“देखिए दोस्तों, मौत होनी तय है, तो क्यूँ ना थोड़ा जिया जाए!”
अरे, ये कोई बस लाइन नहीं है, ये तो बुलंद आवाज़ है उस सत्य की जिसे हम सब बेखबर हैं। हम सब अपना एक-एक लम्हा इस भ्रम में गँवा देते हैं कि मरना किसी दिन दूर की बात है। लेकिन जब सच सामने आता है—कि मौत का टिकट पहले से ही कट चुका है—तो ज़िंदगी जपने का तरीका ही बदल जाता है। आइए, इस एक संक्षिप्त लेकिन घातक वाक्य के अन्दर छुपे महासागर को खोलें, कहानियों, उपमाओं और थोड़े मज़ाकिया तकोड़ों के साथ, ताकि ये बात सीने में उतर जाए, दिल से चलकर दिल तक पहुँचे।
1. मौत का ठप्पा पहले से ही लग चुका है
जब आप बच्चे होते हैं, तो आपको लगता है कि ज़िंदगी लंबी-चौड़ी सड़क है, और मौत बस एक चौराहा है जहाँ आगे मुड़ना है। पर जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, पता चलता है कि ये चौराहा हर मोड़ पर है—छोटी-छोटी मौतें, जैसे बचपन का मासूमपन चला जाना, जवानी के सपने धुंधले पड़ना, या किसी प्रिय का साथ छोड़ जाना। असल मौत तो वह है जो अचानक होती है, लेकिन हर रोज़ हम इतनी-सी मौतें झेलते हैं कि असली मौत को पहचानना ही भूल जाते हैं।
“मौत होनी तय है”—यह वाक्य ऐसा है जैसे किस्मत ने हमें बुला लिया हो, ‘अरे यार, टिकट तो कट चुका है, आगे की तैयारी करो!’ लेकिन हम ‘तैयारी’ शब्द से डरते हैं, उसे टालते हैं।
यहाँ समझ लो कि तुम बँगले में रह रहे हो, लेकिन मकान मालिक ने पहले ही नोटिस चिपका दिया है। नोटिस पढ़कर या तो तुम डरोगे, या फिर कहोगे, “तो क्या हुआ? अब आनंद से रहूँगा!” तुमने फैसला करना है—डरकर भागोगे या हँसकर बैठक सजाओगे।
2. ज़िंदगी जीना—मरे हुए कंकाल सी नहीं
अक्सर लोग ज़िंदगी को ऐसे जीते हैं जैसे प्रेत हों—आँखें तो खुली पड़ीं, पर न देखने की माँग रखते। लोगों से मिलते हैं, बातें करते हैं, पर बिल्कुल खोखले। ये खोखलापन असली मौत से भी बड़ा रोग है। कभी सोचा आपने कि कब आप सच में ज़िंदा हुए थे?
एक कहानी सुनिए—
एक बार एक साधु था, जो हमेशा सबको हँसाता-हंसाता था। लोग पूछते, “बाबा, अजीब बात है, आप हँसते हँसते उम्र काट रहे हो, तो डर क्यों नहीं?” साधु मुस्कराया और बोला, “बेटा, मौत मेरे पीछे दौड़ रही है, पर मैं दो चीज़ें पहले ही कर गया—पहली, मैंने मौत को गेस्ट की तरह बुलाया है; दूसरी, मैंने इस ज़िंदगी को पार्टी बना दिया है।”
साधु ने पार्टी को ज़िंदगी की उपमा दी। अगर ज़िंदगी पार्टी है, तो क्यों बैठ कर धुआँ उड़ाएँ? नाचो, गाओ, लोगों को गले लगाओ, पी लो—पर नींद के बादल मत जमने दो कि ‘कल क्या होगा’। मौत सबको ले जाएगी, तो आज का क्या मज़ा? पार्टी का असली मज़ा है उस वक्त, जब बजाया गया गाना अनसुना रह जाए, और एक-एक धड़कन ताली की तरह गूंजे।
3. “क्यूँ ना थोड़ा जिया जाए”—जीने का मसौदा
अब बात आती है—“क्यूँ ना थोड़ा जिया जाए!” जिया गया क्या? जिया यानी जोश से, गहराई से, निरे अनुभव से।
जोश से: वो जोश जो सुबह आँख खुलते ही झपाझप दिल में उठता है—“आज मेरे साथ क्या मज़ेदार होगा?”
