🌸 कर्म, लेकिन निष्प्रयोजन — खेल की भांति

गीता भारत का हृदय है —
पर यह विडंबना है कि यही भारत गीता से अछूता रह गया।
गीता को पढ़ा बहुत गया, उद्धृत बहुत किया गया,
पंडितों ने उस पर हजारों टीकाएँ लिख डालीं,
पर गीता को जिया किसी ने नहीं।

और जब गीता जी न जाए, तो वह केवल शब्द रह जाती है —
सूखी, अर्थहीन, और बोझिल।

ओशो कहते हैं —
“गीता का सार इतना सरल है कि जिसे अनुभव हो गया, उसके लिए यह बाल-क्रीड़ा है;
पर जिसे अनुभव नहीं हुआ, उसके लिए यह असंभव पहेली है।”

1. कर्म करो, फल की आकांक्षा मत करो — यह कैसे संभव है?

सदियों से यह वाक्य दोहराया जा रहा है:
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।”
लोग इसे रटते हैं, लेकिन भीतर से हंसते हैं — “भला यह कैसे संभव है? कर्म करूँ, और फल न चाहूँ? तो कर्म का अर्थ ही क्या रहेगा?”

यही प्रश्न ओशो ने उठाया —
उन्होंने कहा, “जब तक मनुष्य आत्मा को नहीं जानता, तब तक यह उपदेश असंभव है।” क्योंकि जब तक अहंकार है, फल की आकांक्षा स्वाभाविक है। अहंकार हमेशा कुछ चाहता है — सम्मान, परिणाम, सफलता, उपलब्धि। वह हमेशा भविष्य में जीता है। कर्म उसके लिए साधन है, और फल ही लक्ष्य। इसलिए कृष्ण का यह वचन केवल सुनने योग्य नहीं, जीने योग्य है —और उसे जीने के लिए पहले आत्म-ज्ञान का जन्म जरूरी है।

2. आत्म-ज्ञान और निष्काम कर्म का संबंध

ओशो कहते हैं —
“जब तुम अपने को जान लेते हो, तब कर्म बदल जाता है। अब कर्म कोई साधन नहीं रहता, अब कर्म स्वयं में आनंद बन जाता है।” बच्चे को देखो — वह रेत से महल बनाता है, और फिर स्वयं ही तोड़ देता है। उसके लिए न तो परिणाम का लोभ है, न भय है कि कोई देखेगा या नहीं। वह बस खेल रहा है। यही है निष्काम कर्म का रहस्य। जब आत्मा प्रकट होती है, तो जीवन खेल हो जाता है। अब न तो सफलता का सुख, न असफलता का दुख। अब केवल खेल है — मस्ती है, सहजता है, आनंद का प्रवाह है।

3. कर्म की जटिलता: फल का भ्रम

मनुष्य सोचता है कि फल पाने से संतोष मिलेगा। लेकिन क्या कभी किसी को फल से संतोष मिला है? हर उपलब्धि के बाद एक खालीपन आता है। हर सफलता के बाद भीतर एक सूखा महसूस होता है। तुम सोचते हो — जब यह मिल जाएगा, तब मैं प्रसन्न रहूँगा। मिल जाता है, और फिर नया लक्ष्य खड़ा हो जाता है। जैसे कोई मृगतृष्णा हो — दूर से पानी दिखाई देता है, पर पास पहुँचो तो रेत निकलती है।

ओशो कहते हैं —
“फल की आकांक्षा ही दुख का मूल है। क्योंकि आकांक्षा का अर्थ है — वर्तमान से असंतोष, भविष्य में भागना।” और जो भविष्य में भागता है, वह कभी अभी में नहीं जीता। और जो अभी में नहीं जीता, वह जीवन से चूक जाता है।

4. गीता का गूढ़ बिंदु: कर्म रहितता का कर्म

गीता कहती है — “कर्म करो।”
पर उसी गीता में कृष्ण यह भी कहते हैं — “कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखने वाला ज्ञानी है।” यह विरोधाभास नहीं, यह गहराई है।

कृष्ण कह रहे हैं —
बाहर से तुम कर्म करते दिखो, पर भीतर कोई ‘कर्ता’ न बचे। जब भीतर ‘मैं करता हूँ’ का भाव मिट गया, तब कर्म रह गया, पर ‘कर्म करने वाला’ नहीं रहा। और तभी कर्म पवित्र हो जाता है, क्योंकि अब उसमें अहंकार की गंध नहीं।

5. अहंकार का अंत ही मुक्ति की शुरुआत

जब तक ‘मैं’ है, तब तक अपेक्षा है। ‘मैं’ करता हूँ — इसलिए चाहता हूँ कि फल भी मेरा हो। पर जैसे ही तुम देखते हो कि ‘कर्ता’ भी एक भ्रम है — कर्म तो हो रहे हैं, तुम केवल साक्षी हो — वहां फल की इच्छा स्वाभाविक रूप से गिर जाती है।

ओशो कहते हैं —
“तुम पंखे की तरह हो — बिजली प्रवाहित होती है, और पंखा घूमता है। पंखा कहे, ‘मैं घूम रहा हूँ’ — यह अज्ञान है। पंखा कहे, ‘मैं नहीं, बिजली कर रही है’ — यह ज्ञान है।” जब यह बोध होता है कि जीवन तुम्हारे माध्यम से बह रहा है, तुम नहीं कर रहे — तब कर्म होता है, पर अहंकार नहीं होता।

