1. परमात्मा की खोज नहीं, अनुभव की स्थिति

ओशो कहते हैं कि जो परमात्मा को पाने की कोशिश करता है, वह कभी उसे नहीं पा सकता। यह वाक्य विरोधाभासी लगता है — क्योंकि सामान्यत: हम सोचते हैं कि किसी चीज़ को पाने के लिए प्रयास आवश्यक है। लेकिन ओशो का तर्क पूरी तरह उल्टा है। उनका कहना है कि परमात्मा कोई वस्तु नहीं है, जिसे खोजा जाए। वह कोई लक्ष्य नहीं है, जिसे प्राप्त किया जा सके। वह तो पहले से ही हमारे भीतर विद्यमान है। लेकिन हमारा "पाने" का भाव, हमारी "खोज" की बेचैनी ही हमें उससे दूर कर देती है।

जब हम किसी चीज़ को पाने के लिए दौड़ते हैं, तब हम उसी क्षण उस चीज़ से दूरी बना लेते हैं। “पाना” यानी “अभाव का भाव।” और जहाँ अभाव है, वहाँ पूर्णता का अनुभव नहीं हो सकता। ओशो इस बिंदु पर ताओ दर्शन से सहमत हैं — लाओत्से ने कहा था, “जो जानता है, वह बोलता नहीं; और जो बोलता है, वह जानता नहीं।” इसका अर्थ यह है कि सच्ची अनुभूति तब होती है जब मन शांत हो जाए, जब खोज का भाव समाप्त हो जाए।

2. रिसेप्टिव बनाम एग्रेसिव चेतना

ओशो का कहना कि “हम रिसेप्टिव हो जाएँ, एग्रेसिव नहीं,” इसी बिंदु की व्याख्या है। एग्रेसिव चेतना वह है जो करने, पाने, जीतने, साबित करने की चेष्टा में रहती है। वह सदा केंद्र से बाहर भागती है। रिसेप्टिव चेतना इसके विपरीत है — वह शिथिल है, सजग है, परंतु निष्क्रिय नहीं। वह प्रतीक्षा में है, लेकिन उस प्रतीक्षा में कोई अधीरता नहीं है। यह वही चेतना है जिसे ताओ में वू-वे कहा गया है — “निष्क्रिय कर्म” या “अकर्म में कर्म।”

ओशो कहते हैं कि जब तुम अपने भीतर ग्रहणशीलता का भाव विकसित करते हो, तब परमात्मा स्वयं तुम्हारे भीतर उतर आता है। कोई बाहर से नहीं आता। वास्तव में, वह पहले से ही भीतर है, बस तुम्हारे द्वार बंद हैं। जैसे सूरज बाहर है, लेकिन पर्दे खींचे हैं, तो अंधकार बना रहता है। पर्दे हटाओ, और प्रकाश अपने आप भीतर आ जाता है। रिसेप्टिव होना वही पर्दे हटाना है।

3. खोज की मनोविज्ञान

मन सदा “करने” में व्यस्त रहता है। उसे लगता है कि अगर कुछ नहीं किया, तो कुछ मिलेगा नहीं। लेकिन आध्यात्मिकता की भूमि पर यह तर्क उल्टा पड़ता है। ओशो समझाते हैं कि मन का “करना” ही सबसे बड़ा अवरोध है। मन “पाने” की कोशिश में उसी चीज़ से अलगाव उत्पन्न कर देता है जिसे वह पाना चाहता है। अगर कोई प्रेम को पाने की कोशिश करे, तो वह कभी प्रेम में नहीं रह सकता, क्योंकि प्रेम तो होता है, किया नहीं जाता। वही बात परमात्मा पर लागू होती है — परमात्मा “घटता” है, “मिलता” नहीं।

ओशो एक उदाहरण देते हैं — “तुम नींद को पकड़ने की कोशिश करो, तो नींद भाग जाएगी। नींद तभी आती है जब तुम कोशिश छोड़ देते हो।” यही नियम परमात्मा के साथ भी है। कोशिश छोड़ो, शांति में ठहरो, और जो है उसे स्वीकारो — तभी वह घटेगा। यही रिसेप्टिवनेस है।

