"अहिंसक का ना कोई मित्र है, ना शत्रु। अहिंसक अकेला जीता है, दूसरे से उसका कोई संबंध ना रहा!"
"अहिंसा का मौन — न मित्र, न शत्रु, बस मौन!"
भगवन, आपने कहा है: “अहिंसक का ना कोई मित्र है, ना शत्रु। अहिंसक अकेला जीता है, दूसरे से उसका कोई संबंध ना रहा!” — इसका क्या अर्थ है?
सुनो, बहुत ध्यान से सुनो।
अहिंसक कोई आचार नहीं है, कोई नैतिक शिक्षा नहीं है, कोई नियम नहीं है कि जिसे किताबों में पढ़ लिया जाए, और रोज़ सुबह-शाम जाप की तरह दोहरा लिया जाए।
अहिंसा एक मौन है, एक ऐसी स्थिति है जहां तुम हो, और बाकी कुछ नहीं — न कोई मित्र, न कोई शत्रु। तुम हो, पर तुम किसी के विरोध में नहीं हो। और जब विरोध समाप्त हो जाता है, तो समर्थन भी व्यर्थ हो जाता है। जिस दिन तुमने लड़ना छोड़ दिया, उसी दिन जीतने का लोभ भी उड़नछू हो जाता है।
और यही है — अहिंसक की दुनिया।
1. मित्रता और शत्रुता — दो ही पहलू हैं एक ही सिक्के के
अहिंसक का कोई मित्र नहीं होता, क्योंकि मित्रता भी एक सूक्ष्म हिंसा है। मित्रता का मतलब है कि तुम किसी को खास मानते हो — और जब तुम किसी को खास मानते हो, तो बाकी दुनिया अपने-आप आम हो जाती है।
तुम कहते हो, "यह मेरा दोस्त है," तो इसका अर्थ क्या हुआ? बाकी सभी दोस्त नहीं हैं। और 'दोस्त नहीं' का दूसरा नाम 'शत्रु' है।
अहिंसा का अर्थ है — तुम किसी को खांचे में नहीं डालते। न किसी को ऊंचा, न नीचा। तुम किसी को पकड़ते नहीं। न प्रेम में, न द्वेष में।
2. अहिंसा का आदमी मुक्त होता है संबंधों के जाल से
सुनो, अहिंसक आदमी कोई क्रांतिकारी नहीं है — वह क्रांति से परे है।
वह किसी 'समाज को बदलने' के चक्कर में नहीं है, वह तो खुद को ही इतने बारीकी से देख रहा है कि उसके भीतर के संबंधों के जाले एक-एक कर के टूटते जाते हैं।
तुमने कभी मकड़ी को जाला बुनते देखा है?
बहुत सूक्ष्म, बहुत सुंदर — लेकिन पकड़ने के लिए।
तुम्हारे सारे संबंध वैसे ही जाले हैं — सुंदर, कोमल, लेकिन भीतर भीतर छल।
अहिंसक अपने भीतर जाले नहीं बुनता।
वह किसी को पकड़ता नहीं, इसलिए किसी से छूटने का भी कोई सवाल नहीं।
3. अकेलेपन से नहीं, अकेलेपन की शुद्धता से जन्मी है अहिंसा
लोग सोचते हैं, "अहिंसा" मतलब किसी को पीटना नहीं, किसी को गाली देना नहीं।
नहीं! यह तो बहुत सतही समझ है।
अहिंसा का जन्म होता है उस व्यक्ति में, जो अकेले जीने को तैयार है।
जिसने अकेलेपन की पीड़ा को मौन की माधुरी में बदल लिया है। जो किसी से भी dependent नहीं है — न प्रेम के लिए, न समर्थन के लिए, न सहारा पाने के लिए।
उसने कहा: “मुझे कोई मित्र नहीं चाहिए, क्योंकि मैं अपने भीतर पूरे ब्रह्मांड के साथ हूं।”
4. मित्रता भी एक हिंसा है अगर वह तुम्हारे मौन को छीन ले
ध्यान देना — जो तुम्हारे भीतर के मौन को छीन ले, वह मित्र नहीं हो सकता। और जो तुम्हारे मौन को तोड़ने में सहयोग करे, वह शत्रु भी नहीं।
इसलिए अहिंसक के लिए "मित्र" और "शत्रु" दोनों अर्थहीन हो जाते हैं।
वह तो बस देखता है, और मुस्कराता है। जैसे फूल देखता है कांटे को, पर विरोध नहीं करता।
जैसे आकाश देखता है तूफान को — न डरता है, न लड़ता है। न मित्र बनाता है, न शत्रु।
5. एक कहानी: कबीर और भिक्षु
कबीर के पास एक भिक्षु आया।
वह बोला: “मैं अहिंसा का मार्ग अपनाना चाहता हूं। क्या करूं?”
