प्रिय आत्मन,
मैं तुमसे कोई उपदेश नहीं देने आया हूँ। मैं तो केवल एक दर्पण हूँ — जिसमें तुम स्वयं को देख सको। और अगर तुमने प्रेम की आंख से देखा, तो यह दर्पण तुम्हें ऐसा कुछ दिखा सकता है, जो तुमने पहले कभी नहीं देखा।

ओशो की यह उक्ति –
"बस प्रेम से देखो और तुम पाओगे कि हर व्यक्ति के पास कुछ ऐसा है, जो किसी और के पास नहीं है।"
– यह कोई साधारण वाक्य नहीं है। यह तो एक चाबी है — उस द्वार की जो अभी तक बंद था।
तुमने लोगों को देखा है — लेकिन शायद प्रेम से नहीं देखा। तुमने हमेशा देखा है तुलनात्मक दृष्टि से।
"उसके पास क्या है जो मेरे पास नहीं?"
"मैं उससे बेहतर हूँ या कमतर?"
"वो क्यों सफल है और मैं क्यों नहीं?"

और यहीं से दुख शुरू होता है।
यहीं से ईर्ष्या जन्म लेती है।
और ईर्ष्या — ईर्ष्या तो ऐसा विष है जो धीरे-धीरे नहीं, बहुत चालाकी से, चुपचाप तुम्हारे भीतर करुणा को नष्ट कर देता है।

तुलना का जाल: समाज का सबसे प्रिय खेल

समाज तुम्हें बचपन से ही सिखाता है: "दूसरे से आगे निकलो!"
जैसे जीवन कोई दौड़ हो, और मंज़िल कहीं पड़ी हो, और हर कोई दौड़ रहा हो किसी अदृश्य रेखा की ओर।
माँ अपने बच्चे से कहती है: "देखो शर्मा जी का बेटा कितनी अच्छी रैंक लाया है।"
शिक्षक कहता है: "तुम उस छात्र की तरह क्यों नहीं बन सकते?"
और फिर... धीरे-धीरे तुम दूसरों की छाया में जीने लगते हो।
तुम स्वयं नहीं हो। तुम केवल एक "कॉपी" बन जाते हो — और वो भी बुरी।

लेकिन प्रेम —
प्रेम कहता है: "तुलना व्यर्थ है।"
क्यों? क्योंकि हर व्यक्ति अद्वितीय है।
जैसे दो पत्तियाँ भी एक जैसी नहीं होतीं, वैसे ही दो मनुष्य कैसे हो सकते हैं?

एक कहानी: एक चित्रकार और उसकी दृष्टि

एक बार एक प्रसिद्ध चित्रकार गाँव में आया।
वह हर दिन किसी न किसी व्यक्ति का चित्र बनाता — लेकिन सबके चित्र में एक खास बात होती थी।
जो भी देखता, कहता: "इस चित्र में तो मेरे भीतर की सुंदरता दिखाई दे रही है!"
लोग चकित थे।

एक दिन एक बूढ़ा भिखारी आया — मैले कपड़े, गंदा शरीर, टूटी-फूटी चप्पलें।
वह हँसते हुए बोला: "तू मेरा भी चित्र बनाएगा?"
चित्रकार ने कहा: "क्यों नहीं, मैं तुम्हें वैसे देखता हूँ जैसे कोई फूल देखे।"

और उसने उस भिखारी का चित्र बनाया —
जिसमें उसकी आंखों की गहराई थी, उसके अनुभवों की झुर्रियाँ थीं, उसकी आत्मा की यात्रा की छाया थी।
लोग देख कर स्तब्ध रह गए।
चित्र में कोई 'भिखारी' नहीं था — एक 'राजा' था, लेकिन अदृश्य मुकुट के साथ।

प्रेम से देखने का यही अर्थ है।
तुम जैसे देखते हो, वैसा ही संसार बनता है।
अगर तुम तुलना से देखते हो — तो सब या तो ऊँचे लगेंगे या नीच।
अगर तुम प्रेम से देखते हो — तो सब अपने ढंग से अद्वितीय लगेंगे।

विज्ञान भी यही कहता है: यूनीकनेस ही प्रकृति का नियम है

विज्ञान अब कहता है कि हर मनुष्य का डीएनए कोड अलग है।
कोई भी उंगली किसी दूसरी से मेल नहीं खाती।
यहाँ तक कि जुड़वा बच्चे भी पूरी तरह एक जैसे नहीं होते।

तो सोचो — जब प्रकृति ने कभी दो पत्तियाँ एक सी नहीं बनाईं,
तो तुम क्यों चाह रहे हो कि तुम किसी और जैसे बनो?

