: दूसरों के दुख में अपनी पीड़ा भूल जाने की क्षमता।
स्वतंत्रता: कोई आश्रय नहीं, कोई ढाल नहीं—स्वयं पूर्ण, स्वयं समर्थ।
यह चारों मिलकर स्वयं में संपूर्णता की अनुभूति देते हैं। यही ओशो का “बिगाड़ना” था—जिसने हमें पहले तो तोड़ दिया, फिर वह तोड़ना ही डाल में नया अंकुर लगने का अवसर बन गया।
समापन
दोस्तो, आज जब आप देखेंगे कि किसी की उन्नति या प्रसन्नता पर आपको जलन नहीं होती, तो समझ जाइए—आप‘ बिगाड़े’ जा चुके हैं। आपका अहंकार टूट चुका है, और आपके भीतर प्रेम, मौन, करुणा एवं स्वतंत्रता अंकुरित हो चुके हैं। फिर आपको बाहरी महलों की कोई परवाह नहीं—आपका आंतरिक उद्यान ही परम संपदा है।
याद रखिए, यह यात्रा खत्म नहीं होती—यह सतत् जागरूकता, ध्यान और आत्मनिरीक्षण की ललकार है। लेकिन पहले कदम में ईर्ष्या का अंत ही वह द्वार है, जिसके पार आपकी असली कहानी मद्धिम हो कर तेज़-तेज़ लय में
बज उठेगी। और जब यह संगीत बजने लगे, तब आप जान जाएंगे: ओशो ने सचमुच आपको “बिगाड़” दिया—जीवन के उस अनंत फूल-उद्यान में, जहाँ हर पल पूर्ण है।
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