4. ताओ का मौलिक दृष्टिकोण

ताओ दर्शन में “मार्ग” का अर्थ किसी मंज़िल तक पहुँचने का नहीं, बल्कि स्वयं में लौट आने का है। लाओत्से कहता है — “जब मनुष्य ताओ को खोजता है, वह उसे खो देता है; जब वह खोज छोड़ देता है, ताओ उसे पा लेता है।” यही बात ओशो अपने शब्दों में कहते हैं — “परमात्मा को पाने जाओगे तो नहीं पाओगे।”
ओशो के अनुसार, ताओ का मार्ग निष्क्रियता का नहीं बल्कि सहजता का मार्ग है। यह जीवन के साथ बहने की कला है, उसके विपरीत जाने की नहीं। ओशो कहते हैं, “ताओ वह स्थिति है जहाँ व्यक्ति पूरी तरह से शून्य हो जाता है, और तब अस्तित्व स्वयं उसके भीतर बहने लगता है।”

जब व्यक्ति ‘रिसेप्टिव’ होता है, तब उसका अहंकार विलीन हो जाता है। “मैं पाना चाहता हूँ” — यह ‘मैं’ ही बाधा है। जैसे ही ‘मैं’ मिटता है, परमात्मा प्रकट होता है। इसलिए ओशो कहते हैं, “खोजी जब पूरी तरह थक जाता है, तब पाता है।”

5. आत्मसमर्पण का रहस्य

ओशो बार-बार “समर्पण” की बात करते हैं, पर उनका समर्पण किसी देवता के आगे झुकने का नहीं है। यह समर्पण जीवन के प्रति है — उसी के प्रवाह के प्रति। जब व्यक्ति प्रतिरोध छोड़ देता है, तभी वह अस्तित्व की धारा में बहने लगता है।
यह समर्पण ही वास्तविक ध्यान (मेडिटेशन) की स्थिति है। ध्यान का अर्थ है — “ना कुछ करना, ना कुछ रोकना, बस जो है उसे देखने की अनुमति देना।” ओशो कहते हैं, “जहाँ देखने वाला और देखा जाने वाला एक हो जाएँ, वहीं परमात्मा प्रकट होता है।”

समर्पण इसलिए आवश्यक है क्योंकि मन नियंत्रण की आदत का दास है। वह सब कुछ अपने नियमों से चलाना चाहता है — यहाँ तक कि परमात्मा को भी। वह चाहता है कि परमात्मा उसकी शर्तों पर प्रकट हो। लेकिन परमात्मा कोई वस्तु नहीं, कोई व्यक्ति नहीं, बल्कि अस्तित्व का मौन संगीत है। उसे पाने के लिए शर्तें नहीं, मौन चाहिए।

6. ‘द्वार खोल देना’ का प्रतीकात्मक अर्थ

ओशो जब कहते हैं, “हम सिर्फ राज़ी हो जाएँ कि वह आता हो तो हमारे द्वार-दरवाज़े बंद न पाए,” तो वे एक गहरा प्रतीक इस्तेमाल कर रहे हैं।
यह ‘द्वार’ हमारे अहंकार, हमारी धारणाएँ, हमारी मान्यताएँ हैं। ये सब दीवारें बनकर हमें परमात्मा से अलग करती हैं।
जब हम कहते हैं — “मैं जानता हूँ,” तब हम जानने के लिए बंद हो जाते हैं। जब हम कहते हैं — “मुझे मिलना है,” तब हम पाने की स्थिति में नहीं रह जाते। ओशो कहते हैं कि हमें बस इतना करना है कि भीतर के दरवाज़े खुले रहें, ताकि जब अस्तित्व की कृपा बरसे, हम उसे ग्रहण कर सकें।

परमात्मा कोई वस्तु नहीं है जो बाहर से आए — वह तो सदा हमारे भीतर है। लेकिन जब हम द्वार खोलते हैं, तब हमें उसकी उपस्थिति का अनुभव होता है। जैसे बादल हटते हैं तो सूरज दिखता है, वैसे ही जब हमारा मन शांत होता है, तब परमात्मा स्पष्ट होता है।

