“राजनीति एक खेल है। चालाक लोग इसे खेलते हैं, और मूर्ख इस पर दिन भर चर्चा करते हैं।”
इस वाक्य में जितनी तीव्रता है, उतनी ही सच्चाई भी। यह कथन न केवल राजनीति की भीतरी प्रवृत्ति को उजागर करता है, बल्कि उस जनमानस की मानसिक दशा को भी दिखाता है जो ‘खिलाड़ी’ नहीं, बल्कि ‘चर्चाकार’ है।
❖ राजनीति — सत्ता का शतरंज
राजनीति, अपने मूल रूप में, लोकनीति है — समाज के संचालन की व्यवस्था।
लेकिन आज की राजनीति वह नहीं रही जो कभी गाँधी, अंबेडकर या नेहरू के दौर में थी।
अब यह एक रणनीति आधारित खेल बन गई है — जिसमें सत्ता सबसे बड़ा पुरस्कार है, और मूल्य, सिद्धांत, आदर्श — ये सब केवल दर्शकों को बाँधने के औजार।
यह खेल वैसा नहीं है जो खुले मैदान में खेला जाता है।
यह परदे के पीछे चलता है, रूमालों की जगह समझौते होते हैं, और ताश के पत्तों की तरह लोगों की भावनाओं को फेंटा जाता है।
सत्ता में आने के लिए जो ‘चालाक’ लोग हैं — वे जनभावनाओं का विश्लेषण करते हैं, जातियों का गणित लगाते हैं, मीडिया की दिशा तय करते हैं, और फिर चुनावी खेल रचते हैं।
हर भाषण, हर नारा, हर घोषणा — केवल जनता की प्रतिक्रिया को मापने का तरीका है।
यह राजनीति अब सेवा नहीं — एक ‘कैरियर’ है, जिसमें जो जीतता है, वह राजा होता है, और जो हारता है — विपक्ष में बैठता है, अगली रणनीति के साथ।
❖ "मूर्ख इस पर दिन भर चर्चा करते हैं" — क्या यह कठोर सत्य है?
इस हिस्से को पढ़ते ही बहुतों को यह असहज लग सकता है।
"मूर्ख"?
क्या राजनीति पर चर्चा करना मूर्खता है?
उत्तर है — हाँ, यदि चर्चा केवल भावना, पक्षपात और टीवी चैनल की राय के आधार पर हो रही हो।
नहीं, यदि वह विवेक और साक्ष्य पर आधारित हो।
आज की विडंबना यही है कि देश का आम नागरिक, जिसकी ज़िंदगी सीधे तौर पर इन राजनीतिक निर्णयों से प्रभावित होती है — वह स्वयं निर्णयों की सूचना नहीं रखता, केवल प्रचार से परिचित है।
लोग नीतियों की गहराई नहीं, नेताओं के चेहरे पहचानते हैं।
वे घोषणाओं के असर नहीं, नारों की गूँज से प्रभावित होते हैं।
और यही राजनीति का सबसे सफल जाल है — जनता को चर्चा में उलझाकर, असली सत्ता से दूर रखना।
❖ राजनीतिक चर्चा — तथ्य नहीं, भावना का मामला
एक समय था जब गाँव की चौपालों में लोग राजनीतिक विमर्श करते थे — योजनाओं, खेती, सिंचाई, और शिक्षा को लेकर।
आज लोग मोबाइल स्क्रीन पर, व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी से ज्ञान पाते हैं — और उसी के आधार पर किसी को ‘देशद्रोही’ और किसी को ‘मसीहा’ घोषित कर देते हैं।
यह चर्चा अब तथ्यों पर नहीं, ट्रेंड पर होती है।
लोगों ने पढ़ना छोड़ा है, लेकिन बोलना नहीं।
तथ्य जाँचना नहीं चाहते, लेकिन राय हर विषय पर बनानी है।
और सत्ता को इससे कोई आपत्ति नहीं — बल्कि यही तो वह चाहती है।
एक ऐसी जनता जो सोचती कम हो, बोलती ज्यादा हो।
जो भावुक हो, पर जागरूक न हो।
जो प्रश्न न करे, केवल समर्थन या विरोध करे।
❖ मीडिया — चौथा स्तंभ या खिलाड़ी?
