जिसको तुमने गुरु जाना है, वह तुम्हें भी चौबीस घंटे गुरु नहीं मालूम होगा – ओशो

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एक बहुत महत्वपूर्ण सूत्र है—जिसको तुमने गुरु जाना है, वह तुम्हें भी चौबीस घंटे गुरु नहीं मालूम होगा। समझने की जरूरत है कि गुरु कौन है? और शिष्य कौन है? क्या यह संबंध स्थायी होता है? या यह भी बहता रहता है, बदलता रहता है, तरल रहता है?

गुरु—कोई व्यक्ति नहीं, एक उपस्थिति है

तुम सोचते हो कि गुरु कोई व्यक्ति है, लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि गुरु कोई व्यक्ति नहीं होता। गुरु एक उपस्थिति होती है। और उपस्थिति को पकड़कर नहीं रखा जा सकता। जैसे हवा है, बहती है। जैसे आकाश है, खुला है। जैसे सूरज है, रोशनी देता है लेकिन तुम्हारी मुट्ठी में नहीं आता।

जिसे तुमने गुरु माना है, वह तुम्हें चौबीस घंटे गुरु नहीं लग सकता क्योंकि तुम्हारे भीतर ही उठते-गिरते भाव, मन की चंचलता, तुम्हारी अवस्थाएँ बदलती रहती हैं। कभी श्रद्धा होगी, कभी संदेह होगा। कभी प्रेम उमड़ेगा, कभी वितृष्णा आएगी। कभी गुरु देवता लगेगा, कभी साधारण मनुष्य। और यह सब बहुत स्वाभाविक है, क्योंकि तुम्हारी यात्रा अभी अधूरी है।

शिष्य की आँखें—गुरु को बनाती और मिटाती हैं

गुरु की महानता उस पर निर्भर नहीं करती कि तुम उसे कितना महान देखते हो। बल्कि तुम्हारी दृष्टि पर निर्भर करती है। अगर तुम्हारी आँखें श्रद्धा से भरी हैं, तो पत्थर में भी भगवान दिखेगा। और अगर आँखें संशय से भरी हैं, तो सामने भगवान खड़े हों, तो भी कुछ नहीं दिखेगा।

तुमने देखा होगा, जब तुम आनंदित होते हो, तुम्हें दुनिया सुंदर लगती है। जब तुम्हारे भीतर दुःख होता है, तो यही दुनिया नीरस लगती है। दुनिया ने कुछ नहीं बदला, तुम बदल गए हो। वैसे ही गुरु भी वही हैं, पर तुम्हारी आँखें बदलती रहती हैं।

कभी तुम प्रेम में बहते हुए गुरु को परमात्मा के समान देखोगे, और कभी मन की उथल-पुथल में वे तुम्हें एक साधारण मनुष्य भी प्रतीत होंगे। इसमें गुरु का दोष नहीं है। इसमें तुम्हारी दृष्टि की तरंगें हैं।

गुरु, शिष्य को नहीं पकड़ते—शिष्य ही गुरु को छोड़ता है

अक्सर लोग कहते हैं कि मैंने गुरु को छोड़ दिया। लेकिन मैं कहता हूँ, गुरु ने तो कभी किसी को पकड़ा ही नहीं था। पकड़ने का स्वभाव तो तुम्हारा है, क्योंकि मन पकड़ता है। और जब तुम्हारी पकड़ ढीली पड़ती है, तो तुम्हें लगता है कि गुरु चला गया। गुरु कहीं नहीं जाता। वह तो वही है, जो था—शाश्वत, अचल, अडोल।

गुरु का होना बादल की छाया जैसा है। जब तक शिष्य तैयार होता है, तब तक वह छाया सुख देती है। लेकिन जैसे ही शिष्य अपने संदेह, अपने प्रश्न, अपने अहंकार में लौटता है, वह छाया छंट जाती है। और फिर शिष्य सोचता है कि गुरु बदल गया।

गुरु नहीं बदलता। बदलता शिष्य है। कभी वह नजदीक आता है, कभी दूर चला जाता है। कभी समर्पण में बहता है, कभी अहंकार में उलझता है।  

गुरु तो सिर्फ एक दरवाजा है—प्रवेश करना तुम्हारे हाथ में है

गुरु केवल एक द्वार है, जहाँ से अनंत में प्रवेश किया जा सकता है। लेकिन प्रवेश करना या न करना तुम्हारे ऊपर है। कोई भी गुरु तुम्हें जबरदस्ती भीतर नहीं खींच सकता।

अगर तुम चौबीस घंटे गुरु को गुरु नहीं पाते, तो इसका कारण गुरु नहीं, तुम्हारी यात्रा की अपरिपक्वता है। तुम्हारे मन की उथल-पुथल है।

अगर तुम पूरी तरह से समर्पित हो जाओ, तो तुम्हारे लिए गुरु हमेशा गुरु रहेगा। फिर कोई भी परिस्थिति उसे साधारण नहीं बना सकती। फिर तो गुरु का मौन भी वाणी बन जाता है, उसकी अनुपस्थिति भी उपस्थिति बन जाती है।

गुरु की खोज नहीं, अपने भीतर की खोज

लोग सोचते हैं कि सही गुरु मिल जाए, तो जीवन बदल जाएगा। लेकिन मैं तुमसे कहता हूँ, यह खोज गुरु की नहीं, तुम्हारी अपनी है। जब तुम सही हो जाओगे, जब तुम समर्पण में बह जाओगे, जब तुम संदेह से मुक्त हो जाओगे—तभी गुरु मिलेगा।

गुरु बाहर नहीं मिलता, गुरु भीतर प्रकट होता है। गुरु वही है, जिसे तुम देखने योग्य हो।

इसलिए इस भ्रम में मत पड़ो कि गुरु कभी-कभी गुरु लगता है और कभी-कभी नहीं। यह केवल तुम्हारी आँखों का खेल है। सूरज तो हमेशा चमक रहा है, बादल कभी-कभी उसे छिपा लेते हैं। लेकिन सूरज है, यही सत्य है। बादल आते-जाते हैं, यह असत्य है।

अगर तुम्हारी श्रद्धा पूर्ण हो, तो गुरु तुम्हें चौबीस घंटे गुरु दिखेगा। और अगर श्रद्धा डगमगाएगी, तो तुम्हें भ्रम लगेगा।

तो क्या करें?

बस इतना समझ लो कि गुरु को समझने की जरूरत नहीं, खुद को समझने की जरूरत है। गुरु को बदलने की जरूरत नहीं, खुद को बदलने की जरूरत है। गुरु को पकड़ने की जरूरत नहीं, खुद को समर्पित करने की जरूरत है।

अगर तुम खुद को पूर्ण रूप से समर्पित कर दो, तो तुम्हारे लिए गुरु चौबीस घंटे गुरु रहेगा। फिर न कोई संदेह रहेगा, न कोई प्रश्न। फिर केवल प्रेम बचेगा, केवल श्रद्धा बचेगी। और जहां श्रद्धा है, वहां ही सत्य है।

साधना में बढ़ो। समर्पण में बहो। और फिर देखो, गुरु तो वही है—शाश्वत, अडोल, अचल। बदलता तो सिर्फ तुम्हारा मन है।

धन्यवाद!

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