“तुम ही भगवान हो, तुम ही भक्त हो, तुम ही पूजा हो, तुम ही पुजारी हो” – एक आत्म-खोज की अनंत यात्रा
जब हम अपने भीतर की ओर देखते हैं, तो अक्सर हम पाते हैं कि हमारी खोज का आरंभ और अंत वहीँ है। जीवन की व्यस्तताओं में हम मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च, और अन्य सभी पूजा स्थलों में भगवान की खोज में निकल पड़ते हैं। परंतु, इस खोज में हम एक अनंत भ्रम में फँस जाते हैं। ओशो कहते हैं कि जब तक तुम्हें यह स्मरण नहीं हो जाता कि तुम ही भगवान हो, तुम ही भक्त हो, तुम ही पूजा हो, और तुम ही पुजारी हो, तब तक तुम्हारा भटकना जारी रहेगा।
1. बाहरी पूजा और आंतरिक जागरण का अंतर
अक्सर हम यह सोचते हैं कि भगवान कहीं बाहर ही छिपा है। हमें सिखाया जाता है कि भगवान मंदिरों में हैं, गुरुओं के वचनों में हैं, और मंत्रों में छिपे हैं। लेकिन ओशो के शब्द हमें एक अद्भुत सत्य की ओर इशारा करते हैं – असली ईश्वर हमारे भीतर ही निहित है। बाहरी आडंबर, रीतिरिवाज, अनुष्ठान और पूजा-पाठ जब तक हमारे अंदर के मौन और सच्ची आत्म-जागरूकता में परिवर्तित नहीं होते, तब तक हमारी आध्यात्मिक यात्रा अधूरी रह जाती है।
यह समझना कि स्वयं ही भगवान हैं, एक क्रांतिकारी अनुभव है। जब हम यह पहचान लेते हैं कि हमारा आत्म-स्वरूप ही ब्रह्मांड का प्रतिबिम्ब है, तो हमें बाहरी पूजा के लिए किसी दूसरे साधन की आवश्यकता नहीं रहती। हमारे भीतर की चेतना ही हमारा परम मंदिर है।
2. एक कहानी – मंदिर से आत्मा तक का सफ़र
एक समय की बात है, एक व्यक्ति था जिसका नाम रमेश था। रमेश अपनी ज़िंदगी भगवान की खोज में लगा रहता था। वह सुबह जल्दी उठता, प्रार्थना करता, मंदिर, मस्जिद और चर्च में जाकर हर दिन एक नया अध्याय शुरू करता। उसकी ज़िंदगी का एकमात्र मकसद था – उस दिव्य रूप को पाना जिसे उसने कभी महसूस नहीं किया। वह कई तीर्थ यात्रा करता, कई संतों से मिलता, परंतु हर बार वह बाहरी पूजा के परदे में उलझा रहता था।
एक दिन रमेश को एक साधु मिले, जिनके पास एक अजीब सी मुस्कान थी। साधु ने रमेश से पूछा, “तुम इतना क्यों भटकते हो? क्या तुमने कभी अपने भीतर झाँका है?” रमेश ने हँसते हुए उत्तर दिया, “भीतर? भगवान तो बाहर ही हैं, मेरे भीतर तो सिर्फ डर और भ्रम है।” साधु ने कहा, “अच्छा, फिर बताओ, जब तुम मंदिर में जाते हो, तो क्या तुम भगवान को ढूँढते हो या खुद को ढूँढते हो?” रमेश को ये बात समझ में नहीं आई। साधु ने कहा, “जब तुम मंदिर में जाते हो, तो तुम खुद को खो देते हो, और भगवान तुम्हारे भीतर चुपचाप प्रतीक्षा करते हैं।”
रमेश की आंखें खुल गईं। उसे एहसास हुआ कि वह जिस ईश्वर की खोज कर रहा था, वह कहीं बाहर नहीं, बल्कि उसके अपने भीतर छिपा था। उस दिन से रमेश ने बाहरी पूजा की व्यस्तता छोड़कर अपने भीतर की यात्रा शुरू की। उसने ध्यान करना सीखा, मौन में बैठना सीखा, और धीरे-धीरे उसने पाया कि उसकी आत्मा ही उसका परम मंदिर है।
