नमस्कार मित्रों,  

आज हम एक बहुत ही अद्भुत विडंबना पर ध्यान लगाएँगे — एक ही मंदिर में दो विरोधाभासी संदेश: बाहर लिखा था “अपने सामान की सुरक्षा खुद करें” और भीतर लिखा था “भगवान की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता।”

परिचय

यह विरोधाभास हमारे जीवन के उस दरवाज़े की चाबी है, जो बाहरी दुनिया और आंतरिक संसार के बीच की दीवार को खोलकर हमें उस अनंत कमरे में ले जाता है, जहाँ कोई सुरक्षा-ऊँघ चाबी नहीं है, कोई पत्ता हलचल नहीं करता, सिवाय तुम्हारी चेतना के।

बाहर तुम ‘माई पे बैग देखो, माई पे घड़ी सांभालो, सिक्योरिटी ख़त्म तो दुनिया ख़त्म’ वाली मुद्रा में खड़े हो। भीतर तुम्हारा चित्त कहता है ‘जो होगा भगवान की इच्छा से, मुझे बस चैन से बैठना है।’

यह वही विडंबना है, जहाँ तुम एक तरफ ईश्वर पर पूरी तरह भरोसा रखते हो, और दूसरी तरफ अपना भरोसा अपनी जेब पर भी करते हो। आइए इस द्वंद्व को समझें, उससे खेलने का गुण सीखें, और अंततः दोनों का संतुलन पाकर उस सेतु पर खड़े हों, जो आत्मा को शरीर से जोड़ता है।  

उक्ति का प्रस्तुतीकरण  

मंदिर के बाहरी द्वार पर लगा है:  

> “अपने सामान की सुरक्षा खुद करें”

और अन्दर मुख्य प्रवेशद्वार के पास अंकित है:  

> “भगवान की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता।”

यह दो विरोधाभासी घोषणाएँ मिलकर मानव मन के दो पहलुओं—स्व-संरक्षण की आशंका और पूर्ण समर्पण की अनुभूति—को प्रतिबिंबित करती हैं।

संदर्भ और पृष्ठभूमि  

ओशो हमेशा जीवन के द्वैध पक्षों को मिलाकर एक त्रिकालदर्शी दृष्टि प्रस्तुत करते थे। एक ओर वे आधुनिकता के भय, प्रतिस्पर्धा, एवं स्वावलंबन के महत्त्व को स्वीकारते, दूसरी ओर असीमित अवलंबन, संपूर्णतया परमात्मा पर भरोसा, और अस्तित्व के रहस्यों में विलीन होने की आवश्यकता को उद्घाटित करते थे। यह उक्ति किसी भी भक्ति स्थल पर मिल सकती है, परन्तु जब इसे आंतरिक मंदिर—मन, चेतना, आत्मा—के लिए लागू करते हैं, तो सत्य और अनुभव का विस्तार होता है।

शब्दों और प्रतीकों की व्याख्या  

- मंदिर: बाह्य मंदिर जहाँ ईंट-पत्थर, प्रतिमा, प्रसाद हैं—और भी अन्तर्मन, चेतन मंदिर जहाँ परमसत्ता वास करती है।  

- सामान: हमारी इच्छाएँ, धारणाएँ, चिंताएँ—जो बाहरी जीवन में हमें सुरक्षा की चिंता में बाँधती हैं।

- स्व-सुरक्षा: आधुनिक व्यक्ति की आदत, बैंक बैलेंस, सेफ़्टी लॉक, डोर्स, ताले—सुरक्षा की भ्रमजाल।

- भगवान की मर्जी: आंतरिक सत्ता, ब्रह्माण्डीय ऊर्जा, जीवन का स्वतःस्फूर्त प्रवाह।

- पत्ता भी नहीं हिलता: सूक्ष्मतम परिवर्तन तक परमात्मा की संज्ञा—हर अणु, हर खगोलीय पिंड उसी ऊर्जा के अधीन।

1. विश्वास और जिम्मेदारी का द्वंद्व  

 ईश्वर की सर्वशक्तिमत्ता में विश्वास  

जब हम कहते हैं, “भगवान की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता,” तो हम सर्वशक्तिमान पर पूर्ण भरोसा जता रहे हैं। यही विश्वास हमारी आत्मा को उस विराट ऊर्जा से जोड़ता है, जो सृष्टि को गति देती है। किसी साधु ने कहा था, “विश्वास वह दीपक है, जो अंधकार में भी रौशनी करता है।”

लेकिन मित्रों, यह विश्वास आसान नहीं होता। जितना बड़ा विश्वास, उतनी बड़ी गिरावट का भय। अगर मैं सच में मान लूँ कि भगवान का हाथ हर पल मेरे ऊपर है, तो फिर सावधानी क्यों?

