"प्रेम का ताल्लुक तो दिलों से है और शादी का सुविधाओं से; या तो तुम प्रेम चुन लो या सुविधाएं—दोनों एक साथ मिलना बेहद मुश्किल है।"
— ओशो
भूमिका
मनुष्य के जीवन में दो चीज़ें हमेशा टकराती रही हैं—प्रेम और सुविधा।
एक तरफ़ दिल की आवाज़ है—जो अंधी है, जो पागल है, जो बिना वजह कूद पड़ती है। और दूसरी तरफ़ समाज की बनाई हुई व्यवस्था है—शादी, संस्था, बीमा, फ्रीज, वॉशिंग मशीन, जॉइंट बैंक अकाउंट, नाम की प्लेट, और बच्चों के लिए स्कूल की चिंता।
प्रेम और शादी एक ही सिक्के के दो पहलू नहीं हैं, जैसा कि सदियों से तुमसे कहा गया है।
नहीं!
प्रेम और शादी दो विपरीत दिशाओं में दौड़ते हुए दो घोड़े हैं। अगर तुम दोनों पर सवारी करना चाहो, तो तुम्हारी टांगें बीच में फट जाएंगी।
प्रेम का स्वभाव: जंगली फूल की तरह
प्रेम... वह कोई परियोजना नहीं है। वह कोई योजना नहीं है।
वह अचानक घटता है — जैसे जंगल में कोई जंगली फूल अचानक खिला हो।
उसकी कोई तैयारी नहीं होती।
कोई पूर्वघोषणा नहीं होती।
प्रेम, तर्क नहीं पूछता, हिसाब नहीं लगाता, और भविष्य की बीमा पॉलिसी नहीं भरता।
वह बस घटता है — अभी और यहीं।
वह कहता है, “तुम हो — और बस, मेरे लिए सब कुछ है।”
प्रेम मांगता है समर्पण।
और समर्पण का मतलब है — "मैं तुम्हें पकड़ना नहीं चाहता, बस जी लेना चाहता हूँ तुम्हारे साथ कुछ पल।"
शादी का स्वभाव: बीमा एजेंट की तरह
अब आओ शादी की तरफ़।
शादी प्रेम नहीं है, शादी एक कानूनी समझौता है।
जैसे दुकान चलाने के लिए दो साझेदार कॉन्ट्रैक्ट साइन करते हैं, वैसे ही शादी भी एक कॉन्ट्रैक्ट है।
नाम बदले जाते हैं, पते बदले जाते हैं, अकाउंट जॉइंट होते हैं, जिम्मेदारियाँ बांटी जाती हैं।
ये सब प्रेम नहीं है। ये सब सुविधाएं हैं।
शादी कहती है — "क्या तुम्हारे पास स्थायी नौकरी है? तुम्हारे पास घर है? तुम बच्चों को पाल सकते हो?"
प्रेम पूछता है — "क्या तुम्हारे पास दिल है?"
शादी पूछती है — "तुम 60 साल बाद पेंशन में कितना पाओगे?"
प्रेम कहता है — "अभी, इस क्षण, मैं तुम्हारी आंखों में डूब जाना चाहता हूँ।"
दोनों साथ क्यों नहीं?
अब तुम्हारा सवाल होगा — क्या प्रेम और शादी साथ नहीं चल सकते?
सिद्धांततः चल सकते हैं। व्यवहार में नहीं।
जैसे शेर और बकरी एक साथ पिंजरे में रह सकते हैं — अगर शेर मांस खाना छोड़ दे।
लेकिन शेर शेर है।
और प्रेम भी प्रेम है — वह किसी भी व्यवस्था को स्वीकार नहीं करता।
उसे किसी कानूनी प्रमाण की ज़रूरत नहीं।
उसे किसी गवाह की ज़रूरत नहीं।
उसे मंडप, फेरे, माला, कागज़ात, मेहमान, भोज, हल्दी, संगीत — इन तमाम शादी के ड्रामों की ज़रूरत नहीं।
शादी कहती है — “हमेशा के लिए।”
प्रेम कहता है — “जब तक यह क्षण जीवित है।”
प्रेम के लिए साहस चाहिए
ध्यान रखना — प्रेम कमज़ोरों का रास्ता नहीं है।
प्रेम बहुत साहस मांगता है।
क्योंकि प्रेम का कोई भविष्य नहीं होता — वह वर्तमान में जीता है।
और आदमी डरता है — बिना भविष्य के कैसे जीए?
इसलिए वह शादी का सहारा लेता है — ताकि बीमा हो जाए।
तुम प्रेम करते हो किसी लड़की से, लेकिन शादी करते हो उसकी बहन से — क्योंकि वो सरकारी अफसर है।
प्रेम से नहीं, डर से शादी करते हो — समाज क्या कहेगा?
तुम्हारे मन में कोई सपना था — प्रेम का, लेकिन तुमने सौदा कर लिया।
क्योंकि AC कमरे चाहिए थे, कार चाहिए थी, दहेज चाहिए था।
और फिर रोते हो — "प्रेम चला गया..."
