तुमने कभी ध्यान से देखा है… जब कोई रोता है, तो तुम उसके पास जाकर सहानुभूति व्यक्त करते हो। तुम हाथ रख देते हो, “सब ठीक हो जाएगा,” कह देते हो। और तब तुम्हें भी थोड़ी राहत मिल जाती है—“अरे, कम-से-कम कोई ऐसा है जो मुझसे भी बुरा हाल में है।” लेकिन जब वही व्यक्ति हँसता है, खुश होता है, समृद्धि का अनुभव करता है, तब तुम्हारे मन के भीतर एक अजीब-सी खलिश सी उठने लगती है—“अरे, वो मेरे से ज़्यादा खुश है? वो मुझसे ज़्यादा कामयाब है?”
खड़ा हो जाओ, फिर पूछो खुद से—“क्या मैं कभी असली खुशी के साथ दूसरे के सुख में शामिल हुआ हूँ? क्या मैंने कभी सचमुच किसी की सफलता पर अपनी आत्मा झूमने दी?”
यहां तक कि अपने आस-पास के धार्मिक समाज में आधे लोग दूसरों के दुख को देखकर अपना दुख बढ़ा लेते हैं—दुखवाले को गले लगाकर कह देते हैं—“तू अकेला नहीं, मैं तेरे साथ हूँ।” और फिर अंदर ही अंदर सोचना शुरु कर देते हैं—“छोटा साहब, ठीक है, मेरा दर्द भी कम नहीं!”
यह सब हमारी उस अचेतन मस्तिष्क-रचना का परिणाम है जो केवल ‘सहानुभूति’ को “परम धर्म” समझ बैठी है। जबकि असली धर्म है ‘समरसता’—दूसरे के सुख में उसी तीव्रता से आनंदित होना, जैसे तू स्वयं उस सुख का केंद्र हो।
1. सहानुभूति बनाम समरसता
सहानुभूति… हाँ, यह अच्छा है, यह मानवीय है, परंतु केवल “दुख” के संदर्भ में। सहानुभूति कहती है—“मुझे भी उससे कुछ लेना है, भावनात्मक सुकून का!” लेकिन समरसता कहती है—“मैं तेरी खुशी का ही हिस्सा बन जाना चाहता हूँ, मैं तेरा आनंद हूं।”
देखो, सहानुभूति हम तब दिखाते हैं, जब सामने वाला असहाय हो, लेकिन जब सामने वाला उठ खड़ा हो जाए—चमचमाता हुआ—तो हमारे भीतर का अंधेरा गर्व में बदल जाता है। “अच्छा किया, उसने सफलता पाई! लेकिन क्या मैं उससे भी बेहतर नहीं हूँ?”
और यह भावना है—ईर्ष्या—जो कलंकित कर देती है हमारे अंदर की उस शुद्धता को, जो कदाचित कभी जन्म लेने ही नहीं दिया गया।
2. न्यूरोसाइंस का सूत्र: Mirror Neurons और Dopamine
थोड़ा विज्ञान समझ लो…
वैज्ञानिक कहते हैं—जब हम किसी दूसरे का दर्द देख रहे होते हैं, तो हमारे दिमाग के ‘Mirror Neurons’ सक्रिय हो जाते हैं। वे न्यूरॉन्स सीधे हमारे भीतर के दर्द-संवेदना केंद्र को जागृत कर देते हैं, और तुम्हारा शरीर Cortisol छेड़े देता है। “तनाव,” कहता है शरीर—“मुझे बचाओ!” और इसलिए तुम सहानुभूति दिखाते हो—“चलो, कम-से-कम दर्द तो बांट लिया।”
लेकिन जब तुम किसी की खुशी देखते हो, तब वही Mirror Neurons उस खुशी को प्रसारित नहीं करते—वहां Dopamine का प्रवाह होने लगता है, पर तुम इसे अस्वीकार करते हो, “मेरा हनीमीटर तो कभी किसी और के लिए नहीं टिकेगा!”