 सावधानी और मानव जिम्मेदारी  

बाहर मंदिर के द्वार पर लिखा था—“अपने सामान की सुरक्षा खुद करें।” इसका तात्पर्य यह है कि ईश्वर ने तुम्हें बुद्धि दी, विवेक दिया, हाथ-पाँव दिए। इन्हें उपयोग में लाना भी तुम्हारी ज़िम्मेदारी है।

अगर तुम ब्रह्मांड की लीला में विश्वास रखते हो, तो भी अपनी जेब में एक चाबी छुपा रखो, ताकि दरवाज़ा खोले नहीं और खो जाए, ऐसा न हो। यह चाबी तुम्हारी जिम्मेदारी है—बुद्धि और सतर्कता।

 यह द्वंद्व क्यों जरूरी है?  

क्योंकि ब्रह्मांड का एक नियम है: ऊर्जा बनाम धारणा। जब तुम कहोगे ‘मैं सब कुछ भगवान पर छोड़ता हूँ,’ तो ऊर्जा तुम्हारी जिम्मेदारी से निकल जाएगी। और जब तुम अपने आप पर पूरी तरह निर्भर हो जाओगे, तो धारणा (illusion) तुम्हें बाँध लेगी।  

ओशो कहते हैं, “एक पैर धरती पर और एक पैर आकाश में रखो। जमीन से कटोगे तो उड़ोगे नहीं; आकाश से कटोगे तो गिरोगे नहीं।” यही है विश्वास और जिम्मेदारी का संयोग।

2. आंतरिक और बाह्य संसार का विरोधाभास

 मंदिर के बाहर का संदेश  

बाहर का संसार यहीं रोता है—चोरी हो सकती है, नुक़सान हो सकता है, सबका ख्याल रखो। यहाँ डर और सावधानी का बोलबाला है। जैसे तुम एक भीड़-भाड़ वाले बाजार में हाथ-पैर बचाए रखते हो, वैसे ही यहाँ अपने अहंकार और वस्तुओं की सुरक्षा करते हो।

 मंदिर के भीतर का संदेश  

लेकिन एक कदम मंदिर के भीतर बढ़ते ही चुप्पी होती है—वहाँ सब कुछ भगवान की मर्जी है। वहाँ अहंकार भूल जाता है, वस्तुएँ मायावी हो जाती हैं, और केवल शून्यता शेष रहती है।

यह विरोधाभास ठीक वैसे ही है जैसे संगीत में राग और तमाम नहीं-तलमेल का खेल। बाहरी दुनिया राग है—वह स्वर है, वह ताल है, वह रूप है। आंतरिक संसार तमाम नहीं—निर्मल शून्यता, निर्विकार चेतना।

 जीवन में दोनों का मेल  

जब तुम घर की खिड़की खोलोगे, तो बाहर की आवाज़ तुम्हारे कान में पहुँचेगी। मगर जब तुम ध्यान में डूबोगे, तो वही आवाज़ तुम्हारे भीतर की ख़ामोशी में गूँजेगी। बाहर सावधानी, भीतर समर्पण—दोनों का मेल जीवन को सम्पूर्ण बनाता है।  

3. व्यंग्य, रूपक और एक कहानी  

 ओशो की व्यंग्यपूर्ण दृष्टि  

ओशो के प्रवचनों में व्यंग्य वह मसाला है, जो सीधे सत्य की चिकनी परत पर स्वाद चढ़ा देता है। वो कहते हैं, “तुम मंदिर में जूते उतारते हो, लेकिन जीवन की गंदगी जूते ही नहीं उतारते।”

तो आइए एक छोटी कहानी सुनाता हूँ:

> एक भक्त रोज़ मंदिर आता और दरवाज़े पर अपने जूते उतारकर पूजा में जाता।  

> एक दिन उसने बड़े प्यार से अपने जूते पोलिश किये, चमचमाते जूते रखे।  

> मंदिर के बाहर उसने एक तख़्ती देखी—“अपने सामान की सुरक्षा खुद करें।”  

> वह इस संदेश को पढ़कर अपने जूते दरवाज़े से चिपका लटका गया।  

> जब उसने मंदिर के भीतर कदम रखे, वहाँ एक और तख़्ती पर लिखा—“भगवान की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता।”  

> भक्त बोला, “भाई! जूता सुरक्षित रखने की मेरी चालाकी क्या भगवान की मर्जी से हट जाएगी?”  

