"जो आदमी प्रेम को समझ लेगा, वह परमात्मा को समझने की फिक्र ही छोड़ देगा"
🌺 जो प्रेम को समझ ले, वह परमात्मा की फिक्र छोड़ देता है
प्रिय आत्मन,
आज हम एक अत्यंत सूक्ष्म, एक अत्यंत रहस्यमय सत्य की बात करने जा रहे हैं।
बात बड़ी सीधी है, लेकिन जो इसे जान ले, उसका समस्त जीवन उलट जाता है।
वह न धर्मशास्त्रों की शरण में जाता है, न योग की क्रियाओं में, न किसी पूजा-पाठ के विधान में।
वह सिर्फ प्रेम में उतर जाता है — और प्रेम ही उसका धर्म बन जाता है,
प्रेम ही उसका ध्यान बन जाता है,
प्रेम ही उसका परमात्मा हो जाता है।
☀️ प्रेम क्या है?
तुमने कई बार प्रेम शब्द सुना है।
तुम बोलते हो — “मैं तुमसे प्रेम करता हूँ।”
तुम कहते हो — “मुझे प्रेम चाहिए।”
लेकिन क्या तुमने कभी यह देखा है कि यह प्रेम क्या होता है?
प्रेम कोई संबंध नहीं है — वह एक गतिक्रिया है।
प्रेम कोई घटना नहीं है — वह एक अंतहीन बहाव है।
प्रेम कोई वस्तु नहीं — वह तो एक दिशा है, एक अनुभव है, एक ऊँचाई है।
प्रेम तब घटता है जब तुम स्वयं को भूल जाते हो।
तुम्हारा ‘मैं’ जब पिघल जाता है,
तुम्हारी सीमाएँ जब झरने लगती हैं,
और तुम केवल होने लगते हो —
न कुछ माँगनेवाले, न कुछ थामनेवाले —
तब प्रेम का पहला फूल खिलता है।
🌸 प्रेम कोई साधन नहीं — वही परम लक्ष्य है।
लोग पूछते हैं — “प्रेम क्यों करें?”
“क्या प्रेम से मोक्ष मिलेगा?”
“क्या प्रेम से परमात्मा को जाना जा सकता है?”
मैं कहता हूँ —
प्रेम से कुछ नहीं मिलेगा, क्योंकि प्रेम स्वयं सब कुछ है।
प्रेम करो — कुछ पाने के लिए नहीं,
प्रेम करो — प्रेम करने के लिए।
जब तुम बिना कारण के,
बिना अपेक्षा के,
बिना शर्त के प्रेम करने लगते हो —
तब प्रेम अपने शुद्धतम रूप में प्रकट होता है।
वहां किसी देवता की आवश्यकता नहीं, किसी स्वर्ग की लालसा नहीं,
किसी उद्धार की चिंता नहीं।
🔥 प्रेम में परमात्मा जल जाता है।
यह बात गहरी है।
जिसने प्रेम को जान लिया, उसके लिए “परमात्मा” एक शब्द बनकर रह जाता है।
उसके जीवन में जो अनुभूति होती है, वह इतनी सघन होती है,
इतनी निकट, इतनी स्पंदित,
कि कोई “परम लक्ष्य” शेष ही नहीं रहता।
प्रेम ही परमात्मा है।
और यह कोई कवितामयी कथन नहीं है —
यह तो अनुभव है।
तुम मंदिर में जाओ, मस्जिद में जाओ, गिरिजाघर में जाओ —
वहां तुम ईश्वर की कल्पना पाते हो।
पर जब तुम प्रेम में होते हो —
वहां तुम ईश्वर को घटना के रूप में अनुभव करते हो।
🕊️ जो प्रेम में डूब गया, वह खोजता नहीं — वह हो जाता है।
ध्यान से सुनो —
खोज वहीं होती है जहाँ कोई अभाव है।
जहाँ पूर्णता है वहाँ खोज नहीं, वहाँ विश्राम होता है।
और प्रेम वही विश्राम है।
जब तुम प्रेम में होते हो,
तब तुम किसी मंज़िल की ओर नहीं भाग रहे होते —
तब तुम जीवन के साथ बह रहे होते हो।
उस बहाव में न दिशा होती है, न गंतव्य —
बस गति होती है, लय होती है, मौन होता है।
🌿 प्रेम, ध्यान और परमात्मा — एक ही वृत्त के तीन बिंदु हैं।
तुम ध्यान करते हो — ताकि चित्त शांत हो,
चित्त शांत होता है — तो प्रेम प्रकट होता है,
प्रेम प्रकट होता है — तो परमात्मा घटता है।
पर जो सीधे प्रेम में कूद गया,
उसने ध्यान को साधन नहीं बनाया —
उसने लक्ष्य को जी लिया।
ध्यान कठिन है,
योग मार्ग थका देता है,
तपस्या में सूखा है,
पर प्रेम में रस है —
प्रेम में झरना है, गंध है, स्वर है, सौंदर्य है।
🌕 प्रेम कोई भावुकता नहीं है।
लोग समझते हैं प्रेम रोने-धोने की चीज़ है,
या रोमांस है, या किसी शरीर का आकर्षण।
ये सब प्रेम की परछाइयाँ हैं।
ये सब प्रेम के द्वार पर खड़े भिखारी हैं — भीतर की दीक्षा से वंचित।
प्रेम भीतर उठता है।
जब तुम अपने ही भीतर इतने सुंदर हो जाते हो कि तुम उससे विभोर हो जाते हो,
जब तुम अपनी आत्मा से इस तरह मिल जाते हो जैसे दो नदी के किनारे एक हो जाएं —
तब तुम प्रेम हो जाते हो।
🔮 प्रेम कोई क्रिया नहीं — प्रेम तुम्हारा स्वभाव है।
बिलकुल वैसे ही जैसे अग्नि का स्वभाव है जलना,
जल का स्वभाव है बहना,
आकाश का स्वभाव है विस्तार —
तुम्हारा स्वभाव है प्रेम।
लेकिन यह स्वभाव ढका है —
संस्कारों से, भय से, अहंकार से, लोभ से,
और सबसे बढ़कर — धार्मिकता के दिखावे से।
जो प्रेमी है, वह धर्मात्मा है —
पर जो सिर्फ धर्मात्मा बनने की कोशिश कर रहा है,
वह प्रेम से कोसों दूर है।
🐚 क्यों परमात्मा की फिक्र छोड़ देता है प्रेमी?