3. ध्यान – आत्मा का साक्षात्कार
ध्यान, मौन, और आत्म-जागरूकता की कला हमें यह सिखाती है कि हम अपने भीतर की दुनिया में कैसे प्रवेश करें। ध्यान का अभ्यास हमें बाहरी अशांति से दूर ले जाता है और एक शांत, अव्यक्त जागरूकता में परिवर्तित कर देता है। ओशो कहते हैं कि ध्यान कोई धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यह एक ऐसी अवस्था है जहाँ हम अपने भीतर की मौनता को महसूस कर सकते हैं।
जब तुम ध्यान में बैठते हो, तो तुम्हारे मन के तमाम भ्रम और आडंबर धीरे-धीरे गायब हो जाते हैं। तुम्हारा ध्यान केवल उस मौन पर केंद्रित होता है जो तुम्हारे भीतर विद्यमान है। इसी मौन में तुम्हें अपना वास्तविक स्वरूप दिखाई देता है। उस स्वरूप में कोई गुरू, कोई मंत्र, कोई पूजा नहीं होती – केवल तुम होते हो, और तुम ही सच्चे भगवान होते हो। ध्यान का यह अनुभव हमें बताता है कि असली भक्ति बाहरी अनुष्ठानों में नहीं, बल्कि आत्मा के साक्षात्कार में है।
4. बाहरी आडंबर और आंतरिक सच्चाई
आज के समाज में हम देखते हैं कि पूजा-पाठ, अनुष्ठान और धार्मिक समारोहों को अत्यधिक महत्त्व दिया जाता है। परंतु, इन बाहरी आडंबरों में हम अक्सर उस सच्चाई से दूर हो जाते हैं, जो हमारे भीतर निहित है। भगवान की खोज में हम मंदिरों, गुरुओं और संतों की ओर भागते हैं, परंतु असली ज्ञान हमें अपने भीतर ही प्राप्त होता है।
ओशो कहते हैं कि बाहरी सजावट और अनुष्ठान केवल एक आवरण हैं, एक दिखावा है। अगर हम अपने भीतर की गहराई में उतरें, तो हमें पता चलेगा कि ईश्वर की उपस्थिति हर क्षण हमारे साथ रहती है। वह किसी मंदिर की दीवारों में नहीं बंधी होती, न ही किसी मंत्र के शब्दों में सीमित होती है। वह तो अनंत है, अव्यक्त है, और केवल हमारे आत्म-साक्षात्कार से प्रकट होती है।
5. आत्म-जागरूकता की अनंत शक्ति
असली भक्ति तब होती है, जब हम यह समझ लेते हैं कि हमारी आत्मा ही हमारे अस्तित्व का आधार है। हम जितना बाहर की दुनिया में खोज करेंगे, उतना ही हमें भ्रम मिलेगा। बाहरी संसार में सब कुछ अस्थायी है, लेकिन हमारे भीतर की जागरूकता अमर है।
ओशो की वाणी हमें यह सिखाती है कि हम अपने भीतर की आवाज़ को सुनें, उस मौन में डूब जाएँ जहाँ कोई शब्द नहीं होते। आत्म-जागरूकता का यह क्षण ही हमें असली ज्ञान की ओर ले जाता है। जब हम अपने अंदर झाँकते हैं, तो हमें पता चलता है कि जो सब कुछ हम ढूँढते हैं, वह पहले से ही हमारे अंदर ही है। यह सत्य हमें बताता है कि हम स्वयं ही अपने स्वयंभू ईश्वर हैं।
6. व्यंग्य और हास्य – आध्यात्मिक ज्ञान की चाभी