7. जन्मों-जन्मों की भटकन का अर्थ

ओशो जब कहते हैं कि “भटके जन्मों-जन्मों तक, तो भी परमात्मा को नहीं पा सकेगा,” तो इसका अर्थ है कि मनुष्य बार-बार बाहरी दिशा में खोजता है। वह धर्म, साधना, ज्ञान, ग्रंथ, यात्राओं में दौड़ता है, पर भीतर नहीं उतरता।
ओशो कहते हैं कि यह खोज अंतहीन है, क्योंकि इसका आरंभ ही गलत दिशा में हुआ है। जैसे कोई व्यक्ति अपने ही घर में खड़ा होकर बाहर अपने घर को ढूँढने निकल पड़े, तो वह जितना दौड़ेगा, उतना ही दूर जाएगा।
ओशो के अनुसार, “ध्यान” ही वह माध्यम है जिससे व्यक्ति बाहर से भीतर लौटता है। ध्यान का सार यह नहीं कि कुछ सोचा जाए, बल्कि यह कि विचारों की भीड़ शांत हो जाए। तभी व्यक्ति अनुभव करता है कि वह स्वयं परमात्मा है — खोज और खोजा जाने वाला दोनों एक हैं।

8. ताओ और ओशो के जीवन का संगम

ओशो ने ताओ को केवल दार्शनिक रूप से नहीं, बल्कि अस्तित्वगत रूप से जिया। वे कहते हैं, “लाओत्से की वाणी मेरे जीवन का संगीत है।” ओशो ताओ की तरह सहजता, मौन और स्वीकृति की बात करते हैं। वे कहते हैं कि सच्चा साधक कोई साधना नहीं करता; उसका जीवन ही साधना बन जाता है।
ओशो के प्रवचनों में यह बात बार-बार आती है कि जब व्यक्ति “स्वीकार” की स्थिति में होता है, तब सब कुछ स्वयं घटता है। कोई बाधा नहीं रहती। और यही परमात्मा का प्रकट होना है।

9. व्यावहारिक दृष्टि से इसका अर्थ

कई लोग यह सुनकर भ्रमित हो जाते हैं कि “कुछ मत करो।” वे समझते हैं कि इसका मतलब निष्क्रिय होना है। लेकिन ओशो कहते हैं — “रिसेप्टिव होना निष्क्रियता नहीं है, यह जागरूक निष्क्रियता है।” यह वैसी स्थिति है जैसे बादल आने से पहले धरती का मौन — प्रतीक्षा में, परंतु जीवंत।
इसका अर्थ यह नहीं कि जीवन में कुछ किया न जाए, बल्कि यह कि जो किया जाए वह सहजता से किया जाए, बिना किसी लालसा के। जब व्यक्ति अपने कर्मों में अहंकार नहीं जोड़ता, तब वह रिसेप्टिव बना रहता है, और तब हर क्रिया ध्यान बन जाती है।

10. अंत में — परमात्मा की निकटता का अनुभव

ओशो के अनुसार, परमात्मा न तो भविष्य में है, न अतीत में — वह यहीं, अभी है। जब मन वर्तमान में ठहरता है, तभी वह उसे महसूस करता है।
इसलिए ओशो कहते हैं — “ठहर जाओ।” यह ठहराव मृत नहीं, बल्कि जीवंत मौन है।
यह वही ठहराव है जिसमें बुद्ध ने ज्ञान पाया, महावीर ने कैवल्य अनुभव किया, और लाओत्से ने ताओ को जिया।
परमात्मा की प्राप्ति कोई घटना नहीं, बल्कि एक अनुभूति है — एक “होने” की स्थिति।

निष्कर्ष

ओशो के इस वचन का गूढ़ सार यह है कि परमात्मा को पाने की चेष्टा ही सबसे बड़ा अवरोध है। जब हम पाने की इच्छा त्याग देते हैं, जब हम भीतर से खुल जाते हैं, जब हम सिर्फ "ठहर" जाते हैं — तब परमात्मा स्वयं भीतर उतर आता है।

रिसेप्टिव होना यानी खुले रहना, जागरूक रहना, बिना किसी अपेक्षा के।
यह न तो साधना है, न तप, न प्रार्थना — यह केवल आत्मस्वीकृति की अवस्था है।
और जैसे ही यह स्वीकृति पूर्ण होती है, खोज समाप्त होती है — क्योंकि खोजने वाला और खोजा गया, दोनों एक हो जाते हैं।

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