इसलिए जब हम दूसरे का दर्द देखते हैं, तब हमारा मस्तिष्क Cortisol से राहत की तलाश में आक्रोशित होता है, और जब कोई सुखी होता है, तब हमारा मस्तिष्क Dopamine को देख कर लकवाग्रस्त हो जाता है—“अरे, ये तो मुझे खिलाड़ी से बाहर कर रहा है!”
नतीजा: दुःख पर हम इंगित कर सकते हैं, लेकिन खुशी पर… हम ऐसा करते ही नहीं!
3. कटाक्ष: “दुख में कला, खुशी में मकड़ी”
मैं सुनता हूँ—“बाबा, मैं अपने मित्र के दुख में इतना रोया, इतना दुखी हुआ, कि भगवान से भी विनती कर डाली—‘भगवान, बस उसे जल्दी ठीक कर दो’। फिर उस मित्र के चेहरे पर मुस्कान आई—तो मुझे अच्छी नींद नहीं आई! इसका क्या करूं, बाबा?”
मैं हँस पड़ा—“हे मूर्ख, तुम्हारा धर्म तो दुख में नाचने का है, खुशी में ‘मैं बुढ़ापे तक क्रूर रहूँगा’!”
और दूसरे दिन नज़र आया—हाँ, वही मित्र अपना नया घर लेने निकल पड़ा—तब तुम्हें वही बातें दोहरानी थीं—“धन्य हो, सुखी हो, पर कहीं मैं तेरे दर्द की याद न भूल जाऊँ!”
इसीलिए मैंने कहा—“दुख में सहानुभूति दिखाने वाला… कहीं वह ‘धार्मिक आदमी’ नहीं। लेकिन दूसरों के सुख में यदि आत्मा झूम उठती है—वह धर्म का प्रतीक है।”
समाज में जितने ‘दुख-रेडी’ लोग हैं, उनसे पूछो—“तुम्हारा गम कितना गहरा था?” जवाब मिलेगा—“इतना की मेरी सहानुभूति के चलते उस हाईलाइटेड रीहैब सेंटर तक अपनी डेटिंग सेट कर ली।”
और ‘खुशी-फुरी’ लोग? पूछो—“भैया, तुम्हारी खुशी में हमें क्या…” जवाब मिलेगा—“क्या मज़ाक कर रहे हो! कोई मेरी खुशी देखकर खुश नहीं होता!”
यहां तक कि अगर तुम किसी को आर्थिक रूप से मदद करते हो, तो भी पास-पास बैठते हो, यही सोचकर—“सुना है, उसने 10 करोड़ की फैक्ट्री लगाई है।”
अरे मित्र, ईश्वर ने तुम्हें ‘दुख का डोजर’ बनाया है, ‘सुख का सेंसटिनल’ नहीं!
4. रूपक: फूलों और कांटों का बगीचा
एक बगीचा था—सारे फूल खुशबू बाँटते थे।
बगीचे के कोने में एक कांटा खड़ा था—सभी फूल उससे डरते थे।
एक दिन वो कांटा बोला—“मैं भी तो बाग़ की शोभा बढ़ाता हूँ!”
फूलों ने उत्तर दिया—“तुम तो सिर्फ बोझ बढ़ाते हो!”
ध्यान से देखो—तुम भी उसी कांटे की तरह हो। तुम दिखना चाहते हो “धार्मिक,” लेकिन असल में कांटों का दर्द बढ़ा देते हो।
अगर तुम फूल होते—इतराते हुए—“मैं खुशबू हूँ! मैं दूसरों को जीवन संपन्न करता हूँ,”
तो बगीचा कैसे महकता!
