मनुष्य झूठ जीता है।
यह शायद सबसे दुखद बात है — कि मनुष्य वही नहीं होता जो वह है। वह कुछ और बनने की कोशिश में अपना पूरा जीवन गंवा देता है। उसका सम्पूर्ण प्रयास इस बात पर केन्द्रित हो जाता है कि दुनिया उसे क्या समझे। वह यह भूल जाता है कि उसे स्वयं को क्या समझना है।
मनुष्य के जीवन की सबसे बड़ी पीड़ा यही है कि वह दो हिस्सों में बंट जाता है — एक जो वह भीतर से है, और दूसरा जो वह बाहर दिखाना चाहता है। और इस दो हिस्सों की खिंचतान में, उसके जीवन की समग्रता समाप्त हो जाती है। वह व्यक्ति कभी शांत नहीं हो सकता, कभी आनंदित नहीं हो सकता, क्योंकि वह भीतर कुछ और है और बाहर कुछ और दिखा रहा है। यह द्वैत, यह दोहरापन, यही नरक है।
दुनिया में जितना भी दुःख है, वह मनुष्य की इस छाया-जीवन से पैदा होता है — वास्तविकता के बजाय छवि को जीने से।
दिखावा — आत्मा का विरोध है
दिखावा आत्मा के विरुद्ध है। आत्मा पारदर्शी होती है, निर्विकार होती है। लेकिन दिखावे की दुनिया में आत्मा को भी ढक दिया जाता है। लोग मुस्कुराते हैं जब रोना होता है। लोग हाथ मिलाते हैं जब वे भीतर से घृणा कर रहे होते हैं। लोग प्रेम का अभिनय करते हैं जब उनके भीतर ईर्ष्या जल रही होती है।
ऐसा जीवन एक अभिनय बन जाता है — रंगमंच है, जीवन नहीं।
लेकिन यह अभिनय चलता है, क्योंकि समाज ने एक व्यवस्था बना ली है। इस व्यवस्था में तुम सच्चे रहो या न रहो, यह महत्व नहीं रखता; तुम सामाजिक कैसे हो, यह महत्व रखता है। तुम सभ्य कैसे दिखते हो, तुम मर्यादा में हो, तुम शिष्ट हो, तुम वह बोलते हो जो लोग सुनना चाहते हैं — यही सब मूल्यवान है।
सत्य से भय — क्यों?
मनुष्य सत्य से डरता है। वह सोचता है, "यदि मैंने अपनी सच्चाई प्रकट की, तो लोग मुझे स्वीकार नहीं करेंगे। लोग मुझे त्याग देंगे, आलोचना करेंगे, उपहास करेंगे।" इसलिए वह एक मुखौटा पहनता है।
हर व्यक्ति ने अनेक मुखौटे पहने हैं। सुबह एक, दोपहर में दूसरा, शाम को तीसरा, मंदिर में कोई और, दफ्तर में कोई और, पत्नी के साथ एक, मित्रों के साथ दूसरा। हर परिस्थिति के लिए एक अलग चेहरा।
और इस सब के नीचे, असली चेहरा खो गया है। धीरे-धीरे व्यक्ति स्वयं भूल जाता है कि उसका असली चेहरा कैसा था।
जो झूठ जीता है, वह थक जाता है
दिखावे का जीवन थका देता है। यह एक निरंतर संघर्ष है — खुद से भी, दुनिया से भी। क्योंकि तुम हर समय सजग हो कि तुम कुछ ऐसा न कह दो जिससे तुम्हारा वास्तविक चेहरा प्रकट हो जाए।
तुम हर समय चौकन्ने हो, तुम आराम नहीं कर सकते, तुम ढीले नहीं पड़ सकते। तुम हँस भी बनावट से हो, रो भी बनावट से हो। तुम्हारा जीवन एक अभिनय-शाला बन गया है।
और याद रखो, अभिनय करते-करते अभिनय तो कुशल होता जाता है, लेकिन आत्मा मरती जाती है। भीतर का संगीत मौन हो जाता है, भीतर की नदियाँ सूखने लगती हैं।
भीतर जो है, वही बाहर होना चाहिए — यही ध्यान है
ओशो कहते हैं — ध्यान का मूल यही है कि भीतर और बाहर में कोई भेद न रहे। तुम जैसे हो, वैसे ही दिखो। कुछ छुपाने को न बचे। कुछ ऐसा न बचे जो रात के अंधेरे में तो स्वीकार्य हो और दिन के उजाले में नहीं।
जो भीतर है, वही बाहर हो — यही संन्यास है, यही ध्यान है।
और यह केवल तभी संभव है जब तुम दिखावे की मूर्खता को पहचानो।
समाज का भय — और मुक्ति का उपाय
समाज का भय — यही वह ज़ंजीर है जो तुम्हें दिखावे में बाँधे हुए है। तुम सोचते हो, "दूसरे क्या कहेंगे?" और यही भय तुम्हारी आत्मा को कुचल देता है।
ओशो कहते हैं — जब तक तुम 'दूसरे' से डरते हो, तब तक तुम अपने नहीं हो सकते। जब तक तुम दूसरों की निगाह में सही दिखने की कोशिश करोगे, तब तक तुम अपने सत्य को खोते जाओगे।
मुक्ति का उपाय यह है कि तुम अपने को पहचानो — और जो हो, उसे स्वीकार करो। भले ही दुनिया अस्वीकार करे, हँसे, बुरा माने। तुम्हारा संबंध पहले अपने से हो, फिर दुनिया से।
प्रश्न उठता है — क्या सच जीना इतना कठिन है?