ओशो की प्रवचन शैली में एक विशेष तत्व है – व्यंग्य और हास्य। वे अक्सर हमारे समाज की धार्मिक प्रथाओं का व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि हम इतनी बड़ी मेहनत करते हैं, परंतु असली खोज तो हमारी आत्मा में ही निहित है। जब हम अपनी गलत धारणाओं पर हँसते हैं, तो हमें एहसास होता है कि हमारी असली भटकन कहाँ से शुरू हुई।
सोचिए, एक व्यक्ति रोज मंदिर जाता है, घंटों पूजा करता है, और फिर भी उसे लगता है कि कहीं अंदर कुछ कमी है। यह उस अजीबोगरीब स्थिति से कम नहीं है जहाँ हम किसी जादुई बटन की खोज में लगे रहते हैं, जबकि वह बटन हमारे अपने जूते में ही चिपका होता है। यह व्यंग्य हमें यह समझाता है कि हमारी बाहरी पूजा के पीछे की लालच और भ्रम ही हमारी असली बधाई है। हमें अपने भीतर की आवाज़ सुननी होगी, अपने आप से संवाद करना होगा, तभी हम उस बटन (अर्थात् ईश्वर) को पा सकेंगे।
7. एक और रूपक – बाहर की खोज और अंदर की प्राप्ति
कल्पना कीजिए, एक व्यक्ति है जो रोज अपने घर के बाहर एक खूबसूरत फूल की खोज में निकलता है। वह हर दिशा में जाता, हर बाग में फूलों की तलाश करता, परंतु उसके घर के पीछे जो फूल खिले होते हैं, उसे वह कभी नहीं देखता। एक दिन, उसे याद आता है कि उसने अपने घर के पीछे की छोटी सी बगिया पर ध्यान नहीं दिया। वह वहां जाता है और देखता है कि वहाँ पर हजारों रंग-बिरंगे फूल खिले हुए हैं। उस क्षण उसे एहसास होता है कि वह इतनी दूर जाकर ढूँढता रहा, जबकि जो सुन्दरता उसकी अपनी बगिया में ही निहित थी, उसे उसने अनदेखा कर दिया।
इसी प्रकार, जब हम बाहर- बाहर मंदिर, गुरुद्वारा और चर्च में भगवान की खोज करते हैं, तो हम अपने भीतर की उस अनंत बगिया की उपेक्षा कर देते हैं। हमारे अंदर ही वह फूल खिले हुए हैं – शांति, प्रेम, आनंद और दिव्यता के फूल। हमें बस अपने भीतर की ओर ध्यान करना है, उस बगिया को खोलना है और स्वयं को पहचानना है।
8. ध्यान विधियाँ – आत्मा से मिलन की कुंजी
अब बात करते हैं उन ध्यान विधियों की, जिन्हें अपनाकर हम अपने भीतर की दिव्यता को पहचान सकते हैं। ओशो की शिक्षाओं में ध्यान को एक अत्यंत सरल, परंतु गूढ़ प्रक्रिया के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यहां कुछ ध्यान विधियाँ दी जा रही हैं:
(क) साक्षी ध्यान (Witnessing Meditation):
हर रोज 20 मिनट एक शांत जगह पर बैठें। आंखें बंद कर लें और अपने सांसों पर ध्यान केंद्रित करें। अपने मन में आने वाले विचारों को बिना रोक-टोक देखिए, जैसे कि बादल आसमान में गुजरते हैं। बिना किसी प्रतिक्रिया के केवल देखते रहिए। धीरे-धीरे यह अभ्यास आपको अपने भीतर के मौन से परिचित कराएगा। यह अभ्यास आपको यह महसूस कराएगा कि तुम्हारा मन कितना व्यस्त है और असल में तुम्हें अपने भीतर की शांति को महसूस करने की आवश्यकता है।
(ख) गिबरिश और मौन ध्यान:
प्रारंभ में अपने मन को मुक्त करने के लिए 10 मिनट तक किसी भी प्रकार की बकवास बातें करें – जो भी मन में आए, बिना किसी विचार के उसे बाहर निकाल दें। इसके बाद अगले 10 मिनट तक पूर्ण मौन में बैठें। इस प्रक्रिया से मन के अवांछित विचार बाहर निकल जाते हैं और आप एक शुद्ध, स्वच्छ चेतना में प्रवेश करते हैं। यह विधि आपको उस समय की अनुभूति कराएगी जब मन शांत रहता है और भीतर की आवाज़ स्पष्ट होती है।
(ग) कुंडलिनी ध्यान (ऊर्जा जागरण):
यह ध्यान विधि शरीर और मन को एक साथ जोड़ती है। पहले 15 मिनट तक शरीर को हल्के-फुल्के हिलने दें, जैसे कि नृत्य करते हुए शरीर को मुक्त करें। फिर कुछ मिनट मौन में बैठें, और अंत में शांति से विश्राम करें। इस विधि से न केवल आपकी आंतरिक ऊर्जा जागृत होगी, बल्कि आपको यह भी अनुभव होगा कि कैसे आपका शरीर और मन एक अद्वितीय सामंजस्य में काम करते हैं।
(घ) स्व-अवलोकन ध्यान:
दिन का एक निर्धारित समय चुनें, जब आप पूरी तरह से शांत हों। किसी भी बाहरी विकर्षण से दूर, अपने आप से संवाद करें। पूछें – “मैं कौन हूँ? मेरी असली पहचान क्या है?” इस प्रश्न को बार-बार मन में दोहराएं और अपने उत्तर की खोज करें। इस अभ्यास से आप धीरे-धीरे अपने भीतर की गहराई में उतरेंगे और पाएंगे कि असली ज्ञान उसी मौन में निहित है।
9. बाहरी अनुष्ठानों का झूठा आकर्षण
समाज ने हमें यह सिखाया है कि अनुष्ठान ही धर्म हैं। लेकिन ओशो की शिक्षाएं हमें बताती हैं कि अनुष्ठान केवल एक आवरण हैं। एक साधु, एक गुरु, या एक मंदिर आपके भीतर की दिव्यता को प्रकट नहीं कर सकते – वह केवल एक संदर्भ है। असली परिवर्तन तब आता है जब आप अपनी आत्मा के साथ संवाद करते हैं।
कई बार हम देखते हैं कि लोग अनुष्ठानों में इतने लीन हो जाते हैं कि वे अपनी आत्मा को भूल जाते हैं। वे मंदिर के चारदीवारी में बंद हो जाते हैं, जबकि असली प्रकाश तो आपके भीतर है। यह भ्रम कि भगवान कहीं बाहर छिपा हुआ है, वास्तव में हमें अपनी आंतरिक शक्ति और जागरूकता से दूर कर देता है।
10. आंतरिक सच्चाई का साक्षात्कार
जब हम अपने भीतर झाँकते हैं, तो हमें एहसास होता है कि हम स्वयं ही अपने स्वयंभू ईश्वर हैं। यह साक्षात्कार एक ऐसी घड़ी होती है जब सारे भ्रम छिन जाते हैं। उस समय आपको महसूस होता है कि जिस ईश्वर की आप खोज कर रहे थे, वह पहले से ही आपके अंदर मौजूद है।
यह अनुभव कुछ इस प्रकार होता है—आप एक शांत पानी के तल पर खड़े होते हैं, और अचानक आपको पता चलता है कि पानी के नीचे का प्रतिबिंब ही आपका वास्तविक स्वरूप है। कोई बाहरी सजावट, कोई भव्य मंदिर नहीं, बस आपका सच्चा चेहरा, आपकी आत्मा। इसी सच्चाई को ओशो ने बार-बार दोहराया है: “तुम ही भगवान हो।”
11. आत्मा की खोज में हास्य का स्थान