यही ‘धार्मिकता’ है—कांटे बनने का नाम नहीं, बल्कि फूल बनकर महक के खिलने का नाम है।
5. कहानी: दो संन्यासी और अंतिम प्रश्न
एक बार दो संन्यासी मिले—
पहला बोला, “मैं तो दूसरों का दुख सहता-सहता आत्मा से टेंशन लेने लगा।”
दूसरा हँसा और बोला—“मैं तो दूसरों के सुख में इतना मग्न हो गया कि भूख ही भूल गया।”
तब पहला बौखला कर बोला—“अरे, यह कैसा धर्म है?”
दूसरा बोला—“धर्म वही जिसमें तुमने अपने अहं को मिटा दिया हो!”
तब पहला पूछा—“लेकिन कैसे जानूं कि मेरा अहं मिट गया?”
तब दूसरा बोला—“जब किसी के द्वारा एक मोटी कार ले जाने पर तुम्हारे होंठों पर मुस्कान आ जाए… तब जान लेना—तुमने दूजा को पाला, खुद को मिटा दिया।”
यह कहानी तुम पर भारी नहीं पड़ेगी, क्योंकि तुमने कभी अपने भीतर झाँकने की हिम्मत नहीं की।
6. ध्यान और आत्म-जागरूकता का महत्व
अब तुम कह सकते हो—“ठीक है, धर्म-मन की इतनी बातें… पर असली समाधान क्या है?”
मैं कहता हूँ—ध्यान!
ध्यान भी वही दर्पण है जिसमें तुम खुद को देख सकते हो—क्या तुम दूसरों के दुख में रेंगते हो, या दूसरों के सुख में नाचते हो।
ध्यान सिर्फ बैठने की मुद्रा नहीं; वह तुम्हारी आत्मा के दरवाज़े का कुण्ड है।
जब तुम ध्यान लगाकर बैठते हो, तो तुम्हारे भीतर की चंचलता शांत होती है, और तुम्हें उस आत्मा का लेंस मिल जाता है जिसमें ‘समरसता’ धधक उठती है।
तुम ध्यान करो, श्वास पर ध्यान दो, विचारों को ध्यान में भटकने दो, पर खुद को देखो—क्या तुम दुख में सिसकते हो या सुख में झूमते हो?
तुम्हारे भीतर जो प्रतिबिंब बैठा है—वह तुम्हारा चरित्र है। और जब ध्यान करके तुम उस प्रतिबिंब को देखोगे तो पता चलेगा, “अरे, मैं तो अभी तक दूसरों के दुख में अलमारी भरने वाला था, दूसरों के सुख में अंग-अंग लहराने वाला नहीं।”
तब तुम जागोगे, तब तुम्हारी आत्मा झूमेगी, तब सचमुच तुम “धार्मिक” हो जाओगे—क्योंकि धर्म और समरसता का मूल है खुशियों को बाँटना, दुःख नहीं।
7. आधुनिक जीवन में धार्मिकता का क्षरण
आज का समाज देखो—
टेलीविजन हो, मोबाइल, फेसबुक, इंस्टाग्राम!
सब लोग दूसरों का दर्द शेयर करते हैं—“ओह माय गॉड! कल का ट्रैफिक जाम, कितने बच्चे AC न चलने से मर गए!”
और तुम सोचते हो—“मैं कितना Religious हूँ!”
और जब कोई सेलिब्रिटी कोई पुरस्कार जीतता है—तब तुम्हारी स्टोरीज पर कोई भी “Congratulations” नहीं लगाता। बल्कि, कमेंट्स की बाढ़ आ जाती है—“अरे, भाई ने अपना गुड-लक अपलोड कर दिया!”