वो प्रेम नहीं गया, तुमने उसे मार डाला।
समाज की साजिश: विवाह बनाम प्रेम
समाज हमेशा प्रेम से डरता है।
क्यों?
क्योंकि प्रेम तुम्हें आजाद करता है।
और समाज चाहता है — तुम गुलाम रहो।
शादी एक कंडीशनिंग टूल है।
तुम्हें फ्रेम में फिट करने का यंत्र।
प्रेम कहता है — “मैं तुम्हें बदलना नहीं चाहता।”
शादी कहती है — “अब तुम मेरे हिसाब से चलोगे।”
इसलिए समाज ने विवाह को गढ़ा — ताकि तुम्हारे प्रेम को नियंत्रण में लाया जा सके।
सुविधा से प्रेम का गला घुटता है
तुम प्रेम को लेकर घर लाते हो — लेकिन फिर उसे सुविधाओं के गहनों से लाद देते हो।
TV, EMI, गद्देदार बेड, माइक्रोवेव, बर्तन धोने की मशीन, और बच्चों की ट्यूशन।
और धीरे-धीरे प्रेम दम तोड़ देता है।
उसके लिए खुला आकाश चाहिए था — तुमने उसे रसोई में बंद कर दिया।
उसके लिए जंगल की आज़ादी चाहिए थी — तुमने उसे लॉन की घास में बांध दिया।
और फिर शिकायत करते हो — “अब पहले जैसा प्रेम नहीं रहा।”
कैसे रहेगा?
प्रेम को सांस लेने दो।
उसे नियंत्रित मत करो।
उसे मत कहो — “8 बजे ऑफिस जाना है, 6 बजे लौटना है, और रविवार को सासू माँ आ रही हैं।”
ध्यान की दृष्टि से देखो
अगर तुम ध्यान से देखो — तो प्रेम ध्यान है।
प्रेम कोई क्रिया नहीं, एक दृष्टि है।
जिसमें तुम किसी को पूर्ण रूप से स्वीकार करते हो — जैसा वह है।
शादी में तुम बदलना शुरू करते हो — "तुम ऐसे क्यों खाते हो?"
"तुम्हारा हँसना मुझे बचकाना लगता है।"
"तुम मेरी माँ की तरह क्यों नहीं हो?"
प्रेम कहता है — “तुम जैसे हो, वैसे ही मुझे प्रिय हो।”
शादी कहती है — “तुम्हें मेरे मापदंडों के अनुसार बनना होगा।”
तो क्या शादी गलत है?
नहीं, शादी गलत नहीं है — अगर उसमें प्रेम हो।
लेकिन समस्या यह है कि अधिकतर शादियाँ प्रेम पर नहीं, डर पर आधारित होती हैं।
डर — अकेले रह जाने का।
डर — समाज की निंदा का।
डर — भविष्य की अनिश्चितता का।
अगर तुम शादी करो प्रेम से — बिना किसी अपेक्षा, बिना किसी मांग के —
तो वह शादी नहीं, एक सत्संग बन जाती है।
जहाँ दो आत्माएँ मिलती हैं — ताकि वे ध्यान की दिशा में बढ़ें।
समाधान क्या है?
पहले प्रेम में समर्पित हो जाओ।
सुविधाएं बाद में आ जाएंगी।
लेकिन तुम उल्टा करते हो —
पहले कार, घर, जॉब, जाति, गोत्र, कुंडली — सब जांच लेते हो,
फिर प्रेम की तलाश करते हो।
ये ठीक वैसा है — जैसे बीज को मिट्टी में बोने से पहले यह तय करना कि फल मीठा होगा या नहीं।
प्रेम बीज है — वह अपने साथ फल भी लाएगा, फूल भी।
लेकिन तुम अगर पहले फूलों की गारंटी मांगोगे — तो बीज कभी नहीं बो पाओगे।
आख़िरी बात
सुनो...
या तो प्रेम चुनो — जो तुम्हें हवा की तरह आज़ादी देगा।
या सुविधा चुनो — जो तुम्हें AC रूम में सुलाएगी, लेकिन सपनों के दरवाज़े बंद कर देगी।
दोनों साथ बहुत मुश्किल है — क्योंकि एक उड़ान है और एक जंजीर।
तुम्हारे पास चुनाव है।
लेकिन याद रखो —
सुविधा तुम्हें सुरक्षित रखेगी,
प्रेम तुम्हें जीवित रखेगा।
और जीवन का अर्थ सुरक्षा नहीं, जीवंतता है।
ध्यान का निमंत्रण
अगर तुम्हारा प्रेम मर गया है — तो एक बार ध्यान से बैठो।
शांत हो जाओ।
अपने भीतर उतर जाओ।
पूछो —
"मैं क्या चाहता हूँ? प्रेम? या सुविधा?"
उत्तर भीतर से आएगा।
और जब वह आए — तो डरना मत।
बस उस उत्तर के साथ बह जाना।
शायद तुम अकेले रह जाओ।
लेकिन तुम सच्चे रहोगे।
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