बहुत सुंदर — आपने ओशो के एक अत्यंत गूढ़ और तात्त्विक वाक्य को चुना है।

यह वचन न केवल लाओत्से के दर्शन की आत्मा को प्रकट करता है, बल्कि ओशो की आध्यात्मिक दृष्टि की जड़ तक पहुँचता है।
यहाँ ओशो का स्वर स्पष्ट है: “ईश्वर कोई वस्तु नहीं, कोई व्यक्ति नहीं — वह तो चेतना की उपलब्धि है। जितनी क्षमता तुम्हारे भीतर उसे अनुभव करने की है, उतना ही वह तुम्हारे लिए प्रकट होता है।”

1. अनुभव की क्षमता — ईश्वर की सीमा

लाओत्से कहता है, “ईश्वर तब होता है जब मनुष्य उसे अनुभव करने की क्षमता रखता है।”
ओशो कहते हैं — यह वाक्य पहली दृष्टि में उल्टा लगता है। हमें बचपन से सिखाया गया है कि ईश्वर सर्वत्र है, सर्वशक्तिमान है, वह हमारे विश्वास या अविश्वास से परे है। लेकिन लाओत्से और ओशो कहते हैं — नहीं, ईश्वर कोई स्थिर वस्तु नहीं जो बाहर कहीं बैठी हो; वह एक तरंग है, एक धुन है, जिसे वही सुन सकता है जिसके भीतर उसका कान जागा है।

जिसके भीतर आँख नहीं, उसके लिए सूरज नहीं होता। सूरज बाहर होता है, पर आँख न हो तो प्रकाश का कोई अर्थ नहीं।
जिसके भीतर संगीत सुनने का भाव नहीं, उसके लिए वीणा मौन रहती है।
उसी प्रकार ईश्वर भी केवल उन पर प्रकट होता है जिनके भीतर अनुभव की संवेदनशीलता विकसित हुई है।
इसलिए ओशो कहते हैं, “ईश्वर की उपस्थिति हमारे भीतर की तैयारी पर निर्भर करती है।”

2. मनुष्य की चेतना — ईश्वर का दर्पण

ईश्वर बाहर नहीं है; वह हमारे भीतर की चेतना में प्रतिबिंबित होता है।
यदि मनुष्य का चित्त स्वच्छ है, तो वही चित्त ईश्वर का प्रतिबिंब बन जाता है।
यदि मनुष्य का मन मैला है, भरा हुआ है वासनाओं, आकांक्षाओं, और भय से, तो उस पर ईश्वर का कोई प्रतिबिंब नहीं गिरता।
ईश्वर तो सदा प्रकाशमान है, लेकिन मनुष्य का मन धूल से ढका हुआ दर्पण है।

ओशो कहते हैं — “तुम्हारा काम ईश्वर को खोजना नहीं, अपने दर्पण को चमकाना है।”
जैसे ही दर्पण साफ़ होता है, प्रकाश स्वयं उसमें उतर आता है।
ईश्वर की उपलब्धि कोई कार्य नहीं, कोई प्रयत्न नहीं — यह एक परिपक्वता है, एक आत्मिक परिपक्वता।

3. अनुभव बनाम विश्वास

ओशो कहते हैं, “ईश्वर में विश्वास कोई उपलब्धि नहीं है; अनुभव ही उपलब्धि है।”
विश्वास उधार लिया जा सकता है, लेकिन अनुभव नहीं।
तुम किसी से सुन सकते हो कि मधु मीठा है, पर जब तक स्वयं न चखो, तब तक वह शब्द ही रहेगा।
ओशो कहते हैं, “धर्म तब तक झूठा है जब तक वह अनुभव न बन जाए।”
विश्वास में न तो सत्य है, न प्राण। विश्वास अंधा है, जबकि अनुभव आंख है।

लाओत्से कहता है, “जिसने अनुभव किया, वही जानता है।”
ओशो इसे समझाते हैं — “ईश्वर की सच्चाई शब्दों में नहीं उतरती, वह केवल अनुभव की धरती पर उतरती है।”
यह अनुभव तब संभव है जब भीतर का मन शांत हो, जब विचारों का कोलाहल रुक जाए, जब मनुष्य अपनी उपस्थिति को महसूस करे बिना किसी भय या चाह के।