तुम अस्पताल जाते हो, बाहर “राम-राम, जय श्रीराम” का बोर्ड; अंदर लोग मोबाइल पर ‘इमोशनल गीत’ सुनकर रो रहे हैं—“भाई, कैसे पॉप्युलर होंगे भजन गायक?” तुम आंसू बहा रहे हो, दूसरे की सहानुभूति से अपनी आत्मा को तसल्ली दे रहे हो।
लेकिन जब वही अस्पताल ‘स्विमिंग पूल’ में सैलिब्रिटी गोल्फ प्रतियोगिता करवाए—तब तुम्हारा चैनल ऑफ ह्यूमर खुल जाता है—“क्या टिकाऊ रसोइये हैं! सांपो की तरह फिसलता काम!”
यहां तक कि खुद को “धार्मिक” समझने वाले टिकटॉक गायक भी कभी किसी की कामयाबी सुनकर ईर्ष्या नहीं छोड़ते।
धर्म क्या?
धर्म तो इन ‘सहानुभूति-रैपर’ और ‘हर्ष-रिपोर्टर’ दोनों से ऊपर है।
8. प्रेरक आह्वान
अब तुमसे सच पूछता हूँ—
क्या तुम इस क्षण किसी के सुख के विचार से गदगद हो सकते हो?
या तुम्हारे भीतर अभी भी वह ईर्ष्या का जहर बैठा है—“काश, मुझे भी वैसा हो!”
मैं तुम्हें आमंत्रित करता हूँ—
हर सुबह उठते ही किसी अजनबी की खुशियों की कामना करो।
कोई तुम्हारा परिचित नहीं है? कोई बात नहीं।
सोशल मीडिया पर किसी के ‘केक काटने’ की पोस्ट पर जाओ, आंखें बंद करो, और खुद को उस खुशी का हिस्सा मानो—अचानक महसूस करो—“वह खुशी मेरा हिस्सा भी है!”
और जब तुम ऐसा करोगे—तब महसूस होगा—“अरे, मैं अपने भीतर उठते हुए अनन्त आनंद को देख रहा हूँ!”
ध्यान करो—
हर सांस के साथ कहो—“मैं दूसरों के सुख में अपने अक्षय आनंद का अनुभव करता हूँ।”
और हर सांस छोड़ो—“मैं अपने भीतर की ईर्ष्या को निकल जाने दूँ।”
देखना! जब तुम्हारा मस्तिष्क in skabe से गुज़रकर Neurochemical celebration मनाएगा—तब तुम्हें आएगा असली एहसास—“आज मैंने मूर्खता छोड़ दी, धर्म पाया।”
9. निष्कर्ष: धर्म की अंतर्निहित ऊर्जा
अब तुम्हें समझ में आया होगा—
धर्म केवल मंदिरों और मस्जिदों में घंटी बजाने का नाम नहीं,
धर्म केवल ब्राह्मणों की प्रार्थना नहीं,
धर्म केवल महामंत्र का जाप नहीं—
धर्म तो वह संगीतमय ऊर्जा है, जो तुम्हारी आत्मा में गूँजती है, जब किसी अजनबी की मुस्कान तुम्हारे होंठों पर उतर आए।
धर्म तो उस आनंद में तरंगित होने का नाम है, जो दूसरों की प्रसन्नता के साथ खिल उठता है—
जैसे कोई पुष्प तभी खिलता है, जब उसकी खुशबू हवा में घुल जाए।
तो फिर…
रुक मत जाना!
अपने भीतर का प्रतिबिंब देखो—
क्या तुम दूसरों के दुख में नाच रहे हो, या दूसरों के सुख में झूम रहे हो?
कहने का अर्थ यही है—
जब तुम दूसरों की ख़ुशी में अपना उत्सव मनाओगे, तब यकीनन तुमने धर्म को समझ लिया।
(कुछ क्षण का मौन)
और याद रखना—
“धार्मिक आदमी वह नहीं जो दूसरे के दुख में रोता है,
धार्मिक आदमी वह है जो दूसरे के सुख में अपनी आत्मा तक नाच उठता है।”
प्रणाम।
ओशो का प्रेम और जागरूकता आपके भीतर चमकती रहे।
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