कबीर ने कहा: “पहले ये बताओ — तुम्हारा सबसे प्रिय कौन है?”
भिक्षु बोला: “मेरा गुरुभाई। उसने मुझे बहुत सहारा दिया है।”
कबीर हँसे और बोले: “जब तक तुम्हारा प्रिय है, तब तक तुम्हारा अप्रिय भी होगा। और जब तक ये दोनों हैं, तुम अहिंसक नहीं हो सकते।”
भिक्षु चौंका। बोला: “तो क्या मैं संबंध छोड़ दूं?”
कबीर ने कहा: “नहीं, छोड़ना भी हिंसा है। बस देखो — संबंध अपने-आप गिर जाएंगे।”
6. ध्यान से उपजी अहिंसा में कोई "दूसरा" नहीं बचता
"अहिंसक अकेला जीता है" — इस वाक्य का अर्थ यह नहीं कि वह समाज से भाग गया, वह किसी गुफा में छिप गया।
नहीं, वह बाजार में है — पर भीतर से मौन है।
वह तुम्हारे बीच है, लेकिन तुम उसमें प्रवेश नहीं कर सकते। क्योंकि उसने द्वार बंद नहीं किए, बल्कि तुम्हारे लिए द्वार की ज़रूरत ही नहीं छोड़ी।
तुम हो ही नहीं उसके लिए!
"दूसरे" का अस्तित्व ही नहीं बचा।
7. तो क्या अहिंसक व्यक्ति निष्ठुर हो जाता है?
बहुत अच्छा सवाल।
जो व्यक्ति शत्रु नहीं मानता, वह मित्र भी नहीं मानता — तो क्या उसमें प्रेम नहीं बचता?
नहीं। अहिंसक के भीतर प्रेम का झरना बहता है — लेकिन वह किसी पर केंद्रित नहीं होता।
वह तुमसे प्रेम करेगा, लेकिन इस भाव से नहीं कि “तुम मेरे हो” — बल्कि इस भाव से कि “मैं प्रेम हूं।”
जैसे सूरज सब पर प्रकाश फैलाता है — न मित्र, न शत्रु — बस प्रकाश ही प्रकाश।
8. यह स्थिति कठिन है, लेकिन परम है
शुरुआत में यह कठिन लगेगा — मित्रों का साथ छोड़ना, संबंधों से हटना — यह एकांत नहीं, अकेलापन जैसा लगेगा।
लेकिन ध्यान के साथ — यह अकेलापन एकांत में बदल जाता है।
और वहीं से शुरू होती है अहिंसा।
9. अहिंसा एक क्रांति नहीं, समाधि है
महात्मा गांधी की अहिंसा राजनीति की अहिंसा थी — उपयोग की अहिंसा थी। "अगर आप हिंसा करेंगे तो हमें चोट पहुंचेगी" — यह अहिंसा नहीं, यह डर है।
ओशो कहते हैं: अहिंसा कोई तरीका नहीं है, यह एक अंतर्निहित समझ है।
जो समझ गया कि कोई भी दूसरा वास्तव में अस्तित्व में नहीं है — वही अहिंसा को जानता है।
10. अंतिम सूत्र: मौन ही अंतिम अहिंसा है
अहिंसक व्यक्ति न बोलता है — न मौन थोपता है। वह केवल होता है।
उसका होना ही प्रेम है, उसकी उपस्थिति ही ध्यान है।
तुम उसके पास बैठो तो तुम पाओगे — जैसे किसी मंदिर में बैठे हो, जैसे तुम्हारी सारी हिंसाएं पिघल रही हों।
निष्कर्ष
अहिंसक का कोई मित्र नहीं है, क्योंकि उसे मित्र की ज़रूरत नहीं है।
अहिंसक का कोई शत्रु नहीं है, क्योंकि उसे लड़ने को कुछ भी नहीं बचा है।
अहिंसक अकेला है — लेकिन यह अकेलापन भी परमात्मा के साथ है।
यह मौन है, यह निर्विचार स्थिति है — यह वही अवस्था है जिसे बौद्ध कहते हैं: निरोध।
जिसमें सब संबंध ढह गए — और बच गया केवल 'मैं', जो अब 'मैं' भी नहीं रहा।
🌿 अब तुम्हारा काम यह है...
इस वाक्य को सोचना नहीं, जीना है।
अगली बार जब तुम किसी से 'मित्रता' करोगे — तो देखना, उसके पीछे कोई आग्रह तो नहीं?
जब तुम किसी से नाराज़ होओगे — तो पूछना खुद से, “क्या मैं अपने ही भीतर की हिंसा का प्रोजेक्शन कर रहा हूं?”
और अगर तुम ध्यान से जियोगे, तो देखोगे — एक दिन भीतर से कुछ गिर गया है।
न मित्र बचा, न शत्रु।
केवल मौन।
केवल आकाश।
केवल अहिंसा।
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