जब ओशो कहते हैं, “सब जहां सोए, सबके लिए तो निशा है, अंधेरी रात है; वहां भी संयमी जागा हुआ है”, तो वे केवल जागने की बात नहीं कर रहे—वे चेतना की उस ज्योति की बात कर रहे हैं जो कभी बुझती नहीं।
यही वह अंतर है जो एक सामान्य व्यक्ति और एक संयमी में होता है।
🌺 संयमी का अखंड जागरण — ओशो का गूढ़ संदेश
जब सारी दुनिया नींद में डूबी होती है, तब एक संयमी भीतर के मंदिर में दीप जलाकर बैठा होता है।
यह दीप कोई साधारण लौ नहीं है, यह आत्मा का आलोक है, जो न कभी बुझता है न मंद पड़ता है।
ओशो कहते हैं—“संयमी वह नहीं जो सोने से इंकार करता है, बल्कि वह है जो हर नींद में भी जागरूक बना रहता है।”
यह जागरूकता कोई मानसिक चौकसी नहीं, यह अस्तित्व की एक गहरी स्थिति है—साक्षीभाव।
🕊️ संयम का अर्थ क्या है?
ओशो की दृष्टि में संयम का अर्थ दमन नहीं है। संयम का अर्थ है — जागरूकता से जीना।
जहां इच्छा बिना समझ के बहती है, वहां अंधकार है; और जहां इच्छा को देखा गया, समझा गया, स्वीकारा गया—वहां प्रकाश है। संयमी वह नहीं जो इच्छाओं को मारता है, बल्कि वह जो उन्हें पहचानता है और उनके आर-पार देख लेता है। वह जानता है कि इच्छा का मूल अज्ञान है, और उस अज्ञान को केवल ध्यान से ही दूर किया जा सकता है।
ओशो कहते हैं —
“संयमी का मतलब यह नहीं कि तुमने जीवन से मुँह मोड़ लिया,
संयमी का मतलब यह है कि तुमने जीवन को पहली बार सच में देखा।”
🔥 जागरण का प्रतीक: भीतर का दीपक
जब ओशो ‘भीतर का दिया’ कहते हैं, तो यह कोई रूपक मात्र नहीं। यह वह अनुभूति है जो ध्यान के चरम क्षण में स्वयं उत्पन्न होती है। सांसें शांत हो जाती हैं, मन ठहर जाता है, और भीतर एक नन्हा सा प्रकाश अनुभव में आता है — न आंखों से दिखता है, न शब्दों में कहा जा सकता है। वह केवल अनुभव किया जा सकता है। यह वही दीपक है जिसके बारे में ओशो कहते हैं,
“अंधेरी से अंधेरी अमावस में भी संयमी के भीतर दिया जलता रहता है।”
क्योंकि यह दीप बाहरी नहीं, अंतरात्मा का प्रकाश है।
बाहरी अंधेरा उसे छू भी नहीं सकता।
यह वही जागरण है जिसके बाद जीवन में कोई अंधकार नहीं बचता।
🌿 संयमी का जीवन: ध्यानमय कर्म
ओशो समझाते हैं कि संयम का अर्थ संन्यास नहीं, बल्कि जीवन को ध्यान में बदल देना है। संयमी खाना खाता है, चलता है, बोलता है, प्रेम करता है—परंतु हर कर्म में वह साक्षी बना रहता है। उसकी आँखें भीतर की ओर भी खुली रहती हैं। वह देख रहा होता है कि कौन खा रहा है, कौन बोल रहा है, कौन चल रहा है। यही आंतरिक देखना ही सच्चा संयम है। संयमी का जीवन कोई तपस्या नहीं, बल्कि सौंदर्य है—जहां हर क्रिया ध्यान की तरह होती है, हर श्वास एक मंत्र बन जाती है।
ओशो कहते हैं:
“संयमी का जीवन फूल की तरह है—कोमल भी है, सुगंधित भी, और अडिग भी।”
वह संसार में रहते हुए भी संसार से परे है।
🌸 अंधकार और प्रकाश की लीला
जब ओशो कहते हैं “सब सोए हुए हैं,” तो इसका अर्थ केवल भौतिक नींद नहीं। यह एक प्रतीक है हमारे अवचेतन जीवन का। लोग चलते हैं, बोलते हैं, कमाते हैं, प्रेम करते हैं—पर सब यांत्रिक हैं। वे अपने भीतर से अनजान हैं। उनकी चेतना एक गहरी नींद में है। संयमी वह है जिसने स्वयं को जगाया है। वह इस जगत के अंधकार में भी एक दीपक लेकर चलता है। और जब एक व्यक्ति जागता है, तो उसके प्रकाश से अनगिनत और लोग भी जगने लगते हैं।
ओशो कहते हैं:
“एक जागृत आत्मा पूरे अस्तित्व का संतुलन बदल देती है।”
यह बात केवल काव्य नहीं, ऊर्जा का विज्ञान है। जब तुम्हारे भीतर प्रकाश जलता है, तो उसका कंपन आसपास की चेतनाओं को छूता है। और यह जगत धीरे-धीरे एक नए प्रभात में प्रवेश करता है।
🌼 संयमी की निंद्रा भी ध्यान है
यहां तक कि जब संयमी सोता है, तब भी वह पूरी तरह नहीं सोता। उसके भीतर का साक्षी जागा रहता है। शरीर विश्राम करता है, मन सपनों में जाता है, पर भीतर की चेतना अपरिवर्तित रहती है। यह अवस्था ओशो के अनुसार जाग्रत-निद्रा कहलाती है—जहां बाहर सब सोया है, पर भीतर सब जीवंत है।
