"जाति, धर्म, नौकरी, पद, प्रतिष्ठा, रहन-सहन, दौलत, दहेज, सुंदरता देखकर विवाह करने वाला समाज, बेशर्मों की तरह ये भी कहता है कि जोड़ियां ईश्वर बना कर भेजता है!" – ओशो
"यदि जोड़ियाँ वास्तव में ईश्वर बनाकर भेजता, तो अदालतों में तलाक की अर्ज़ियाँ नहीं भरी जातीं।"
ओशो कहते हैं, "मनुष्य जितना पाखंडी हो सकता है, उतना शायद ही कोई और जीव हो। वह जो कहता है, वही नहीं करता। वह जो मानता है, उसी को ठुकरा देता है।"
विवाह को प्रेम का परिणाम कहा जाता है, लेकिन वास्तव में यह समाज के ठेकेदारों की बनाई हुई एक संस्था है, जो प्रेम को कुचलकर अपने हिसाब से रिश्ते तय करती है।
और फिर भी, वही समाज यह दावा करता है कि जोड़ियाँ ईश्वर बना कर भेजता है!
अगर ऐसा होता, तो फिर जाति, धर्म, पद, प्रतिष्ठा, रूप, रंग, धन-दौलत जैसी चीज़ों का क्या अर्थ रह जाता?
तो सवाल यह उठता है—क्या विवाह वास्तव में प्रेम का परिणाम है, या यह केवल एक सामाजिक सौदा है?
चलिए, इसे गहराई से समझते हैं।
1. विवाह: प्रेम या समझौता?
ओशो कहते हैं, "प्रेम और विवाह दो अलग चीजें हैं। प्रेम स्वतःस्फूर्त होता है, जबकि विवाह एक सामाजिक बंधन है।"
लेकिन समाज प्रेम को स्वीकार नहीं करता।
अगर प्रेम विवाह में बदलना चाहता है, तो समाज उसके सामने हजारों शर्तें रख देता है:
- तुम्हारी जाति क्या है?
- धर्म कौन सा है?
- तुम्हारे माता-पिता इस रिश्ते के लिए सहमत हैं या नहीं?
- लड़का कमाता कितना है?
- लड़की का रंग कैसा है?
अगर यह सब देखना है, तो फिर ईश्वर का इसमें क्या योगदान?
ईश्वर ने तो आत्माएँ बनाई हैं, उन्होंने जातियाँ, धर्म, बैंक बैलेंस, सुंदरता की सीमाएँ नहीं खड़ी कीं।
अगर वास्तव में जोड़ियाँ ईश्वर बना कर भेजता, तो प्रेम करने वाले दो लोगों को समाज में संघर्ष नहीं करना पड़ता।
2. विवाह का असली रूप: एक सामाजिक अनुबंध
आज के समाज में विवाह क्या है?
एक अनुबंध!
दो परिवारों के बीच एक सामाजिक करार, जिसमें लड़का और लड़की को कुछ नियमों में बाँध दिया जाता है।
- तुम इस रिश्ते को निभाओगे।
- तुम बाहर किसी और से प्रेम नहीं करोगे।
- तुम अपने परिवार की मर्यादा रखोगे।
- तुम्हें इन परंपराओं को निभाना होगा।
यह प्रेम नहीं है, यह एक समझौता है।
ओशो कहते हैं, "प्रेम स्वतंत्रता है, विवाह बंधन है।"
लेकिन समाज प्रेम को स्वीकार नहीं करता, क्योंकि प्रेम नियमों को तोड़ता है।
3. जाति और धर्म: प्रेम का सबसे बड़ा दुश्मन
कितनी अजीब बात है कि दो इंसान प्रेम करते हैं, लेकिन शादी करने से पहले समाज देखता है कि उनकी जाति क्या है।
ओशो कहते हैं, "क्या आत्मा की भी कोई जाति होती है? क्या प्रेम को भी जाति के बंधन में बाँधा जा सकता है?"
लेकिन समाज इस सत्य को मानने के लिए तैयार नहीं है।
अगर कोई व्यक्ति अपनी जाति के बाहर विवाह करना चाहता है, तो समाज उसका विरोध करता है।
- उसे ताने दिए जाते हैं।
- परिवार उसे ठुकरा देता है।
- कभी-कभी तो ऑनर किलिंग तक कर दी जाती है।
क्या यही ईश्वर की बनाई हुई जोड़ियाँ हैं?
अगर सच में विवाह ईश्वर द्वारा तय किया जाता, तो फिर जाति और धर्म की दीवारें कभी न बनतीं।
4. दहेज़: प्रेम की सबसे बड़ी शर्मिंदगी
अगर जोड़ियाँ ऊपर से बनकर आती हैं, तो दहेज़ की क्या ज़रूरत है?
