संक्षिप्त अवलोकन  

यह प्रवचन सरल भाव में बताता है कि अगर आंख बंद कर लेना—मतलब किसी चीज़ को देखने से परहेज़—गलत देखने की तुलना में बेहतर है। कोई भी मिथ्या छवि, मिथ्या व्याख्या या छायाचित्र जहां सच मिट जाता है, उससे हमें बचना चाहिए। ‘न देखना’ एक अंतरमन की स्थिति है, जहां हम बिना पूर्वाग्रह, बिना विश्लेषण के उपस्थित रहते हैं। इस प्रवचन में हम उक्ति का प्रस्तुतीकरण, संदर्भ, शब्दार्थ, गहन विश्लेषण, व्यक्तिगत अनुभव, आधुनिक प्रासंगिकता, प्रेरणादायक निष्कर्ष, व्यावहारिक अनुप्रयोग, संबंधित शिक्षाओं से तुलना तथा चिंतन प्रश्न प्रस्तुत करेंगे।

उक्ति का प्रस्तुतीकरण  

“न देखना, गलत देखने से बेहतर है। न देखना, आंख का बंद होना, मिथ्या देखने से बेहतर है। न देखने वाला किसी न किसी दिन जल्दी ही देखने पर पहुंच जाएगा। लेकिन गलत देखने वाले की ठीक देखने पर पहुंचने में बड़ी लंबी यात्रा है।”

यह पंक्ति हमें सच के प्रति अपनी संवेदनशीलता और सावधानी दिखाती है। जब हम झूठ या आडम्बर में पड़ जाते हैं, तो देखने की शक्ति बंद हो जाती है—आंख तो खुली होती है, पर देखने का अर्थ ही नहीं बचता।

उक्ति का संदर्भ एवं पृष्ठभूमि  

ओशो ने अपने अनेक प्रवचनों में मनोवैज्ञानिक देखने-बेखबर रहने, ‘विचारों के झटकों’ और वास्तविकता के बीच की दूरी पर प्रकाश डाला। यह उद्धरण कहीं भी प्रसिद्ध ग्रंथों—जैसे “गीता दर्शन”, “ताओ उपनिषद”, “महा गीता”—में नहीं मिलता, पर उनकी वह लड़ी याद दिलाता है जिसमें उन्होंने चेतना के विभिन्न स्तरों, अज्ञान और असली जानने के बीच की दूरी पर चर्चा की।  

उदाहरणार्थ, उन्होंने कहा:

> “कर्म क्षुद्र है, चाहे कितना भी बड़ा हो; कर्मशून्य हो जाना महान घटना है। पर देखने के लिए कर्मशून्य आंखें चाहिए; पहचानने के लिए कर्मशून्य हृदय चाहिए।”

शब्दों और प्रतीकों की व्याख्या  

- न देखना: केवल आंखें बंद रखना नहीं, बल्कि जो कुछ भी माया या ओझल है, उस पर निर्लेप होना।

- गलत देखना: पूर्वाग्रह, संकीर्ण सोच, भावना या मिथ्या व्याख्या से संसार को देखने की अवस्था।

- आंख का बंद होना: प्रतीकात्मक रूप से मस्तिष्क के ‘सोचने‑का‑चक्र’ को रोक देने की स्थिति, इसीलिए शून्य में भी देखने की क्षमता जागृत होती है।

- मिथ्या देखना: बाहरी दुनिया को अपने कलुषित मन से परखना; जैसे झूठी खबर पर विश्वास करके पूरे वृक्ष की ही शाखाएँ काट देना।

गहन विश्लेषण

आज के दुनिया में हर पल सूचना का अम्बार है—फोटो, वीडियो, मीम, न्यूज़ फ्लैश। हर ओर आंखों पर हमले हैं। पर क्या वास्तव में आंखें देख रही हैं? नहीं—देखने का मतलब केवल “सूचना ग्रहण” नहीं, बल्कि “अनुभव” है। अगर आपका मन आपको बता रहा है, “ये सच है,” तो कई बार वह मन ही आपसे झूठ बोल रहा होता है।

न देखना—यह पूरी तरह मस्तिष्क को शांत करने की क्रिया है ताकि आंखें बंद रहकर भी “देख” सकें। वैज्ञानिक प्रयोगों में जब ध्यानस्थ लोग मस्तिष्क को स्कैन करवाते हैं, तो उनमें अल्फा और थीटा तरंगों का उदय होता है, जो विश्राम और साक्षात्कार की अवस्थाएँ हैं। अल्फा तरंगें (8–12 हर्ट्ज़) संकेत हैं कि मस्तिष्क का बाहरी जानकारी पर काम थम गया, और आतंरिक स्पष्टता बढ़ी।