> तभी पुजारी हँसकर बोला, “बेटा, जूता रहते हुए ध्यान नहीं, और ध्यान के नाम पर जूता कहाँ?

यह रूपक हमें बताता है कि हम जितनी सावधानी बाहर करते हैं, उतनी ही हमें भीतर उत्सर्ग (letting go) करना सीखना चाहिए।

 व्यंग्य से कटाक्ष  

ओशो कहते हैं, “तुम मंदिर में शुद्धता की बात करते हो, मगर अपने घर के अंदर गंदगी भर देते हो। तुम्हारा ध्यान तो वहां तक जाता है, जहाँ तख़्ती लगी है, पर तुम्हारा आत्म-ध्यान उस चेतना तक नहीं जाता, जहाँ तख़्ती का सवाल ही बेमानी हो जाए।”

4. ध्यान और आत्म-जागरूकता

 आत्म-जागरूकता का महत्व  

ध्यान उस आईने की तरह है, जो हमारे भीतर के कंकों को हटा देता है। जब हम ध्यान में उतरते हैं, तो हमें अहंकार की वह तख़्ती भी दिखती है—‘अपने सामान की सुरक्षा खुद करें’—और परमात्मा की वह तख़्ती भी—‘भगवान की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता।’

ध्यान हमें सिखाता है कि दोहराव, द्वंद्व, विरोधाभास—ये सब अनुभव के रंग हैं, इन्हें आत्मा पर फ़िल्टर क्यों?

 ध्यान के माध्यम से संतुलन

  बाहरी सतर्कता के लिए ध्यान

जब तुम अपने सांस पर ध्यान लगाओगे, तो ‘अब मेरा बैग सुरक्षित है या नहीं’ वाली चिंता गायब हो जाएगी। सांस की गहराई में एक सच है: जो होना है, वह होगा; और जो नहीं, वह छू भी नहीं पाएगा।

  अंदरूनी समर्पण के लिए ध्यान  

जब तुम शून्य की ओर चलोगे, तो वहाँ कोई तख़्ती नहीं, कोई डर नहीं। केवल पूर्णता की चुप्पी है। यही शून्यता तुम्हें सिखाती है कि जिम्मेदारी और विश्वास दोनों ही उसी चेतना से उपजते हैं।

ध्यान की विधि यही नहीं कि आँखें बंद करके बैठ जाओ; असली ध्यान तो उस पल आता है, जब तुम बाहर का नेगेशन खुद कर पाओ और भीतर की पूर्णता को महसूस कर पाओ।

5. निष्कर्ष: संतुलन का सेतु

जीवन में ईश्वर में विश्वास और स्वयं की जिम्मेदारी—दोनों का संतुलन उतना ही ज़रूरी है जितना हवा में साँस लेना।

1. विश्वास हमें सिखाता है कि हम अकेले नहीं; इस ब्रह्मांड में एक अदृश्य शक्ति हर पल हमारी देखरेख करती है।

2. जिम्मेदारी हमें सिखाती है कि हमें दी गई इंद्रियों, बुद्धि और जीवन-शक्ति का सदुपयोग करना है।

दोनों मिलकर वही सेतु बनाते हैं, जो आत्मा को शरीर से जोड़ता है और शरीर को आत्मा से।  

यदि केवल विश्वास होगा, तो हम निष्क्रिय हो जाएंगे; यदि केवल जिम्मेदारी होगी, तो हम अहंकार के पिंजरों में फँस जाएंगे।

 पथप्रदर्शक संदेश

- जब मंदिर के बाहर खड़े होकर तख़्ती पढ़ें: “अपने सामान की सुरक्षा खुद करें,” तो याद रखें कि समझदारी और सतर्कता ईश्वर द्वारा दी गई उपहार हैं।

- जब मंदिर के भीतर जाएँ और पढ़ें: “भगवान की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता,” तो याद रखें कि समर्पण और शून्यता ही परम सत्य की कुंजी हैं।

जीवन की राह पर दोनों का मेल करो—बाहरी जगत में सावधान और आंतरिक जगत में समर्पित। यही संतुलन तुम्हें समग्र, संतुलित और सच्चे आध्यात्मिक जीवन की ओर ले जाएगा।

धन्यवाद, और ध्यान की इस यात्रा में आपका दिन आनंदमय हो!

जीवन के इस सेतु पर चलिए, जहाँ आप वायु की तरह लचीले और चट्टान की तरह स्थिर बने रहें।

ॐ शांति!

कोई टिप्पणी नहीं:

Blogger द्वारा संचालित.