“अगर आप ‘सच’ देखना चाहते हैं तो, ना सहमती और ना असहमति में राय रखें।”
— ओशो

मुख्य संदेश की स्पष्ट व्याख्या

मनुष्य की सबसे बड़ी भूल क्या है? वह यह कि वह सोचता है कि उसकी राय, उसका दृष्टिकोण, उसका "मैं", सच है।

राय… सहमति या असहमति… ये दोनों ही मानसिक गर्जनाएँ हैं। एक कहता है, “हाँ, तुम ठीक कहते हो।” दूसरा चिल्लाता है, “नहीं! तुम बिलकुल गलत हो।” लेकिन दोनों ही आवाज़ों में कुछ समान है—वे “तुम” पर केंद्रित हैं, “मैं” से निकली हुई हैं, और “सच” से कोसों दूर हैं।

ओशो कहते हैं, “सच वह नहीं होता जो तुम्हारी सहमति से पुष्ट हो या असहमति से खंडित।”
सच तो वह होता है जो मौन में उगता है, जहाँ न हाँ की ज़रूरत होती है, न ना की।

क्यों ज़रूरी है यह समझना?
क्योंकि हर राय में कहीं न कहीं पूर्वाग्रह, पहचान, और व्यक्तिगत भावना छुपी होती है।
आपकी राय आपका अतीत बोलती है—आपका धर्म, आपकी जाति, आपकी शिक्षा, आपकी परवरिश। और सच… वह किसी जाति, किसी किताब, किसी तर्क से परे होता है।

मौन, कटाक्ष और सवाल

क्या तुम सच देखना चाहते हो?
या बस इतना चाहते हो कि तुम्हारी राय देखी जाए?
बहुत बड़ा फर्क है।

ओशो जब बोलते हैं, तो उनकी भाषा नदी की तरह बहती है—कभी गहराई में उतरती, कभी पत्थरों से टकराती, और कभी… बिलकुल चुप। उस मौन में जैसे पूरा ब्रह्मांड रुक जाता है।

“लोग दृष्टि की बात करते हैं, लेकिन ‘जुड़वा छल्ले’ पहन कर आते हैं।”
क्या मतलब है इसका?
मतलब ये कि हर कोई देखना चाहता है, लेकिन अपने विचारों की ऐनक लगाकर।
एक ने मार्क्स की ऐनक पहनी है, दूसरा महावीर की, तीसरा मनु की, चौथा न्यूटन की।
पर देखना तब होता है जब तुम उन ऐनकों को उतार फेंको।

विज्ञान और मनोविज्ञान की दृष्टि

मस्तिष्क में एक प्रणाली होती है जिसे मनोविज्ञान में कहते हैं confirmation bias
आप वही देखते हो, जो आप देखना चाहते हो।
जो आपकी राय को पुष्ट करे—वही खबर पढ़ते हो, वही दोस्त रखते हो, वही किताब चुनते हो।
क्या कभी किसी राय से अलग कुछ पढ़ने का साहस किया है?

न्यूरोसाइंस बताता है कि हमारी चेतना सत्य का निष्पक्ष गवाह नहीं, बल्कि संपादक है।
हर क्षण वह विचारों, अनुभवों और रायों की कैंची चलाकर तुम्हें वही सच परोसता है जो तुम्हारे मन को अच्छा लगे।

रूपक और कथाएँ

कल्पना करो…
दो अदृश्य पहाड़ों के बीच एक घाटी है।
पहाड़ हैं—सहमति और असहमति।
और बीच में जो घाटी है—वह मौन है, वह सच है।
लेकिन उस घाटी में जाने के लिए एक शर्त है—चढ़ाई नहीं, उतरना होगा।
अपने अहं से नीचे, अपने विचारों से नीचे, अपने “मैं” से नीचे।

एक बार एक साधु था…
जिसने हर बहस में भाग लेना छोड़ दिया।
लोग कहते, “तुम कायर हो!”
वह मुस्कुराता और चुप रहता।
एक दिन एक व्यक्ति आया और पूछा—“तुम्हें कुछ भी फर्क नहीं पड़ता क्या?”
उसने उत्तर नहीं दिया…
वो मौन था… और उस मौन में वह सच था।

ध्यान और स्व-अवलोकन की भूमिका

ध्यान क्या है?

