नमस्कार मित्रों,

आज हम उस रहस्यमयी धारा में गोता लगाएंगे जो प्रकृति के उस ‘गहन तंत्र’ को उद्घाटित करती है, जहाँ आकर्षण का जन्म होता भी है और उसका अंत भी। ओशो कहते हैं – “प्रकृति की बड़ी गहन रचना है, जो मिल जाए उसमें आकर्षण समाप्त हो जाता है, जो न मिले तो आकर्षण बना रहता है।”

यह वचन जितना सरल लगता है, उतना ही गहरा है। आइए, इसे महसूस करें, समझें और अपने अन्दर जन्मते-बुझते आकर्षण की आग को देख सकें।

प्रवचन का सारांश

प्रकृति का रूप एक ऐसी अनंत कविता है, जिसे अगर हमने पूर्ण-रूप में समझ लिया तो वो कविता हमारे लिए अनर्थ हो जाएगी, और अगर समझ नहीं पाए तो वह हमारे आकर्षण का कारण बने रहेगी। यही प्रक्रिया हमारे मन और आत्मा के साथ भी होती है। बाह्य गुरु-उपदेश, साहित्यिक ज्ञान, सामाजिक सेवा – सब तब तक सीमित रह जाते हैं जब तक हम स्वयं को नहीं जान लेते। आत्म-चेतना का दीपक जलना बाकी है, तभी चमत्कार संभव है। इस प्रवचन में हम ध्यान, विज्ञान और रूपक के तारों को जोड़कर भीतर की यात्रा की धड़कनों को सुनेंगे, और देखेंगे कि मौन कैसी अनकही भाषा हो सकती है।

“मिल जाना” और “न मिलना” का रहस्य

आप देखिए, जब वह मित्र हमें मिलता है जिस पर कुछ दिन पहले हम चिन्तित थे, तो अचानक चिन्ता को हवा-सा पतला कर पोंछा जा सकता है। वही चीज़ जब हाथ से फिसल जाए, तो उसके पीछे दौड़ते रहना और भी तीव्र हो जाता है। इसी प्रक्रिया को ओशो ‘मता-समाप्ति’ कहते हैं – जब मन ने निशाना पा लिया, तो लक्ष्य अप्रासंगिक हो जाता है।

 विज्ञान कहता है कि दिमाग में डोपामाइन नामक न्यूरोट्रांसमीटर तब रिहा होता है जब कोई आकांक्षा पूरी होती दिखाई दे। लेकिन इस रासायनिक उछाल की समयावधि अल्प होती है, फिर सब कुछ स्थिर होकर सूना-सा लगता है।

 दूसरी ओर, जब आकांक्षा अधूरी रहती है, दिमाग आकर्षण के स्रोत को खोजने में व्यस्त रहता है, लगातार कल्पना करता रहता है – यही है ‘आकर्षण की लंबी आग।’

इसलिए ओशो ने कहा, जो मिल जाए उसमें आकर्षण समाप्त हो जाता है। मित्रों, जीवन के तमाम रिश्ते, ढूँढने की ललक, गुरु की तलाश, सेवा-समर्पण – सब इसी आदत के कैद में हैं।

आत्म-चेतना का ज्वार

ध्यान की कला यही सिखाती है: लक्षित वस्तु से दूरी बनाए रखो, बीच-बीच में निरीक्षक बनकर देखो। जैसे आप एक नदी के तट पर खड़े होकर प्रवाह को देखते हो, न कि उसमें बहते हो।

1. पहला पहलू – साँस पर ध्यान: एक-एक साँस को महसूस करो, बिना कोई इच्छा लिए।

2. दूसरा पहलू – विचारों का निरीक्षण: जब मन कहा-चाहा को खोजने निकलता है, उसे प्रेमपूर्वक नमस्कार कहो और फिर पास ही खड़े हो निरीक्षक बनो।

यह मोमेंटम धीरे-धीरे आपके भीतर गहन स्थिरता पैदा करता है। स्थिरता ही आत्म-चेतना का आधार है; और आत्म-चेतना के प्रकाश में ही बाहरी आकर्षणों की दुनिया का सही मापन संभव होता है।

व्यंग्यात्मक चुटीलापन और सहज हास्य

यहाँ एक छोटी कहानी सुनिए:

एक बार एक वृंदावन का साधक महात्मा जंगल में मधुमक्खी देख रहा था। उसने देखा कि एक मधुमक्खी बार-बार एक फूल के इर्द-गिर्द चक्कर लगा रही है। महात्मा ने पूछा, “मधुमक्खी भैया, तुम किधर?” मधुमक्खी बोली, “सर, यहाँ बहुत मीठा रस है।” महात्मा ने कहा, “पर एक बार रस चख लो, फिर तो तुम्हें और फूलों की ज़रूरत नहीं?”

मधुमक्खी बोली, “सर, रस मिला नहीं है, तो पता नहीं कैसा होगा!”