क्योंकि प्रेम में जो अनुभव होता है,
वह इतना भरपूर है, इतना तीव्र है,
कि कोई “ईश्वर” की बात वहाँ बेमानी लगती है।
प्रेम में परमात्मा “अलग से” नहीं होता —
वही तुम्हारे भीतर हँस रहा होता है, वही चुप है, वही रो रहा है।
फिर तुम पूछ नहीं सकते —
“परमात्मा कहाँ है?”
क्योंकि तब तुम हो ही परमात्मा जाते हो।
🌌 कबीर ने कहा —
“प्रेम गली अति सांकरी, तामें दो न समाय।
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाय।”
कबीर को ईश्वर की फिक्र थी,
जब तक वह स्वयं था।
जब वह प्रेम में डूबा,
तो उसका "मैं" विलीन हो गया —
और वही क्षण था जब हरि घटा।
🌻 तो क्या करें?
कुछ मत करो।
प्रेम करो।
अपने भीतर प्रेम उपजाओ —
सिर्फ दूसरों के लिए नहीं,
अपने लिए भी।
हर प्राणी में परमात्मा की झलक देखो —
फूलों में, पक्षियों में, बच्चों में, बूढ़ों में, पत्थरों में —
हर रूप में, हर रंग में, हर गंध में।
ध्यान रखना,
प्रेम जब गहराता है तो ईश्वर सतह पर आ जाता है।
ईश्वर को मत खोजो —
प्रेम को खोजो।
ईश्वर तुम्हारे पीछे-पीछे चला आएगा।
🌈 प्रवचन का अंतिम सूत्र
"प्रेम में जो समर्पित है, वही जानता है कि परमात्मा कोई लक्ष्य नहीं — वह तो प्रेम की आँखों से देखा गया प्रतिविंब है।"
जो प्रेम करता है,
वह पूछता नहीं — “परमात्मा है या नहीं?”
वह हँसता है —
क्योंकि हर धड़कन में वह उसे सुनता है,
हर स्पर्श में वह उसे महसूस करता है,
हर मौन में वह उसे पाता है।
ओम् प्रेमाय नमः।
ओम् सत्यम्, शिवम्, सुंदरम्।
❓ FAQs – प्रेम और परमात्मा की समझ
Q1. इस विचार का मुख्य संदेश क्या है?
उत्तर: इसका संदेश है कि सच्चा प्रेम ही परमात्मा की अनुभूति है। जो व्यक्ति प्रेम को पूरी गहराई से समझ लेता है, उसे परमात्मा को खोजने की जरूरत नहीं रहती — वह प्रेम में ही ईश्वर को पा लेता है।
Q2. क्या प्रेम ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग हो सकता है?
उत्तर: हाँ, प्रेम सबसे शुद्ध और सरल मार्ग है जो आत्मा को ईश्वर से जोड़ता है। जब प्रेम निस्वार्थ, निर्मल और गहरा होता है, तो वही ईश्वर का अनुभव बन जाता है।
Q3. प्रेम को समझने का क्या अर्थ है?
उत्तर: प्रेम को समझना मतलब उसे केवल भावना या रोमांस के रूप में नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक अनुभव के रूप में जीना। जिसमें अहंकार, स्वार्थ और अपेक्षा नहीं होती।
Q4. क्या प्रेम और भक्ति में कोई अंतर है?
उत्तर: प्रेम और भक्ति दोनों आत्मा से जुड़ने के साधन हैं। भक्ति में समर्पण होता है, और सच्चे प्रेम में भी। अंतर बस यह है कि भक्ति ईश्वर की ओर होती है, जबकि प्रेम जीवन के हर जीव में ईश्वर को देखने की कला है।
Q5. जब प्रेम में ईश्वर का अनुभव होता है, तो साधना की आवश्यकता क्यों नहीं रहती?
उत्तर: जब प्रेम सच्चा होता है, तो वह स्वयं साधना बन जाता है। उसमें ध्यान, त्याग और समर्पण स्वाभाविक रूप से आ जाते हैं, जिससे व्यक्ति अलग से ईश्वर को पाने की चिंता छोड़ देता है।
Q6. क्या यह विचार किसी विशेष धर्म से जुड़ा है?
उत्तर: नहीं, यह विचार सार्वभौमिक है। हर धर्म ने प्रेम को सर्वोच्च मूल्य माना है — चाहे वह सूफी परंपरा हो, भक्ति योग, या ईसाई धर्म में ईश्वर का प्रेम। यह विचार मानवता से जुड़ा हुआ है, धर्म से नहीं।
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