ओशो की प्रवचन शैली में हास्य का एक महत्वपूर्ण स्थान है। वे कहते हैं कि आध्यात्मिकता में गंभीरता तो होनी चाहिए, पर हास्य भी उतना ही आवश्यक है। जब हम अपनी भूल-भुलैया में फँस जाते हैं, तब एक हल्का सा हास्य हमें याद दिला देता है कि हमारा भ्रम कितना हास्यास्पद है।
सोचिए, एक व्यक्ति इतना ध्यान करता है कि उसने अपनी आंखें खोलने की हिम्मत ही खो दी हो, और फिर भी बाहर के मंदिरों में जाने को तरसता हो। यह व्यंग्य हमें यह बताता है कि हम अक्सर अपनी आत्मा से दूर जाते हैं, जबकि वह हमेशा हमारे करीब रहती है। एक छोटी सी मुस्कान में ही यह सच्चाई उजागर हो जाती है कि हमें अपनी आत्मा की ओर लौटना है, न कि बाहरी सजावट में खो जाना है।
12. आध्यात्मिक यात्रा – एक अंतहीन उत्सव
अंततः आध्यात्मिक यात्रा एक उत्सव है, एक अनंत नृत्य है, जिसमें तुम स्वयं ही नर्तक हो और तुम्हारा स्वयं ही संगीत। जब तुम इस बात को समझ लेते हो कि तुम ही अपने स्वयंभू ईश्वर हो, तो तुम्हारी ज़िंदगी एक उत्सव बन जाती है। हर सांस में एक मधुर धुन होती है, हर पल में एक नया अर्थ होता है।
यह उत्सव बाहरी अनुष्ठानों के झमेले से मुक्त होकर एक ऐसी अवस्था में प्रवेश कराता है, जहाँ सब कुछ सहज, सरल और स्वाभाविक हो जाता है। तुम्हारी आत्मा का नृत्य ही तुम्हारा असली पूजा है, और तुम्हारा आत्म-ज्ञान ही तुम्हारा परम अनुष्ठान।
13. आज की आवश्यकता – आत्मनिरीक्षण और आंतरिक शांति
आज के समय में जब समाज अपनी भौतिकता में इतना उलझा हुआ है, तब भी हमारे भीतर की दिव्यता को पहचानने की आवश्यकता कभी भी कम नहीं हुई। हमें बाहरी चीज़ों में उस खुशी की तलाश नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह खुशी हमारे भीतर की शांति में ही निहित है।
असली भक्ति तब होती है जब तुम अपनी आत्मा को समझते हो, उसके मौन को सुनते हो, और अपनी आत्मा के साथ संवाद करते हो। अपने भीतर की आवाज़ को सुनना ही तुम्हारा असली पूजा है। बाहरी अनुष्ठान और रीतिरिवाज केवल एक सजावट हैं, लेकिन आत्म-जागरूकता की वह चमक जो तुम्हारे भीतर है, वही तुम्हें जीवन के वास्तविक उत्सव में ले जाती है।
14. समापन – स्वयं की दिव्यता का आह्वान
इस प्रवचन के समापन में मैं तुमसे यही कहना चाहूंगा कि तुम बाहर के मंदिरों में खोज मत करो। तुम अपने भीतर की उस अनंत बगिया में झाँको, जहाँ प्रेम, शांति, और दिव्यता के फूल खिले हुए हैं। अपनी आत्मा से पूछो—“मैं कौन हूँ?” इस प्रश्न के उत्तर में तुम्हें तुम्हारा असली स्वरूप मिलेगा।
जब तुम यह पहचान लोगे कि तुम ही भगवान हो, तो तुम्हारी यात्रा न सिर्फ पूर्ण होगी, बल्कि तुम्हें वह अनंत शांति और प्रेम भी प्रदान करेगी, जिसकी तुम हमेशा तलाश में थे। यह सत्य है कि तुम ही अपना स्वयंभू ईश्वर हो, तुम ही अपनी भक्ति हो, तुम ही अपना स्वयंभू पूजा, और तुम ही स्वयंभू पुजारी हो।
