“अगर आप सच देखना चाहते हैं तो न सहमति और न ही असहमति में राय रखो।”

ओशो ने यूँ ही नहीं कहा। यह कोई नैतिक उपदेश नहीं है, न ही दार्शनिक बहस का निष्कर्ष। यह तो चेतना की प्रयोगशाला से निकला हुआ वाक्य है — वहाँ से, जहाँ सत्य को देखा जाता है, सोचा नहीं जाता।

1. सच देखने की पहली शर्त: मन का विराम

ओशो कहते हैं —
सत्य कोई विचार नहीं है जिसे तुम मान लो या नकार दो।
सत्य कोई सिद्धांत नहीं है जिसके पक्ष या विपक्ष में खड़े हुआ जा सके।

सत्य दिखता है
लेकिन केवल उसी को, जो देखने की अवस्था में हो।

और समस्या यह है कि मन देखने की अवस्था में कभी होता ही नहीं।
मन या तो हाँ कहता है, या नहीं

सहमति और असहमति — दोनों ही मन की चालें हैं।
दोनों ही अहंकार के खेल हैं।
दोनों ही अतीत के अनुभवों, सीखी हुई मान्यताओं और जमा किए गए निष्कर्षों से पैदा होते हैं।

ओशो कहते हैं:

“जब तुम किसी बात से सहमत होते हो, तो तुम उसे देख नहीं रहे — तुम उसे स्वीकार कर रहे हो।
और जब तुम असहमत होते हो, तब भी तुम देख नहीं रहे — तुम उसे अस्वीकार कर रहे हो।”

दोनों ही स्थितियों में दृष्टि बंद रहती है।

2. सहमति क्यों अंधी करती है?

सहमति बड़ी मीठी लगती है। क्योंकि सहमति अहंकार को सुरक्षा देती है। जब कोई बात तुम्हारी सोच से मेल खा जाती है,तो भीतर एक सुख पैदा होता है — “मैं सही हूँ।” लेकिन यही “मैं सही हूँ” सत्य का सबसे बड़ा शत्रु है।

ओशो कहते हैं —

“जिस क्षण तुम्हें लगता है कि तुम सही हो, उसी क्षण खोज समाप्त हो जाती है।”

सहमति का अर्थ है:
तुम पहले से तय करके बैठे हो। तुम सुन नहीं रहे, तुम केवल पहचान रहे हो। जैसे कोई व्यक्ति भीड़ में अपने परिचित चेहरे खोजता है — वह नए चेहरों को देख ही नहीं पाता। सहमति तुम्हें पुराने से बाँध देती है। और सत्य हमेशा नया होता है।

3. असहमति क्यों उतनी ही खतरनाक है?

लोग सोचते हैं कि असहमति उन्हें स्वतंत्र बनाती है। पर ओशो कहते हैं — यह भी एक भ्रम है।

असहमति भी प्रतिक्रिया है। और प्रतिक्रिया कभी जागरूकता नहीं हो सकती। जब तुम किसी बात को तुरंत नकार देते हो, तो तुम उसे समझने से पहले ही मार देते हो।

ओशो कहते हैं —

“जो व्यक्ति हर बात का विरोध करता है, वह भी उतना ही गुलाम है जितना हर बात को मानने वाला।”

क्योंकि दोनों की दिशा बाहर की ओर है। दोनों दूसरों के कथनों पर निर्भर हैं। सहमति कहती है: “तुम सही हो।” असहमति कहती है: “तुम गलत हो।” लेकिन दोनों ही यह नहीं पूछतीं — “वास्तव में है क्या?”

4. राय: सत्य के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा

ओशो राय को बहुत खतरनाक मानते हैं। क्यों?

क्योंकि राय हमेशा उधार होती है। या तो तुमने उसे समाज से लिया है, या शास्त्रों से, या परिवार से, या किसी गुरु से। राय का मतलब है — तुमने बिना देखे निर्णय कर लिया। और जहाँ निर्णय पहले से मौजूद हो, वहाँ देखने की गुंजाइश नहीं बचती।

ओशो कहते हैं —

“सत्य देखने के लिए मन को खाली होना चाहिए, भरा हुआ नहीं।”

सहमति मन को भर देती है। असहमति भी मन को भर देती है। बस भरने का रंग अलग होता है।

5. तो फिर करना क्या है?

यहीं से ध्यान की शुरुआत होती है। ओशो कहते हैं —

न सहमति, न विरोध — बस साक्षीभाव

साक्षी का अर्थ है:
तुम भीतर खड़े होकर देख रहे हो, बिना किसी पक्ष के। जैसे आकाश बादलों को देखता है — न उन्हें पकड़ता है, न हटाता है।साक्षी न तो “हाँ” कहता है, न “न”। वह केवल जागरूक होता है।

6. साक्षीभाव का अभ्यास कैसे करें?

अब यह केवल समझने की बात नहीं है, यह जीने की कला है। ओशो कहते हैं —

दिनभर छोटे-छोटे प्रयोग करो। जब कोई तुमसे कुछ कहे, तो तुरंत प्रतिक्रिया मत दो। देखो — मन भीतर क्या कर रहा है। क्या वह सहमति की ओर दौड़ रहा है? क्या वह विरोध की तलवार निकाल रहा है? बस देखो। देखना ही ध्यान है। जब तुम देखने लगते हो, तो धीरे-धीरे प्रतिक्रियाएँ ढीली पड़ने लगती हैं। और एक दिन ऐसा आता है — जब तुम किसी बात को सुन सकते हो, बिना निर्णय के।

7. सत्य का दर्शन कब होता है?

ओशो कहते हैं —
सत्य उसी क्षण प्रकट होता है जब मन शांत होता है। जब भीतर कोई आवाज़ नहीं कहती — “यह ठीक है” या “यह गलत है” उस क्षण एक सन्नाटा होता है। और उसी सन्नाटे में सत्य उतरता है। सत्य शब्दों में नहीं आता। वह अनुभव बनता है।

8. जीवन बदलने वाला परिणाम

जब तुम न सहमति में फँसे होते हो, न असहमति में उलझे होते हो, तो एक अद्भुत परिवर्तन घटित होता है। तुम बहस से मुक्त हो जाते हो। तुम दूसरों को बदलने की बीमारी से बाहर आ जाते हो। तुम शांत हो जाते हो।vऔर इस शांति में जीवन अपने रहस्य खोलने लगता है।

ओशो कहते हैं —

“सत्य को खोजने की जरूरत नहीं,
उसे केवल देखने की तैयारी चाहिए।”

9. अंतिम सूत्र

इस पूरे कथन का सार एक ही है: सत्य मानने से नहीं मिलता। सत्य नकारने से भी नहीं मिलता। सत्य देखने से मिलता है।और देखने के लिए मन को खाली करना पड़ता है। न पक्ष, न विपक्ष, न निर्णय। बस एक मौन, जागरूक उपस्थिति।

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