तुम्हारा दुख इसलिए है कि तुम वो बनने की कोशिश कर रहे हो जो तुम नहीं हो।
और जो तुम हो — वो अनोखा है, दुर्लभ है, और सिर्फ तुम्हारे लिए है।
लेकिन उसे देखना हो, तो प्रेम की आंख चाहिए।

प्रेम क्या है? और क्यों प्रेम से ही दृष्टि बदलती है?

प्रेम कोई भावना नहीं है।
प्रेम एक दृष्टि है।
जब तुम प्रेम से देखते हो — तो तुम मूल्य नहीं लगाते।
तुम निर्णय नहीं करते।
तुम कहते हो — "जैसा है, वैसा ही ठीक है।"

तुम्हें आश्चर्य होगा —
लेकिन जब तुम प्रेम से किसी को देखते हो,
तो तुम्हारी आंखें पहली बार किसी को बिना चश्मा लगाए देखती हैं।
न जाति का चश्मा, न धर्म का, न सुंदरता का, न सफलता का।
केवल “जो है” वही दिखता है।

हास्य: जब तुलना जीवन का मजाक बन जाती है

तुम एक मज़ेदार बात सुनो:
एक बार एक मेंढक अपने बगल के मेंढक से कहता है,
"भाई, तू कितना ऊँचा कूदता है — मैं तो शर्मिंदा हूँ!"
दूसरा मेंढक कहता है: "अरे पागल, तू तालाब में कूद, ओलंपिक में नहीं!"

इसी तरह हम सब तुलना कर रहे हैं —
लेकिन संदर्भ गड़बड़ है।

तुम तुलसी को आम से नहीं तौल सकते।
तुलसी अपनी जगह सुंदर है — आम अपनी जगह स्वादिष्ट।
लेकिन तुलसी को आम बनाने की कोशिश करोगे, तो न तुलसी बचेगी न आम।

ध्यान और आत्म-जागरूकता: जब तुम स्वयं को जान लेते हो

अब प्रश्न आता है:
"प्रेम की आंख लाएँ कैसे?"

यह तभी सम्भव है जब तुम ध्यान में उतरते हो।
जब तुम अपने भीतर की विशिष्टता को पहचानते हो —
तभी तुम दूसरों की विशिष्टता का सम्मान कर सकते हो।

ध्यान का अर्थ है —
भीतर देखना,
भीतर की मौनता को सुनना,
भीतर के आकाश में उड़ना।

एक बार तुम जान लो कि
"मैं कौन हूँ?"
तो फिर तुम जानोगे कि हर कोई एक ब्रह्मांड है —
अलग-अलग, लेकिन बराबर।

ध्यान से व्यक्ति अहंकार से मुक्त होता है।
और प्रेम — प्रेम अहंकार की अनुपस्थिति है।
जहाँ प्रेम है, वहाँ ‘मैं’ नहीं होता।
जहाँ ‘मैं’ नहीं होता, वहाँ केवल करुणा होती है।

समाप्ति: प्रेम की आंख से देखो — और ध्यान का जन्म होगा

तो प्रिय आत्मन,
मैं तुमसे यह नहीं कह रहा कि तुम अच्छे बनो, श्रेष्ठ बनो, महान बनो।
मैं केवल कह रहा हूँ —
देखो! लेकिन प्रेम से।
सुनो! लेकिन स्वीकृति से।
जीओ! लेकिन बिना तुलना के।

जब तुम प्रेम से देखते हो —
तो दूसरों की कमियाँ भी फूल लगती हैं।
और जब तुम प्रेम से देखते हो —
तो जीवन केवल सहन नहीं होता — उत्सव बन जाता है।

जीवन में करुणा प्रवेश करती है।
समर्पण का भाव आता है।
और फिर —
तुम्हारे भीतर एक नया ध्यान जन्म लेता है।
वह ध्यान जो ध्यान करने से नहीं आता —
वह तो प्रेम से आता है।

तो उठो!
प्रेम की आंख खोलो।
हर व्यक्ति में भगवान की झलक है — बस तुमने अब तक ईर्ष्या के चश्मे पहन रखे थे।
अब प्रेम का चश्मा लगाओ — और देखो...
हर व्यक्ति में कोई जादू है, कोई संगीत है, कोई गंध है — जो केवल उसी की है।

ओम् शान्तिः शान्तिः शान्तिः।

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