गहराई से: वो गहराई जो समंदर की लहरों में दिखती है—सतही नहीं, नीचे तक उतरकर मालूम करो हर रंग, हर सास की कसक।
निरे अनुभव से: बस अनुभव करो—चाहे अँधेरे में चाँद का प्रतिबिंब हो या हाथ में गर्म चाय, हर सास में ज़िंदगी की ख़ुशबू पकड़ो।
उदाहरण के लिए, आप सड़क पर चलते हो। बगल से बस चली जाती है, और आप सोचते, “अरे जल्दी करो!” लेकिन अगर जान लो कि मौत हमेशा तुम्हारे कंधे पर हाथ रखे है, तो उस बस की गैप में एक मीठी सैर भी आनंद लगेगी। सांस ले कर देखो—सांस कितनी ताज़ा है, कितनी मीठी! ये वही मौत की कसरत है—उसे हर पल याद दिलाना कि तुम ज़िंदा हो, उसे चिढ़ाना कि “अरे यार, अभी थोड़ी और दौड़ूँगा।”
4. उपमाएँ और कहानियाँ
4.1. उपमा: ताश के पत्तों का घर
ताश के पत्तों का घर बनाओ, और फिर उसे गिराओ। हर पत्ता गिर कर एक नई शुरुआत की गूँज छोड़ता है। पत्तों में तुम अपनी योजनाएँ बिछाते हो—और समझ लो, हर पत्ता जो गिरा, वो टूट कर पावन हो गया। अगर मौत का डर न हो, तो पत्तों को सजा कर रखा जाता—पर सजा कर रखने से कौन सी ज़िंदगी मिलती है? गिरने दो, खेलते-खेलते सीखो कि गिरना भी असली मज़ा है। इस गिरने में तुम्हें पता चलेगा कि पत्ता गिरने के बाद भी हवा का झोंका उसे नए सफर पर भेजता है।
4.2. कहानी: दो माली और बगीचा
एक गाँव में दो माली रहते थे। एक माली रोज़ सुबह बगीचे में फूलों को पानी देता, पर दिल में चिंता रहती—“कल ये फूल मुरझा न जाएँ।” दूसरा माली तभी पानी देता जब सूरज उगता देखता। उसका मंत्र था—“फूल ख़ुश है तो आज ख़ुशियाँ बाँटो; कल की चिंता फूल ही सहन करेगा।”
एक दिन दूसरी बरसात आई। पहला माली घर में बैठकर सोचता रहा—“मुझे फूल बचाने हैं।” बगीचा उजड़ा। दूसरा माली बारिश में नहा नहा कर रम गया, क्योंकि उसकी चिंता नहीं, प्यार था। जो फूल बच गए, उनका संगीत गर्व से झूम उठा।
ये दोनों माली तुममें हो—पर कौन सा माली तुम हो? जो कल की मौत का रोना रोकर आज की मुस्कान चुराता, या जो मौत को जानकर भी बारिश में नहाता?
5. थोडा रोमांच, थोड़ा विवादित!
अरे, चलो थोड़ा प्रॉवोकेटिव हो जाएँ—कृपा करके ध्यान दो:
“अगर तुम सच में ज़िंदा हो, तो मौत का इंतज़ार क्यों कर रहे हो? क्यों अपना रोमांस समय पर रोककर बैठना चाहते हो?”