4. हृदय के द्वार — अनुभव का प्रवेशद्वार

ओशो कहते हैं — “ईश्वर बाहर नहीं आता, वह भीतर आता है, जब तुम भीतर के द्वार खोल देते हो।”
यह द्वार हृदय का है, और हृदय का द्वार केवल प्रेम से खुलता है।
प्रेम ही वह शक्ति है जो अनुभव की क्षमता को जन्म देती है।
प्रेम का अर्थ ओशो के लिए भावुकता नहीं, बल्कि गहराई से जीने की कला है।

जब हृदय खुलता है, तब अस्तित्व भीतर प्रवेश करता है।
और जिस क्षण यह प्रवेश घटता है, मनुष्य जान लेता है कि ईश्वर था ही नहीं — केवल वही था।
परंतु यह अनुभूति तब घटती है जब मनुष्य का हृदय निष्कपट, निर्मल और ग्रहणशील हो।

ओशो कहते हैं — “मन बुद्धि से ईश्वर को नहीं जान सकता; हृदय जानता है।”
क्योंकि हृदय तर्क नहीं करता, वह केवल अनुभव करता है।
बुद्धि सदा तुलना करती है, प्रश्न करती है; हृदय केवल झुकता है, मौन होता है।
और जहाँ मौन है, वहीं अनुभव का बीज अंकुरित होता है।

5. ईश्वर का होना या न होना — अर्थहीन प्रश्न

ओशो के अनुसार, यह पूछना कि “ईश्वर है या नहीं,” मूर्खता है।
यह वैसा ही प्रश्न है जैसे कोई अंधा पूछे — “प्रकाश है या नहीं।”
प्रकाश है, लेकिन तुम्हारे भीतर आँखें नहीं खुलीं।
ओशो कहते हैं — “ईश्वर को प्रमाणित करना असंभव है, क्योंकि वह तर्क से नहीं, अनुभव से जाना जाता है।”

ईश्वर को सिद्ध करने की आवश्यकता ही नहीं है;
वह तो अनुभव का फल है।
जब तुम्हारे भीतर शांति उतरती है, जब तुम्हारा मन एकदम निर्विचार हो जाता है, तब तुम्हें स्वयं अनुभव होता है कि कोई ऊर्जा तुम्हारे भीतर प्रवाहित है — जिसे शब्द नहीं कहा जा सकता, जिसे नाम नहीं दिया जा सकता।
ताओ इसी को “नामहीन” कहता है।

ओशो कहते हैं, “जहाँ तक शब्द पहुँचता है, वहाँ ईश्वर नहीं होता। जहाँ शब्द रुकता है, वहीं ईश्वर शुरू होता है।”
इसलिए सवाल ‘है या नहीं’ निरर्थक है। सवाल यह होना चाहिए — “क्या मैं तैयार हूँ देखने के लिए?”
ईश्वर की उपस्थिति तुम्हारी तैयारी पर निर्भर है।

6. मनुष्य — ईश्वर का पात्र

लाओत्से के अनुसार, मनुष्य ईश्वर का पात्र है।
पात्र जितना बड़ा होगा, उतना ही अधिक वह धारण करेगा।
यदि पात्र छोटा है, तो अनंत उसमें समा नहीं सकता।
ओशो कहते हैं — “मनुष्य का हृदय वह पात्र है जहाँ ईश्वर उतरता है।”

लेकिन यह पात्र अक्सर भरा हुआ होता है — इच्छाओं, भय, अपेक्षाओं से।
ओशो कहते हैं, “खाली पात्र ही भर सकता है।”
जब तक तुम खाली नहीं होते, तब तक कोई दैवी ऊर्जा भीतर नहीं उतरती।
खाली होना यानी अहंकार से मुक्त होना, “मैं” की दीवार को तोड़ देना।

जब “मैं” मिटता है, तब वही क्षण ईश्वर के प्रकट होने का क्षण है।
क्योंकि तब केवल चेतना रह जाती है, कोई अलग अस्तित्व नहीं।
ईश्वर और मनुष्य का द्वैत समाप्त हो जाता है।