6. निष्प्रयोजन कर्म — खेल और अभिनय का अर्थ

ओशो कहते हैं —
“जब फल की इच्छा समाप्त हो जाती है, तब कर्म निष्प्रयोजन हो जाता है।” अब तुम कुछ करते हो, क्योंकि करना तुम्हारे स्वभाव में है। जैसे फूल खिलता है, जैसे नदी बहती है, जैसे पक्षी गाता है। कभी किसी फूल ने यह सोचा है कि ‘मुझे खिलने का क्या लाभ है?’ कभी नदी ने पूछा है कि ‘मुझे बहने का क्या परिणाम मिलेगा?’ वे बस अपने स्वरूप में जी रहे हैं।

इसीलिए ओशो कहते हैं —
“निष्प्रयोजन कर्म वही है जो खेल की तरह घटता है।” बच्चा खेलता है — ना उसे लाभ चाहिए, ना कोई पुरस्कार। वह इसलिए खेल रहा है क्योंकि उसके भीतर ऊर्जा है। वह जीवन को व्यक्त कर रहा है। ऐसा ही कर्म, जब आत्मा से उठता है — वह ‘अभिनय’ बन जाता है।

कृष्ण कहते हैं —
“मैं युद्ध के मैदान में हूँ, पर भीतर मौन हूँ। मैं अभिनय कर रहा हूँ — यह युद्ध भी लीला है।”

7. गीता भारत के जीवन में क्यों नहीं उतरी

ओशो बड़ी करुणा से कहते हैं —
“गीता को हमने पूजा, पर अपनाया नहीं।” क्यों? क्योंकि गीता का सार अनुभव पर आधारित है, और हमने उसे श्रद्धा पर बना दिया। हमने गीता को मंदिर में रख दिया, और जीवन से अलग कर दिया। हमने उसके शब्द याद किए, पर आत्मा को नहीं जिया। गीता कहती है — “जियो, लेकिन जागकर।” भारत ने किया — “सोकर जियो।” हमने गीता को शास्त्र बना दिया, जबकि कृष्ण ने उसे जीवन की विद्या कहा था।

8. गीता का सच्चा साधक कौन है?

गीता का सच्चा साधक वह है —
जो हर क्षण जीवन को ध्यानपूर्वक जीता है। जो हर कर्म में खेल देखता है। जो काम करता है, पर भीतर विश्राम में है। जो संघर्ष करता है, पर भीतर मौन है।

ओशो कहते हैं —
“गीता का संदेश यह नहीं कि तुम युद्ध छोड़ दो, बल्कि यह कि युद्ध के बीच भी ध्यान में रहो।” संघर्ष जीवन का हिस्सा है। तुम उसे टाल नहीं सकते। लेकिन तुम भीतर साक्षी बने रह सकते हो — तब युद्ध भी ध्यान बन जाता है, और कर्म भी पूजा बन जाता है।

9. ध्यान की दिशा — फल से वर्तमान की ओर

निष्काम कर्म का अर्थ है —
भविष्य से हटकर वर्तमान में जीना। फल हमेशा भविष्य में है। कर्म हमेशा वर्तमान में होता है। जो भविष्य में जीता है, वह कर्म नहीं कर रहा — वह योजना बना रहा है। जो वर्तमान में जीता है, वही कर्म कर रहा है।

ओशो कहते हैं —
“जब तुम वर्तमान में पूरी तरह डूब जाते हो, तो फल की आकांक्षा अपने आप विलीन हो जाती है। तुम बस करते हो — जैसे नृत्य होता है।”

नर्तक जब सचमुच नाचता है, वह यह नहीं सोचता कि लोग क्या कहेंगे, या उसे कितनी प्रशंसा मिलेगी। वह नाचता है क्योंकि उसके भीतर नृत्य फूट रहा है। वह स्वयं नृत्य बन जाता है। और वही कर्म का परम रूप है।

10. कर्म से कर्म का अतिक्रमण

गीता का संदेश कर्म छोड़ने का नहीं है, बल्कि कर्म के अतिक्रमण का है। अतिक्रमण का अर्थ है —  कर्म करते हुए भी भीतर स्थिर रहना। जैसे झील में कमल खिला हो — चारों ओर जल है, पर कमल भिगता नहीं। संन्यासी वह नहीं जो कर्म से भाग जाए, बल्कि वह जो कर्म में रहकर भी ‘अकर्म’ को जान ले। जो करता हुआ भी अकर्ता बना रहे।

11. निष्कर्ष: जब जीवन खेल बन जाता है

जब आत्मा जाग जाती है, तो कर्म पूजा बन जाता है, हर दिन उत्सव बन जाता है। अब कोई लक्ष्य नहीं, कोई अपेक्षा नहीं, केवल अस्तित्व की धुन है।

ओशो कहते हैं — “जब तुम जानते हो कि कुछ भी स्थायी नहीं, तो जीवन केवल खेल है — आओ, खेलो, और मुस्कराते हुए चले जाओ।”

यही गीता का सार है। कर्म करो, पर खेल की भांति। फल की इच्छा मत करो, क्योंकि फल कभी अंतिम नहीं। आत्मा ही अंतिम है। जब आत्मा मिल गई, तब सारा जीवन अभिनय बन गया — और अभिनेता को अब कोई बंधन नहीं।

🌺 अंतिम वचन

गीता को समझना नहीं, उसे जीना है। जब तुम भीतर से अनुभव करते हो कि कर्म तो बह रहा है, तुम केवल साक्षी हो — तब तुम कृष्ण हो। और तब, हर कर्म नृत्य है, हर दिन उत्सव है, हर क्षण ईश्वर की लीला है।

कोई टिप्पणी नहीं:

Blogger द्वारा संचालित.