यह बयान थोड़ा चुभ सकता है, पर सच है। क्या तुमने कभी देखा है कोई प्रेमी-युगल कहें, “आज प्यार कर लेते हैं, पर कल मर जाएंगे, तो यार… रोका नहीं।” नहीं ज़रूरी, प्यार तो तब भी करते हैं, जब साथी की चाहे दूरी हो, चाहे ख़तरा हो। जीवन-प्रेम का भी यही फॉर्मूला है।
एक और झटका:
“जो मरने से डरते हैं, वे ज़िंदा नहीं होते, वे सिर्फ समय बिताते हैं।”
यह कड़वा सच है। डरावनी बात सुनते ही सामने वाला झिझक जाता है, लेकिन ज़िंदगी उसके डर से नहीं, उसके जिगर से चलती है। डर मिटेगा नहीं—इतिहास गवाह है—पर डर के बीच भी जीने का हुनर सीखो।
6. ध्यान (मेडिटेशन) भी एक जिया जाना है
अच्छा, ध्यान का घूँघट हटाइए—ध्यान सोया हुआ नहीं, जिया हुआ होता है। तुमने ध्यान क्यों किया? कोई सवाल का हल चाहिए? नाइ! ध्यान इसलिए किया जाता है कि “अब मैं भी जान लूँ कि मैं कौन हूँ।” मौत का सच जानने के लिए नहीं, बल्कि जीने का स्वाद चखने के लिए। ध्यान की स्थिति वो है जब तुम्हारा शरीर तो यहाँ है, दिमाग कहीं और, और आत्मा पूरा आस–पास घूम रही है। उस जगह से निकलो जहाँ कोई डर नहीं, कुछ भी नहीं—बस खुद।
यह भी एक मजेदार कहानी सुनिए—
एक बार गुरु जी ने पूछा, “ध्यान में कितने आदमी जाते हैं?” सारे शिष्य बोले, “हम जाते हैं, आत्मा जाती है।” गुरु जी ने हँस कर कहा, “सब गलत! ध्यान तो उस जगह जाना है जहाँ कोई भी नहीं है—ना तुम, ना आत्मा, ना गुरु। बस शाश्वत चुप्पी और शाश्वत आनंद।”
जब तुम वहाँ पहुँचते हो, तो मौत का सवाल खुद ही लम्बी यात्रा पर निकल जाता है—प्रश्न ही भुला रहता है कि मरना है भी क्या?
7. निष्कर्ष: देरी क्यों
तो अपने आप से पूछो—
क्या तुम बस समय बिताना चाहते हो?
या तुम जीना चाहते हो—भीषण उत्साह के साथ, मौत को चिढ़ाते हुए?
दोनों में फर्क समझो: ज़िंदगी बिता देना और ज़िंदगी जी लेना। बिता देना मतलब रोज़ अखबार पढ़ना, टीवी देखना, चुपचाप सो जाना। जी लेना मतलब हर सास में तरंग उठना, हर कण में संगीत बजना।
“मौत होनी तय है”—ये तो उस निश्चितता की घंटी है।
“तो क्यूँ ना थोड़ा जिया जाए!”—ये बुलंदी की घोषणा है।
अब तुम्हारी बारी है। या तो इस बोल को बस सुन कर चश्मा साफ करो और चुप हो जाओ, या इसे तकिए की तरह गले लगाओ और चिल्लाओ, “चलो, आज तो ज़िंदा हुआ जाए!”
8. आपको क्या करना है?
1. वाक्य को दोहराएँ—“मौत होनी तय है, तो क्यूँ ना थोड़ा जिया जाए!”
2. उठो, खड़े हो जाओ—छोटा-सा कदम उठाओ, जो तुम्हें डरावनी ऊँचाइयों पर ले जाए।
3. प्यार बाँटो—किसी को गले लगाओ, जिसे गले लगाने में तुम डरते हो।
4. नाचो, गीत लो, सांसों को महसूस करो—हर सास के साथ अपनी ज़िंदगानी का राग गाओ।
और हो सके तो ज़रा आक्रामक हो जाओ—सभी बोधियों को चीख-पुकार कर कहो, “यह मेरा उत्सव है!” क्योंकि असली उत्सव वही है जहाँ मौत भी तालियाँ बजाए!
दोस्तों, आज से हर दम याद रखिए—मौत आएगी, घड़ी की सुइयाँ टिक्स-टिक्स करती रहेंगी, लेकिन आप उन सुइयों को संगीत में बदल दीजिए। यही ओशो की जादूगरी है—सत्य की कठोरता को हास्य से पका देना, चिंतन को उत्सव में बदल देना, और आम इंसान को अस्तित्व के महोत्सव का राज सिखा देना।
चलो, थोड़ा जिया जाए!
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