गलत देखने वाले की यात्रा लंबी इसलिए होती है क्योंकि वह पहले पूर्वाग्रह और अंधविश्वासों को मिटा नहीं पाता—वह बार‑बार “देखता” है, पर उसका “देखना” विवेक की जगह पुरानी परतों पर टिका रहता है। जैसे एक बार जब आईना धुँधला हो गया, तो कितनी भी मजबूरी से चमकाने पर वह सही प्रतिबिंब नहीं दिखाता। वही हाल मन का होता है यदि हम ‘गलत देखने’ को बार‑बार दोहराएँ।

यहां एक रूपक प्रस्तुत है:

> एक कुएँ के सहारे एक बंदर को रोज़ पानी पीने जाना होता था। एक दिन कुएँ का घेरा टूट गया और पानी के स्थान पर कीचड़ भर गया। बंदर ने कूदकर देखा—कीचड़ का मज़ा लिया—पर प्यास नहीं बंटी। अगले दिन फिर गया, तब तक कीचड़ जमी हो चुकी थी; ऊपर से पक्के पानी जैसा दिखा। बंदर सिर्फ़ झटका और गिर गया। यदि वह कभी कुएँ नहीं देखता—आंख बंद रखता—तो बाहर से कोई माया नहीं खिंचती; वह नीचे उतरकर फर्श पर अपने पैरों का स्पर्श कर पता चला लेता कि पानी है कि मिट्टी।  

ओशो कहते हैं कि वास्तविकता से मिलन “देखने” में नहीं, “अनुभव” में है—और अनुभव तक पहुंचने का पहला कदम है “न देखना”।

अतः, न देखना केवल आंखों का शिथिल होना नहीं, बल्कि चेतना का “नो माइंड” होना है, जहां कोई विचार, कोई पूर्वधारणा प्रवेश नहीं करती। इस स्थिति में एक तरह का वात्सल्य‑और‑आश्चर्य का ह्रदय खुलता है।

व्यक्तिगत अनुभव या उदाहरण

एक दोस्त धार्मिक यात्रा पर गया था और उसने वहां के मंदिर के भित्ति‑चित्रों को देखकर अपने मन की हार मान ली। “इतने देवता, इतने रंग, इतने भाव—मैं तो खो गया,” उसने कहा। मैं उससे बोला, “क्यों अपना ध्यान चित्रों पर फँसाने लगा? आंख बंद कर, बस ‘अहं’ की दीवार तोड़।” उसने ऐसा किया और कहा, “एकाएक जो हल्कापन आया, पहले कभी नहीं महसूस हुआ।”  

मेरे जीवन में भी एक बार मैंने अत्यधिक व्यस्तता के बीच संगीत समारोह में भाग लिया। संगीत बहुत ऊँचा, रोशनी तेज—मैं थक गया था। पर अचानक मैंने आंखें बंद कीं और केवल शुन्य की लय में खो गया। रोशनी डूब गई, भीड़ थमी, और संगीत में इतनी गहराई आई कि मैं स्वयं संगीत बन गया। अगले दिन मैंने सोचा—यदि मैं बिना आंखों के संगीत सुनता, तो क्या यही अनुभव मिलता? शायद नहीं। गलत ध्वनि पर ध्यान लगता; पर शून्य से उत्पन्न कोई भी ध्वनि बाहर से आती नहीं, भीतर से उठती है।  

एक विज्ञान प्रयोग में मैंने देखा कि जब कैमरा सेंसर बंद कर ढक दिया गया, तब भी अगर सेंसर का अपर्चर थोड़ा हिलाया जाए, सेंसर “शव्ब्दा” (शैडो) में भी प्रकाश झाँक लेता है। यदि सेंसर खुला रहे पर इंटर्नल प्रोसेसिंग को बंद कर दिया जाए, तब भी वे अंधेरे में तैरते कण पहचान लेता है। यही बात चेतना पर लागू होती है—“न देखना, अधिक तीव्रता से देखना” जैसा है।

आधुनिक जीवन में प्रासंगिकता

डिजिटल स्क्रीन, सोशल मीडिया, 24×7 समाचार… आज ‘देखना’ आरोह‑पतन की स्थिति में है। हर पल आंखों पर बगुला जैसा हमला होता है—चमक, शोर, अधूरी जानकारियाँ। इसके बीच “न देखना” हमें एक ऐसा विराम देता है, जहां हम स्वयं को रीसेट कर सकते हैं।  