हाँ, शुरुआत में कठिन लगता है। क्योंकि तुमने वर्षों तक झूठ को जिया है। सच बोलना, सच जीना, सच दिखना — यह सब भूल चुके हो। इसलिए जब तुम सच बोलोगे, तो डर लगेगा। अकेलापन लगेगा। लोग छोड़ेंगे। लेकिन यही परीक्षा है।
ओशो कहते हैं — जब तुम अपने सत्य के साथ खड़े रह सकते हो, तब ही तुम्हें अपने भीतर का आकाश मिलेगा। तब ही वह प्रकाश फूटेगा, जो बुद्ध को मिला, जो महावीर को मिला, जो मीरा को मिला।
तुम जैसे हो, वैसे ही सुंदर हो
दिखावे की जड़ में यह भाव है कि "मैं जैसा हूँ, वैसा स्वीकार्य नहीं हूँ।" यह मूल में ही हिंसा है। तुम अपने अस्तित्व का अपमान कर रहे हो।
ओशो कहते हैं — तुम जैसे हो, वैसे ही अद्वितीय हो। परमात्मा ने तुम्हें जैसा बनाया है, उसमें कोई त्रुटि नहीं। त्रुटि तुम्हारे इस प्रयास में है कि तुम किसी और जैसे बनो।
दूसरों की नक़ल छोड़ो। तुम स्वयं एक मौलिक गीत हो। तुम्हारी अपनी धुन है, अपनी सुगंध है।
दिखावे से सत्य की यात्रा नहीं हो सकती
जो व्यक्ति दिखावा करता है, वह ध्यान की यात्रा नहीं कर सकता। क्योंकि ध्यान सत्य की भूमि पर ही खिलता है। और सत्य वही है जो है — जैसा तुम हो, वैसा ही।
झूठ की ज़मीन पर ध्यान एक पौधा भी नहीं उगा सकता।
इसलिए पहला कदम यही है — खुद को जानो। और जानकर स्वीकार करो। और फिर, जैसे हो, वैसे जीओ।
समापन:
ओशो कहते हैं —
"सच बोलने के लिए साहस चाहिए। सच जीने के लिए क्रांति चाहिए।
लेकिन जिसने यह साहस दिखाया, उसे साक्षात् परमात्मा मिल जाता है।"
दिखावे का जीवन त्याग दो। वह बोझ है। वह कैद है। वह मृत्यु है।
सत्य का जीवन अपनाओ — वह हल्का है, वह स्वतंत्रता है, वह जीवन है।
तुम्हारे भीतर का दीपक तभी जलता है जब तुम अपने सत्य को स्वीकार कर लेते हो — न तो उससे भागते हो, न उसे ढकते हो। वही क्षण होता है तुम्हारे पुनर्जन्म का।
ॐ शांति शांति शांति।
❓ FAQs - दिखावे का जीवन और उसकी सच्चाई
Q1. दिखावे का जीवन जीने से व्यक्ति को क्या नुकसान होता है?
उत्तर: दिखावे का जीवन व्यक्ति को मानसिक तनाव, आत्मग्लानि, और असुरक्षा की भावना से भर देता है। ऐसा व्यक्ति हमेशा इस चिंता में रहता है कि कहीं उसकी सच्चाई उजागर न हो जाए, जिससे वह भीतर से खोखला हो जाता है।
Q2. लोग दिखावा क्यों करते हैं, जब वे जानते हैं कि यह टिकाऊ नहीं है?
उत्तर: समाज में स्वीकृति, प्रतिष्ठा और दूसरों को प्रभावित करने की इच्छा के कारण लोग दिखावा करते हैं। वे अपनी कमजोरियों या असफलताओं को छुपाने के लिए झूठी छवि बनाते हैं।
Q3. क्या दिखावे का जीवन जीना एक प्रकार की आदत बन जाती है?
उत्तर: हाँ, समय के साथ यह आदत में बदल जाती है। जब व्यक्ति बार-बार अपने वास्तविक जीवन को छुपाकर एक नकली पहचान प्रस्तुत करता है, तो वह उस भ्रम में जीने लगता है और वास्तविकता से और अधिक दूर हो जाता है।
Q4. दिखावे से कैसे बचा जा सकता है और वास्तविक जीवन कैसे जिया जाए?
उत्तर: खुद को स्वीकारना, आत्मविश्वास विकसित करना, और अपनी सीमाओं को समझना बेहद जरूरी है। पारदर्शिता और आत्ममूल्यांकन के ज़रिए दिखावे से दूर रहकर एक संतुलित जीवन जीया जा सकता है।
Q5. क्या सोशल मीडिया दिखावे की प्रवृत्ति को बढ़ावा देता है?
उत्तर: बिल्कुल। सोशल मीडिया पर लोग अक्सर अपनी जिंदगी का केवल खूबसूरत पहलू दिखाते हैं, जिससे बाकी लोग यह मान बैठते हैं कि उनकी जिंदगी परिपूर्ण है, और इसी भ्रम में वे भी दिखावे की होड़ में लग जाते हैं।
Q6. दिखावे का जीवन पारिवारिक रिश्तों को कैसे प्रभावित करता है?
उत्तर: जब कोई व्यक्ति लगातार झूठी छवि बनाए रखता है, तो उसके करीबी रिश्तेदार और दोस्त उससे वास्तविक जुड़ाव महसूस नहीं कर पाते। इससे आपसी विश्वास कमजोर होता है और रिश्तों में दरारें आ सकती हैं।
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