तुमने कभी अपनी अलमारी टटोली है? पुरानी चीज़ों से भरी हुई होती है—कुछ जूते, जो अब नहीं आते, कुछ कपड़े, जो अब फैशन में नहीं हैं, कुछ उपहार, जो कभी किसी ने प्रेम में दिए थे और अब प्रेम नहीं रहा, लेकिन चीज़ें अब भी हैं...
ऐसे ही तुम अपने भीतर भी अलमारी सजाए बैठे हो—यादों की, वस्तुओं की, संबंधों की, आदतों की, मान्यताओं की... और अजीब बात यह है कि तुम उन्हें ‘खजाना’ समझते हो। लेकिन मैं कहता हूं, वे जंजीर हैं!
एक साधारण प्रयोग करो: खोजो, कौन-कौन सी वस्तु है, जो खो जाए तो तुम भीतर से हिल जाओ।
तुम्हारा मोबाइल? घर? पत्नी? बेटे की नौकरी? समाज में प्रतिष्ठा?
सुनो, ध्यान से सुनो: जिसका खो जाना तुम्हें तोड़ देता है, वह तुम्हारी स्वतंत्रता का नहीं, गुलामी का हिस्सा है।
जकड़नों का नकली श्रृंगार
तुमने कभी किसी को हारते हुए देखा है? बहुत तकलीफ़ होती है। लेकिन उससे ज़्यादा तकलीफ़ होती है उस आदमी को, जो हार नहीं सकता। क्योंकि जो हार नहीं सकता, वो ज़िंदगी नहीं जी सकता।
तुम चाहते हो कि तुम्हारी नौकरी कभी न छूटे।
लेकिन यह चाह ही तुम्हें नौकरी की ज़ंजीर में जकड़ देती है।
तुम चाहते हो कि लोग तुम्हारी तारीफ करें।
तो फिर तुम आज़ाद नहीं हो—तुम उनके ग़ुलाम हो गए।
यहाँ तक कि तुम ईश्वर को भी खोने से डरते हो, इसलिए मंदिरों की सीढ़ियाँ गिनते हो!
कहानी: संत और मिट्टी की मूर्ति
एक कहानी सुनो...
एक गांव में एक संत आया। वह बहुत साधारण था, कोई शोर नहीं, कोई तामझाम नहीं। गांव वाले रोज़ उसे मंदिर के बाहर बैठा देखते, लेकिन कोई ज़्यादा ध्यान नहीं देता।
फिर एक दिन, गांव में बाढ़ आ गई। लोग मंदिर की मूर्ति को उठाकर ले जाना चाहते थे, लेकिन वह बहुत भारी थी।
तब वह संत आगे आया, उसने बस एक हल्की सी लात मारी... और मूर्ति मिट्टी की निकली—टूटी, बिखर गई।
गांव वाले चौंक गए—पूछा, "तुमने भगवान की मूर्ति तोड़ दी?"
संत मुस्कराया, बोला, “जिसे मैं तोड़ दूँ, वो भगवान नहीं हो सकता।”
और उस दिन गांव में पहला असली मंदिर बना — बिना मूर्ति के, भीतर का मंदिर।
मूल बात: पकड़ ही पीड़ा है
जिन चीज़ों को तुम पकड़ कर बैठे हो, वही तुम्हारे दुख का कारण हैं।
एक प्रेम जो छूट गया — तुम्हें सालों साल तक सताता है। क्यों?
क्योंकि तुमने उसे छोड़ा नहीं। वह तो चला गया, लेकिन तुम अब भी उसके ताबूत को सीने से लगाए बैठे हो।
ध्यान रखना — स्मृतियाँ अगर बंद कमरे में रखी रहें, तो सड़ जाती हैं।
तुम उन्हें महकते गुलाब समझते हो, लेकिन वे अब गंध नहीं देतीं, केवल दुर्गंध देती हैं।
स्वीकृति का विज्ञान
मनुष्य का मन केवल पकड़ना जानता है। उसे पकड़ने की आदत पड़ गई है—बचपन से, समाज से, धर्म से।
इसलिए मैं कहता हूं, ध्यान में बैठो।
ध्यान क्या है?
ध्यान वह अवस्था है जिसमें तुम कुछ भी नहीं पकड़ते।
न विचार, न वस्त्र, न भय, न आशा...
तुम खाली हो जाते हो। और यही खालीपन ही तुम्हारी असली संपत्ति है।
तुम्हारी सबसे सुंदर स्थिति वह होती है जब कुछ नहीं है — और फिर भी आनंद है।
रूपक: जीवन की नाव
तुम जीवन की एक नाव पर हो। और तुमने उस पर बोरे चढ़ा रखे हैं — धन के, रिश्तों के, सम्मान के, भय के।
जब नाव डगमगाती है, तो तुम सबसे पहले उन बोरों को बचाते हो!
कितनी विडम्बना है—तुम्हारी जान से ज़्यादा प्यारी हो गई हैं तुम्हारी जंजीरें!
मैं कहता हूं: नाव को हल्का करो। क्योंकि नाव डूबती नहीं, वह तो बोझ से डूबती है।
ईर्ष्या, मोह, क्रोध — सब पकड़ हैं
तुम ईर्ष्या क्यों करते हो? क्योंकि किसी और के पास वह है, जो तुम पकड़ना चाहते थे।
तुम क्रोध में क्यों आ जाते हो? क्योंकि कोई तुम्हारी पकड़ में नहीं आ रहा।
तुम मोह क्यों करते हो? क्योंकि तुम किसी को छोड़ नहीं पाते।
पर याद रखो — जो चला जाए, उसे जाने दो। जो रुका है, वह तब तक रुका है जब तक उसकी डोर अस्तित्व से जुड़ी है, तुमसे नहीं।
ध्यान का प्रयोग: अपनी पकड़ पहचानो
इसलिए मैं एक प्रयोग बताता हूं...
हर सुबह उठते ही, पांच मिनट बैठो।
सिर्फ इतना सोचो: अगर यह चीज़ आज मुझसे छिन जाए — तो क्या मैं शांति से रह पाऊंगा?
घर? रिश्ते? शरीर? धर्म?
अगर नहीं — तो समझो कि तुम आज़ाद नहीं हो।
और फिर तय करो — धीरे-धीरे उस पकड़ को ढीला करने का अभ्यास करना है।
आख़िरी बात: वर्तुल को जानो
ओशो ने कहा है — जीवन एक वर्तुल है।
तुम जिस बिंदु से जन्म लेते हो — वहीं मृत्यु लौटती है।
तुम जिसे खोने से डरते हो — शायद वही तुम्हें जन्म के उस द्वार तक नहीं लौटने दे रहा।
इसलिए, खोने से मत डरो।
जिस दिन तुम सब खो बैठते हो — और फिर भी भीतर मुस्करा सकते हो — उस दिन तुम मुक्त हो।
और वही दिन तुम्हारा जन्मदिन है, असली जन्म!
(शांत स्वर में)
मुक्त हो जाओ।
छोड़ दो।
उठो, अपने मन की जेलों से।
तोड़ दो उन दीवारों को जिन्हें तुमने खुद बनाया है।
क्योंकि जो भी खो सकता है — वो तुम नहीं हो।
तुम वही हो जो खोने के बाद भी बचा रह जाता है। वही शुद्ध चेतना, वही आनंद, वही शाश्वत।
ध्यान के साथ बैठना... और भीतर की जंजीरों को देखना... वही आरंभ है, वही अंत... वही मोक्ष है। 🌿
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