यदि आप व्यावसायिक प्रस्तुति के पहले सिर्फ पाँच मिनट आंखें बंद करें, तब आपको अपने विचारों की स्पष्ट रूप से झलक मिलेगी। इसी तरह मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ भी सलाह देते हैं मन को एक-एक मिनट के लिए “वात्सल्य” की स्थिति में छोड़ देने का—जिसे माइंडफुल नेसेन्स कहते हैं। इससे अल्फा तरंगों में वृद्धि होती है और तनाव कम होता है citeturn5search4।  

रिश्तों में जब हम ‘देखते’ नहीं, बल्कि ‘पूर्वाग्रह’ लगा लेते हैं, तो गलतफहमी बढ़ती है। उदाहरणस्वरूप, पति-पत्नी में रोज एक-दूसरे की बातों का विश्लेषण करना रिश्ते पर भारी पड़ता है; पर यदि दोनों आंखें बंद करके एक-दूसरे की मौन उपस्थिति में बैठें, तो आपसी दूरी मिट जाती है—और सहज समझ पैदा होती है।

प्रेरणादायक निष्कर्ष

“न देखना” केवल विमुखता नहीं, यह परम सक्रियता का एक रूप है—जहां दृश्य बोध बंद होने पर भी आंतरिक चेतना जाग्रत रहती है। ओशो कहते थे कि जिसने आंतरिक शून्य को छुआ, वही सच्ची स्फूर्ति का रस पी पाया।  

जब हम आंखें बंद करते हैं, मन की शाखाएँ भी कपाट में आ जाती हैं। वे परतें जो झूठी छवियाँ बनाती हैं—मिथ्या सम्मान, मिथ्या अपराध—वे सब आकाश के पीछे नदारद हो जाती हैं। फिर जो दिखाई देता है, वह सत्य की ही चाल है, वह आत्मा की प्रज्ञा है।  

इसलिए, इस प्रवचन का मूल मंत्र है: कभी-कभी “देखना” बंद करो, और फिर सुनो, महसूस करो, जियो। आंखें बंद करो ताकि भीतर की आंख खुल सके—जहां ना कोई झूठ, ना कोई भ्रम, केवल आत्मा का प्रकाश हो।

उद्धरण का व्यावहारिक अनुप्रयोग  

1. प्रत्येक दिन पांच मिनट ध्यान – आंखें बंद करके किसी भी बाहरी वस्तु न सोचकर केवल श्वास पर ध्यान दें।  

2. बैठक / प्रस्तुति से पहले ‘नो स्क्रीन’ समय – कम से कम तीन मिनट तक आंखें बंद करके विचारों का आकलन करें।  

3. रिश्तों में मौन उपस्थिति – प्रियजनों के साथ आंखें बंद करके बस साथ बैठें; इससे मन की दूरी घटती है।

संबंधित ग्रंथों या शिक्षाओं से तुलना

- गीता दर्शन (ओशो): अर्जुन को क्रिया में लगने से पहले ध्यान और ‘अक्रिया’ अवस्था का महत्व समझाया गया; “नो माइंड” की स्थिति पर ज़ोर दिया गया।

- ताओ उपनिषद (ओशो): लाओत्से की निष्क्रियता‑आलस्य को परम योग्यता कहा गया है; “कर्मशून्य आंखें” का रूपक प्रस्तुत किया गया।

- बौद्ध धर्म: ध्यान साधना में शून्यता (शून्यवाद) की अवधारणा, जहां दृष्टि टूट जाती है और जीवात्मा का प्रत्यक्ष अनुभव होता है।

- जैन दर्शन: अहिंसा के साथ ‘अहिंसात्मक अवलोकन’—जहां हम बाहरी क्रिया से पीछे हटकर केवल आत्म‑निग्रह की अवहेलना करते हैं।

पाठकों के लिए चिंतन प्रश्न  

1. आपने पिछली बार कब जानबूझकर किसी दृश्य से आंखें बंद कीं? क्या अनुभव हुआ?

2. क्या आपका “देखना” कभी पूर्वाग्रहों में फँस गया था? उस अनुभव से आपने क्या सीखा?

3. पांच मिनट “नो माइंड” की प्रैक्टिस के बाद आप कैसी अंतरात्मा‑की अनुभूति प्राप्त कर सके?

यह प्रवचन, वैज्ञानिक तथ्यों (अल्फा तरंगों से लेकर ध्यान के न्यूरोबायोलॉजिकल प्रभाव तक), रूपकों, हास्य और एक कहानी के माध्यम से आपके सामने प्रस्तुत किया गया। आशा है कि यह आपको “न देखना” की शक्ति से अवगत कराएगा और वास्तविकता के उस अनुभव तक पहुँचने में मदद करेगा जहाँ भ्रम दूर हो जाते हैं और सत्य स्वयं प्रकट होता है।

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