(यहाँ आप खुद हँसिए, क्योंकि हम कितने ही मधुमक्खियों की तरह मीठे, मीठे ख्वाबों में चक्कर काटते रहते हैं!)

ओशो की भाषा में – “मधुमक्खी रस के पीछे दौड़ रही है, लेकिन जैसे ही रस मिले, मधुमक्खी का जीवन नीरस हो जाएगा!”

मौन की झलक

प्रवचन सुन-सुन कर भी अगर आप मौन नहीं हो सकते, तो शब्द आपकी आत्मा तक नहीं पहुंचेंगे।

 मौन में ऊर्जा का एक अजीब-सा नृत्य होता है।

 मौन में हम स्वयं के भीतर झाँक सकते हैं, बेचैन विचारों से परे।

ओशो कहते हैं कि सच्ची शिक्षा मौन से शुरू होती है और मौन में ही अंत होती है। इसलिए बीच-बीच में बंद कर दीजिए यह प्रवचन – बस शांत बैठकर खुद से पूछिए, “मैं कौन?” और सुनिए, “हाँ, बस… तुम वही हो।”

वैज्ञानिक तर्क और गूढ़ रूपक

आज की आधुनिक मनोविज्ञान और तंत्रज्ञान हमें बताते हैं कि हम जिस चेतना का अनुभव करते हैं, उसका केवल 5% भाग ही सचेत मन का है; बाकी 95% अवचेतन में तैरता है।

 रूपक: आप एक महासागर के ऊपर एक नाव में बैठे हैं। नाव आपका सचेत मन, महासागर आपका अवचेतन। आप सिर्फ नाव के आस-पास ही देखते-परखते हो।

 गूढ़ कथा: एक विदेशी वैज्ञानिक ने नींद के दौरान मस्तिष्क तरंगों (ब्रेन वेव्स) को मॉनिटर किया। जब व्यक्ति ध्यान की गहन अवस्था में जाता है, तो अल्फा, थेटा और गामा तरंगों का अद्भुत समन्वय बनता है।

इसका मतलब? जब ध्यान गहरा होता है, तब ही मन की अधूरी तड़पें धीरे-धीरे शांत होती हैं, और एक रोशनी आती है – आत्म-चेतना की रौशनी।

बाह्य उपदेश vs. आत्म-ज्ञान

बहुत से गुरु और धर्माचार्य बातें और विधियाँ बताएंगे – सेवा कर, भजन कर, पूजा कर। पर एक शर्त है – “जब तक आत्म-ज्ञान नहीं जागृत होता, तब तक ये उपाय उतने भीषण होते हैं जितना किसी ने तमाशा नहीं देखा।”

 यदि आत्म-ज्ञान जाग्रत नहीं, तो सेवा बन जाएगी बंधन।

 यदि आत्म-ज्ञान नहीं, तो सिद्धियाँ बनेंगी अहंकार के दफ़्तर।

यहाँ मौन एकमात्र सहायक है। आत्म-ज्ञान के प्रकाश को गैस लाइट से जलना नहीं, सूर्य की किरणों से शुरू होना होता है। और यह तब ही संभव है जब आपके भीतर का ध्यान-चक्षु खुल जाए।

भीतर की यात्रा के लिए प्रेरणा

जब आपका ध्यान चेहरा की झुर्रियों में, हाथों की लकीरों में, सांसों की धड़कन में अटका रहेगा, तो आप बाहर की दुनिया से बंधते रहेंगे।

सरल अभ्यास

1. दृश्य ध्यान: आँखें बंद करके एक-एक रंग को महसूस करो – आँसू का नीला, धूप का पीला, मिट्टी का भूरा।

2. श्रवण ध्यान: किसी भी आवाज़ को बिना प्रतिक्रिया के सुनो – पत्तियों की सरसराहट हो या बच्चों की हँसी।

3. स्पर्श ध्यान: हाथ पर पानी की बूंद गिरने दो, उस ठंडक को महसूस करो।

इन अभ्यासों से छोटी-छोटी दरारों से प्रकाश अंदर आता है, और आत्म-चेतना निरंतर बढ़ती है।

निष्कर्ष: आकर्षण की समाप्ति या अमरता?

जब यह धारा आपके भीतर बह निकलेगी, तब आप पाएंगे कि न तो “मिल गया” की खुशी शेष है, न “न मिला” की आग। वहाँ बस एक शांतिपूर्ण परमानंद रह जाता है – श्रेष्ठ, अनंत, और अचूक।

शब्द कभी उस गहराई को पूरी तरह पकड़ नहीं सकते, पर अनुभव कर सकते हैं। आज से, हर लम्हा, हर सांस, और हर मौन को प्रयोग करो – देखो, समझो और फिर घुल-मिल जाओ उस गहन रचना में, जहाँ आकर्षण न खत्म होता है, न जन्मता है; वहाँ

 बस “है” शेष रहता है।

धन्यवाद।

 “मौन में जब आत्म-चेतना जगेगी, तो शब्द खुद बोलने लगेंगे।”

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