7. चेतना का विस्तार — ईश्वर का विस्तार

ओशो कहते हैं, “ईश्वर उतना ही है जितनी तुम्हारी चेतना है।”
अगर तुम्हारी चेतना सीमित है, तो ईश्वर भी सीमित है।
अगर तुम्हारी चेतना अनंत है, तो ईश्वर भी अनंत है।
ईश्वर चेतना का विस्तार है, कोई अलग सत्ता नहीं।

बुद्ध जब कहते हैं कि ईश्वर नहीं है, तो वे उस पुराने ईश्वर को नकारते हैं जो बाहर बैठा हुआ नियंत्रक है।
लेकिन ओशो कहते हैं — “बुद्ध ने ईश्वर को नकारा नहीं, उन्होंने केवल उस अवधारणा को नकारा जिसे मनुष्य ने बना लिया था।”
वास्तविक ईश्वर तो वही चेतना है जो तुम्हारे भीतर जल रही है।
जैसे-जैसे तुम सजग होते जाते हो, वैसे-वैसे वह प्रकट होता जाता है।

ईश्वर कोई स्थिर बिंदु नहीं — वह एक गतिशील ऊर्जा है, जो तुम्हारी जागरूकता के साथ बढ़ती जाती है।

8. अनुभव का विज्ञान

ओशो कहते हैं — “ध्यान वह विज्ञान है जो ईश्वर को अनुभव में बदल देता है।”
ध्यान का अर्थ किसी देवी-देवता की पूजा नहीं, बल्कि स्वयं के भीतर उतरना है।
जब तुम भीतर उतरते हो, तब धीरे-धीरे परतें हटती हैं — विचारों की, इच्छाओं की, स्मृतियों की।
और जैसे-जैसे यह परतें गिरती हैं, भीतर का केंद्र उजागर होता है।
वह केंद्र ही ईश्वर है।

ओशो कहते हैं — “तुम ईश्वर को पा नहीं सकते क्योंकि वह पहले से ही हो।”
लेकिन तुम उसे अनुभव कर सकते हो जब तुम्हारे भीतर की अशांति शांत हो जाती है।
ध्यान कोई साधना नहीं, बल्कि एक सजगता है जो तुम्हें तुम्हारे भीतर के मौन तक ले जाती है।
और वहीं, उसी मौन में, वह घटता है — अनंत का स्पर्श।

9. अनुभव की गहराई — ईश्वर का रहस्य

ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं, बल्कि अनुभव की गहराई का दूसरा नाम है।
जब तुम प्रेम में डूबते हो, जब संगीत तुम्हें भिगो देता है, जब अस्तित्व तुम्हें छू लेता है — उसी क्षण तुम उसे महसूस करते हो।
लेकिन ओशो कहते हैं — “यह अनुभव तब तक पूर्ण नहीं होता जब तक तुम स्वयं मिट न जाओ।”
क्योंकि जब तक “मैं” बचा है, अनुभव अधूरा है।
पूर्णता तभी आती है जब अनुभवकर्ता और अनुभव दोनों एक हो जाएँ।

ओशो इस स्थिति को “समाधि” कहते हैं — जहाँ देखने वाला, देखा जाने वाला, और देखने की प्रक्रिया — तीनों विलीन हो जाते हैं।
वह पूर्णता का क्षण है — जहाँ केवल मौन है, केवल उपस्थिति है।
वहीं ईश्वर है — न शब्द, न रूप, न विचार, केवल अनंतता का स्पंदन।

10. हृदय की खुली खिड़की

ओशो कहते हैं — “ईश्वर को पाने के लिए किसी दिशा में मत भागो, बस अपनी खिड़की खोल दो।”
तुम्हारे भीतर एक खिड़की है — तुम्हारी संवेदनशीलता, तुम्हारी मौनता, तुम्हारी प्रार्थना।
जब यह खिड़की खुलती है, तो हवा भीतर आती है, प्रकाश भीतर उतरता है।
ईश्वर का होना इस हवा की तरह है — अदृश्य, लेकिन स्पर्श्य।

वह सदा बहता रहता है, बस तुम्हें अपने भीतर की बंदिशें हटानी हैं।
खुली खिड़की ही अनुभव का आरंभ है।
और जब तुम पूरी तरह खुले होते हो, तब ईश्वर तुम्हारे भीतर घर कर लेता है — वह बाहर से नहीं आता, वह भीतर से प्रकट होता है।