ओशो कहते हैं:
“संयमी की नींद भी ध्यान है, क्योंकि उसमें भी जागरूकता की ज्योति जलती है।”
यही कारण है कि ऐसा व्यक्ति मृत्यु में भी नहीं मरता। क्योंकि जिसने नींद में जागना सीख लिया, उसने मृत्यु में भी जीवन पा लिया। यह आत्मा का अमरत्व है।
🌻 संयम और स्वतंत्रता का रहस्य
अक्सर लोग सोचते हैं कि संयम का अर्थ है—बंधन। पर ओशो कहते हैं, सच्चा संयम ही सच्ची स्वतंत्रता है। क्योंकि जब तुम जाग जाते हो, तो कोई भी चीज़ तुम्हें बाँध नहीं सकती। न शरीर, न मन, न समाज। संयमी मुक्त होता है क्योंकि उसकी ऊर्जा बिखरी नहीं रहती, वह एकीकृत होती है, केंद्रित होती है। और जब ऊर्जा केंद्रित हो जाती है, तो वही समाधि बन जाती है।
समाधि का अर्थ है—पूरा अस्तित्व एक हो जाना। अब कोई दो नहीं—न भीतर न बाहर। वह स्थिति जहां ‘मैं’ और ‘तू’ मिट जाते हैं, जहां केवल अस्तित्व का संगीत रह जाता है।
💫 ओशो का प्रभाव — संयम से समर्पण तक
ओशो का यह दृष्टिकोण इसलिए अद्वितीय है क्योंकि उन्होंने संयम को नकारात्मक नहीं, बल्कि जीवन की परम सुंदरता के रूप में प्रस्तुत किया। उनका संयम संन्यास नहीं, समर्पण है। उनका जागरण कठोर अनुशासन नहीं, बल्कि प्रेम और समझ से उत्पन्न होता है।
ओशो ने कहा:
“जिसने प्रेम को जाना, वही संयम को जान सकता है;
क्योंकि प्रेम ही वह अग्नि है जिसमें अहंकार जल जाता है।”
इसलिए ओशो के प्रवचनों में संयमी को कठोर तपस्वी नहीं दिखाया गया, बल्कि उसे एक नाचता हुआ, गाता हुआ, हँसता हुआ साधक बताया गया—जो जीवन के हर क्षण को ध्यान में बदल देता है।
🌕 संयमी का जागरण और समाज पर उसका प्रभाव
ओशो बताते हैं कि यदि एक भी व्यक्ति सच में जाग जाए, तो उसका प्रभाव असंख्य लोगों तक पहुँचता है। यह प्रभाव शब्दों से नहीं, ऊर्जा से होता है। संयमी की उपस्थिति ही ध्यान का वातावरण बन जाती है। उसका मौन ही शिक्षा बन जाता है। लोग बिना पूछे सीखने लगते हैं, बिना सुने सुनने लगते हैं।
ओशो कहते हैं:
“सच्चा गुरु कुछ कहता नहीं;
उसकी उपस्थिति ही कह देना है।”
इसीलिए ओशो के प्रवचनों को सुनते हुए हजारों लोगों के भीतर मौन उतरता है। वे शब्दों में नहीं, बीच के अंतराल में उतर जाते हैं—जहां सन्नाटा भी संगीत बन जाता है।
🌷 संयमी का हृदय — करुणा का स्रोत
जब कोई व्यक्ति पूरी तरह जाग जाता है, तो उसके भीतर करुणा का सागर उमड़ पड़ता है। अब वह दूसरों को भी वही प्रकाश देना चाहता है जो उसने पाया है। यह करुणा उपदेश नहीं, प्रवाह है। संयमी कुछ सिखाने नहीं निकलता, वह तो बस अपने प्रकाश को साझा करता है।
ओशो कहते हैं:
“जो भीतर जागा, वही बाहर प्रेम बनकर बहता है।”
इसलिए संयमी कभी समाज से भागता नहीं। वह समाज के बीच रहकर भी एक ऊर्जा केंद्र बन जाता है। उसके चारों ओर जीवन खिलने लगता है।
🌺 जागरण का विज्ञान — ध्यान की दिशा
ओशो बार-बार कहते हैं कि यह जागरण किसी ग्रंथ या शास्त्र से नहीं आता। यह तो ध्यान से आता है। ध्यान का अर्थ है—देखना बिना निर्णय के। जब तुम अपने भीतर उठते विचारों, इच्छाओं, भावनाओं को बिना चुने देखते हो, तो धीरे-धीरे मन शांत हो जाता है। फिर वही मौन भीतर दीपक बन जाता है।
ओशो कहते हैं:
“जहां ध्यान है, वहां संयम स्वतः आता है;
जहां ध्यान नहीं, वहां संयम केवल पाखंड है।”
इसलिए सच्चा संयमी किसी नियम से नहीं, बल्कि समझ से जन्म लेता है।
🌼 अंतिम बिंदु — जब दिया और दीपक एक हो जाते हैं
संयमी के लिए यात्रा का अंत तब होता है जब देखने वाला और देखा जाने वाला एक हो जाते हैं। अब कोई भीतर-बाहर नहीं बचता। दीपक और उसकी ज्योति एक हो जाते हैं। यह वही क्षण है जब जीवन पूर्ण हो जाता है।
ओशो कहते हैं:
“जब तक भीतर दिया अलग है, तब तक साधना है;
जब दिया स्वयं तुम बन जाओ, तब समर्पण है।”
यही समर्पण ही परम आनंद है। यह वही अवस्था है जिसे बुद्ध ने ‘निर्वाण’ कहा, और ओशो ने ‘निरंतर जागरण’।

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