ध्यान कोई अभ्यास नहीं।
ध्यान कोई प्रयास नहीं।
ध्यान वह अवस्था है जब हाँ और ना दोनों गिर जाते हैं।
जब भीतर बस एक साक्षी बचता है—ना समर्थन, ना विरोध—बस देखना।

जब तुम विचारों को रोकना नहीं चाहते, पर उन पर टिकते भी नहीं, तब एक चमत्कार होता है।
तब तुम देख पाते हो कि जो तुम्हें लगता था ‘तुम्हारी राय’ है, वह भी बस एक बादल था।

ओशो कहते, “बस साँसों को देखो…
मत कहो ‘यह गहरी है’ या ‘छिछली’ है…
मत कहो ‘यह अच्छी है’ या ‘खराब’ है…
बस देखो… और देखना ही ध्यान बन जाएगा।”

आधुनिक जीवन में प्रासंगिकता

आज का मानव राय देने में जितना व्यस्त है, उतना शायद श्वास लेने में भी नहीं।

हर सोशल मीडिया पोस्ट एक राय है, एक तीर है, एक युद्ध है।
कोई कहता है “यह सरकार अच्छी है।”
कोई कहता है “यह फिल्म बकवास है।”
पर कोई नहीं कहता, “मैं नहीं जानता… मैं देखता हूँ…”

कभी-कभी लगता है, जैसे “शांति” अब एक पुरानी चीज़ हो गई।
हमने उसे बदल दिया है “वायरलिटी” से।
अब विवाद ही लोकप्रियता का आधार है।
और सच?
वह कहीं कोने में बैठा साँसें गिन रहा है।

व्यंग्य और हास्य: सच भी फेसबुक पोस्ट बन गया

एक बार एक बाबा ने कहा,
“आजकल लोग इतनी राय देते हैं कि सच अपने आपको फेसबुक स्टेटस समझने लगा है—‘Like’ करो, ‘Comment’ करो, और ‘Share’ कर दो।”
लेकिन ‘अनुभव’ कहाँ गया?
कहाँ गया वह क्षण जब तुम सच से टकराते थे और मौन हो जाते थे?

यहाँ तक कि हार्वर्ड का छात्र भी “Q&A” में पैरोल्स बनाता है—क्यों?
क्योंकि भीतर से कुछ गूंजता नहीं।
भीतर सिर्फ राय की गूंज है, सच की नहीं।

प्रेरक समापन: अनुभव की ओर आमंत्रण

मैं तुमसे नहीं कहता कि मेरी बात मानो।
मैं तुमसे नहीं कहता कि मुझसे सहमत हो या असहमत।
मैं बस कहता हूँ—थोड़ी देर के लिए राय को छोड़ दो।

बस बैठो,
आँखें बंद करो,
साँसों को महसूस करो,
और जो हो रहा है—उसे होने दो।

शायद…
शायद वहाँ, उस मौन में,
तुम्हें सच मिल जाए—बिना आवाज़, बिना शब्द, बिना राय।

एक छोटा ध्यान अभ्यास: सच से मिलना

  1. एक शांत जगह चुनें

  2. आराम से बैठें, आँखें बंद करें

  3. कोई विचार आये—ना हाँ कहें, ना ना

  4. बस साँस पर ध्यान दें—आती और जाती

  5. हर बार ध्यान भटके—मुस्कुराते हुए वापस साँसों पर लौटें

  6. पांच मिनट मौन में बैठें

  7. कोई राय न बनाएं, न तर्क करें—बस देखें

निष्कर्ष: मौन की गहराई में उतरना

सच कोई गूगल सर्च नहीं।
सच कोई किताब नहीं।
सच वह अनुभव है जो तब होता है जब तुम राय को विदा कर देते हो।

सच न सिर्फ़ देखने की चेष्टा है,
बल्कि वह रचना है जो मौन से जन्म लेती है।

राय को अपनी मर्यादा में रखो—उसे साधन बनाओ, साध्य नहीं।
और कभी-कभी… बस मौन हो जाओ।
क्योंकि मौन, सच की भाषा है।

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