11. मनुष्य — ईश्वर का माध्यम

ओशो कहते हैं, “मनुष्य ईश्वर का माध्यम है।”
ईश्वर स्वयं को मनुष्य के माध्यम से व्यक्त करता है।
फूल में खिलना, पक्षी में गाना, मनुष्य में प्रेम करना — यह सब उसी की लीला है।
लेकिन यह लीला तभी घटती है जब मनुष्य खुला हो, सजग हो, संवेदनशील हो।

जब मनुष्य अपने भीतर के अनुभव को दबा देता है, जब वह भयभीत होता है, तब ईश्वर की धारा रुक जाती है।
और जब वह निर्भय होकर जीवन को स्वीकार करता है, तब वही जीवन ईश्वर बन जाता है।
ओशो कहते हैं, “ईश्वर जीवन से अलग नहीं, वही जीवन है — जिसे अनुभव करने के लिए तुम्हें जीवित होना पड़ता है।”

12. अनुभव का रहस्य — न पाने में पाना

ईश्वर को अनुभव करने का रहस्य यह है कि तुम उसे पाने की इच्छा छोड़ दो।
पाना ही बाधा है।
जब मनुष्य कहता है — “मैं चाहता हूँ,” तब वह उसी क्षण उसे खो देता है।
क्योंकि इच्छा में द्वैत है — चाहने वाला और चाही गई चीज़।
अनुभव तभी होता है जब द्वैत मिटता है।

ओशो कहते हैं — “जब तुम चाहना छोड़ देते हो, तब सब कुछ अपने आप मिलने लगता है।”
यह ताओ की भाषा है — वू-वे, यानी ‘अकर्म में कर्म’।
जब तुम कुछ नहीं करते, तब सब घटता है।
जब तुम मौन होते हो, तब अस्तित्व बोलता है।

13. अंतिम बोध — ईश्वर और मनुष्य का अभेद

ओशो कहते हैं — “जिसने ईश्वर को अनुभव किया, उसने जाना कि वह स्वयं ईश्वर है।”
क्योंकि अनुभव में कोई दो नहीं रहते।
जब अनुभव पूर्ण होता है, तब अनुभूति करने वाला और अनुभूति — दोनों एक हो जाते हैं।
यही अद्वैत का रहस्य है।
यही ताओ का परम सत्य है।

ईश्वर और मनुष्य के बीच कोई दूरी नहीं।
दूरी केवल अज्ञान की है।
जैसे ही अज्ञान का पर्दा हटता है, मनुष्य जान लेता है — “मैं ही वह हूँ।”
उपनिषद भी यही कहते हैं — “तत्वमसि” — “तू वही है।”

लाओत्से इस सत्य को मौन में कहता है, ओशो उसे शब्द देता है, और जीवन उसे प्रत्यक्ष करता है।

14. निष्कर्ष — अनुभव की दीप्ति

ओशो के इस वचन का सार यही है कि ईश्वर का होना हमारी क्षमता पर निर्भर है।
ईश्वर न तो बाहर की सच्चाई है, न किसी ग्रंथ का सिद्धांत।
वह हमारी सजगता का प्रतिबिंब है, हमारी संवेदना की गहराई है।
हम जितने खुले हैं, उतना ही वह हमारे भीतर प्रकट होता है।

इसलिए ओशो कहते हैं — “ईश्वर को खोजो मत; स्वयं को खोजो। जब तुम स्वयं को पाते हो, तो ईश्वर प्रकट होता है।”
ईश्वर कोई ‘वह’ नहीं है — ईश्वर ‘मैं’ भी नहीं — ईश्वर केवल ‘है’।
और यह ‘है’ तब घटता है जब मनुष्य का हृदय इतना शांत हो जाता है कि वह अस्तित्व की धुन सुन सके।

जहाँ शब्द समाप्त होते हैं, वहीं ईश्वर आरंभ होता है।
जहाँ प्रश्न मिटते हैं, वहीं उत्तर प्रकट होता है।
और जहाँ मनुष्य मौन में ठहरता है, वहीं परमात्मा उतरता है।

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