आज भी समाज में विवाह से पहले लड़के की कीमत लगाई जाती है—
- अगर वह डॉक्टर है, तो इतना दहेज़।
- अगर वह इंजीनियर है, तो उतना दहेज़।
- अगर वह सरकारी नौकरी में है, तो उसकी अलग कीमत।
ओशो कहते हैं, "अगर प्रेम सच्चा हो, तो धन-दौलत का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। लेकिन विवाह प्रेम नहीं है, यह एक सौदा है।"
लड़की के माता-पिता लड़के के घर दहेज़ देकर उसे "खरीदते" हैं। और फिर वही समाज कहता है कि यह रिश्ता ईश्वर ने तय किया!
क्या ईश्वर ने यह भी लिखा था कि एक लड़की के माता-पिता को उसकी शादी के लिए कर्ज़ लेना पड़े?
क्या ईश्वर ने यह भी तय किया था कि दहेज़ के कारण बेटियाँ जलाई जाएँ?
अगर ऐसा होता, तो फिर ईश्वर से बड़ा अन्यायी कोई नहीं होता। लेकिन ऐसा नहीं है। अन्यायी समाज है, जिसने विवाह को बाज़ार बना दिया है।
5. सुंदरता का खेल: क्या विवाह आत्मा का मेल है?
अगर सच में जोड़ियाँ ईश्वर बनाकर भेजता, तो फिर सुंदरता इतनी मायने क्यों रखती है?
आज भी समाज में लड़की की शादी तभी आसान होती है जब वह "खूबसूरत" मानी जाती है।
अगर लड़की का रंग गोरा नहीं है, तो उसकी शादी मुश्किल हो जाती है।
क्या प्रेम का रंग होता है?
क्या आत्मा को गोरा-काला देखा जाता है?
ओशो कहते हैं, "सौंदर्य एक छलावा है। वास्तविक प्रेम आत्मा का मिलन है, शरीर का नहीं।"
लेकिन समाज को आत्मा से कोई मतलब नहीं। समाज को सिर्फ बाहरी चमक-दमक चाहिए।
6. प्रेम विवाह बनाम अरेंज मैरिज
समाज यह कहता है कि प्रेम विवाह गलत है और अरेंज मैरिज सही।
लेकिन क्या सच में ऐसा है?
अगर अरेंज मैरिज सही होती, तो तलाक क्यों होते?
ओशो कहते हैं, "प्रेम विवाह में लोग खुद अपने साथी को चुनते हैं, इसलिए अगर रिश्ता टूटता भी है, तो वे जिम्मेदारी लेते हैं। लेकिन अरेंज मैरिज में अगर रिश्ता टूटता है, तो वे दोष भाग्य को देते हैं!"
समाज कहता है कि प्रेम विवाह ज्यादा टूटते हैं।
लेकिन सच्चाई यह है कि अरेंज मैरिज में भी लोग दुखी होते हैं, लेकिन वे इसे जबरदस्ती निभाते हैं, क्योंकि उन्हें डर होता है—"लोग क्या कहेंगे?"
7. समाधान: क्या किया जाए?
अब सवाल यह उठता है कि इस पाखंड से कैसे बचा जाए?
1. विवाह को प्रेम का परिणाम बनने दो – विवाह तभी होना चाहिए जब दो आत्माएँ एक-दूसरे को समझें, बिना किसी सामाजिक दबाव के।
2. जाति और धर्म के बंधन तोड़ो – प्रेम जाति और धर्म से बड़ा है। यह आत्माओं का मिलन है, इसे सामाजिक दीवारों में मत बाँधो।
3. दहेज़ को नकारो – अगर कोई रिश्ता धन से तय हो रहा है, तो वह व्यापार है, प्रेम नहीं।
4. बाहरी सुंदरता को मत देखो – असली रिश्ता आत्मा का होता है, शरीर का नहीं।
5. अपने जीवन का निर्णय खुद लो – समाज को अपनी ज़िंदगी के फैसले मत लेने दो।
8. निष्कर्ष: प्रेम ही सत्य है
ओशो कहते हैं, "अगर सच में जोड़ियाँ ईश्वर बनाकर भेजता, तो विवाह प्रेम का दूसरा नाम होता। लेकिन समाज ने प्रेम को मारकर विवाह को व्यापार बना दिया है।"
अगर तुम प्रेम करते हो, तो समाज से मत डरो।
अगर तुम प्रेम करते हो, तो अपनी आत्मा की आवाज़ सुनो।
क्योंकि जब तुम प्रेम में हो, तभी तुम सच में जीवित हो।
बाकी सब तो बस सामाजिक दिखावा है!
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