आज की राजनीति में मीडिया की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण हो गई है।
पहले मीडिया सत्ता पर निगरानी रखने वाला प्रहरी था, अब वह खुद सत्ता का प्रवक्ता बनता जा रहा है।
टीवी चैनलों की बहसें देखिए —
वहाँ राजनीति पर चर्चा नहीं, युद्ध होता है।
वहाँ विशेषज्ञ नहीं, पक्षधर बैठते हैं।
वहाँ ज्ञान नहीं, गुस्सा बिकता है।
और आम नागरिक —
इन चैनलों को देखकर, दिन भर वही झूठ को दोहराता है जो उसे परोसा गया।
सोशल मीडिया ने इस आग में घी का काम किया है।
अब हर व्यक्ति एक ‘विश्लेषक’ है,
पर बिना आधार, बिना विवेक, बिना ज़िम्मेदारी।
❖ आज की राजनीति — खेल के नियम क्या हैं?
राजनीति अब केवल चुनाव तक सीमित नहीं रही।
यह अब 24x7 चलने वाला रियलिटी शो बन गई है।
यहाँ:
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हर दिन एक नया नैरेटिव सेट किया जाता है
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पुराने मुद्दे भूलने के लिए नए ‘विवाद’ पैदा किए जाते हैं
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किसी नेता की व्यक्तिगत ज़िंदगी, किसी विरोधी के बयानों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया जाता है
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धर्म, जाति, भाषा — सभी का उपयोग होता है, साध्य एक ही होता है — सत्ता
और इस पूरी प्रक्रिया में आम जनता — उपयोग होती है, सहभागी नहीं।
❖ जागरूक नागरिक बनना — खेल बदलने की पहली शर्त
एक लोकतंत्र तभी जीवित रहता है जब उसके नागरिक जानकारी के साथ सोचते हैं।
बिना जानकारी, चर्चा केवल शोर है।
बिना विवेक, आलोचना केवल घृणा है।
मुझे लगता है, आज जो सबसे जरूरी कार्य है — वह है राजनीति को समझना, पर उसमें अंधा नहीं होना।
आप किसी भी दल के समर्थक हो सकते हैं —
लेकिन क्या आपने यह सोचा कि:
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उनकी नीतियाँ क्या हैं?
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बजट में क्या बदला गया?
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किस वर्ग को क्या लाभ या हानि हुई?
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उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला सुरक्षा पर नीतियाँ क्या हैं?
यदि इन पर आप मौन हैं, पर नेताओं के ‘चरित्र’ पर घंटों बोल सकते हैं — तो आप वही हैं जिनकी बात इस वाक्य में की गई है —
“मूर्ख जो राजनीति पर चर्चा करते हैं।”
❖ शिक्षा और राजनीतिक चेतना
राजनीतिक समझ कोई कॉलेज की डिग्री नहीं देती।
यह घर, समाज और शिक्षा प्रणाली से आती है।
पर दुर्भाग्य यह है कि हमारी शिक्षा कभी यह नहीं सिखाती कि सत्ता को कैसे सवालों के घेरे में रखा जाए।
बच्चों को सिर्फ रटाया जाता है —
पर लोकतंत्र का अभ्यास नहीं कराया जाता।
जब बच्चा युवा होता है — तो वह पहले चुनाव में वोट डालता है,
पर शायद उसे पता ही नहीं होता कि वह जिसे चुन रहा है, उसकी ज़िम्मेदारियाँ क्या हैं।
❖ क्या किया जाए? — निष्कर्ष और दिशा
इस पूरे विमर्श के बाद प्रश्न उठता है —
क्या आम नागरिक को राजनीति पर चर्चा करनी चाहिए या नहीं?
उत्तर है — बिल्कुल करनी चाहिए, लेकिन सजगता के साथ।
तथ्यों के साथ, समझ के साथ।
सवाल पूछने की हिम्मत के साथ।
नेताओं को भगवान नहीं, सेवक मानकर।
राजनीति तब तक खेल बनी रहेगी,
जब तक जनता खिलाड़ी नहीं बनती।
जब तक हम अपने वोट को केवल भावना से देंगे,
जब तक हम नीतियों से ज्यादा नारों पर विश्वास करेंगे,
तब तक इस खेल के चालाक खिलाड़ी हमें चलाते रहेंगे —
और हम, मूर्खों की तरह, चाय की दुकानों, फेसबुक पोस्टों और डिनर टेबल पर केवल चर्चा करते रहेंगे।
✅ निष्कर्ष
राजनीति एक खेल है — यह सत्य है।
लेकिन क्या तुम खिलाड़ी हो या कठपुतली — यह निर्णय तुम्हारे हाथ में है।
तुम्हारे सवाल ही तुम्हारी आज़ादी हैं।
तुम्हारी समझ ही तुम्हारी शक्ति है।
और तुम्हारी निष्पक्षता ही सच्चे लोकतंत्र की नींव है।
सजग बनो, समर्थ बनो — तभी राजनीति का खेल नहीं, समाज का भविष्य बदलेगा।
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