बाहर के मंदिर, मस्जिद, चर्च, और गुरुद्वारे केवल एक माध्यम हैं, लेकिन असली मंदिर तो तुम्हारा अपना हृदय है। उस मंदिर के द्वार को खोलो, और देखो कि तुम्हारे भीतर कितनी दिव्यता छिपी है। यह उद्घोष तुम्हारे जीवन का सबसे बड़ा सत्य है, जो तुम्हें आत्म-ज्ञान की ओर ले जाएगा।
15. कुछ ध्यान विधियाँ – आत्म-निरीक्षण के लिए प्रेरणा
यदि तुम अपनी आत्मा से मिलना चाहते हो, तो निम्न ध्यान विधियाँ अपनाएं:
- शांतिस्थल पर बैठना:
हर रोज़ एक निश्चित समय निकालें और किसी शांत स्थान पर बैठें। अपने सांसों को महसूस करें और धीरे-धीरे अपने मन को शांत करें। बाहरी दुनिया के शोर से दूरी बनाएं और केवल अपने भीतर की आवाज़ पर ध्यान केंद्रित करें।
- स्व-प्रतिबिंब ध्यान:
एक दिन अपने आप से पूछें, “मैं कौन हूँ?” अपने मन के इस प्रश्न के उत्तर में गहराई से उतरें। यह ध्यान आपको उस सत्य से रूबरू कराएगा जो हमेशा से आपके भीतर मौजूद था।
- आत्मिक डायरी लेखन:
अपने मन की भावनाओं, विचारों, और अनुभवों को लिखें। यह अभ्यास आपको स्वयं के भीतर झाँकने और अपनी आत्मा की आवाज़ सुनने में मदद करेगा।
- प्रकृति में समय बिताना:
प्रकृति की गोद में बैठें और उसके साथ एकाकार हो जाएं। पत्तों की सरसराहट, पक्षियों की चहक, और हवा के झोंकों में आपको अपने भीतर की शांति का अनुभव होगा।
- जागरूक चलना:
जब भी आप चलते हैं, तो अपने कदमों को महसूस करें। यह सरल क्रिया भी आपको अपने शरीर और मन के बीच के सम्पर्क को समझने में सहायक होगी।
16. आत्मा की ओर लौटने का संदेश
इस प्रवचन का मूल संदेश यही है कि भगवान की खोज बाहर नहीं, बल्कि भीतर होती है। तुम जितनी भी बार बाहर की ओर देखोगे, तुम्हें वह पूर्णता नहीं मिलेगी, क्योंकि असली पूर्णता तो तुम्हारे अपने अंदर निहित है। ओशो के इन शब्दों को बार-बार दोहराते हुए, हमें यह समझना चाहिए कि हमारी आत्मा ही हमारा परम मंदिर है, और आत्म-जागरूकता ही हमारी असली पूजा है।
जब तुम इस सत्य को समझ लोगे, तो जीवन का हर पल एक नई अनुभूति में बदल जाएगा। हर दिन एक नई शुरुआत होगी, हर सांस में एक नया उत्सव होगा, और तुम्हारा प्रत्येक अनुभव तुम्हें उस अनंत दिव्यता की ओर ले जाएगा, जो तुम हमेशा से ढूँढ रहे थे।
17. अंतःप्रेरणा – तुम स्वयं से संवाद करो
समाप्ति में, एक बार फिर से याद दिलाना चाहूंगा कि तुम ही अपना स्वयंभू ईश्वर हो। बाहरी संसार में घूमते-घूमते तुम अपनी आत्मा से दूर नहीं हो सकते। अपने भीतर की दिव्यता को पहचानो, अपने अंदर के मंदिर के द्वार खोलो, और देखो कि तुम्हारे अंदर कितनी अपार शक्ति और प्रेम छिपा है।
यह संदेश केवल एक आध्यात्मिक ज्ञान नहीं, बल्कि एक जीवन बदल देने वाला अनुभव है। तुम्हारा आत्म-साक्षात्कार ही तुम्हें उस अनंत प्रेम और शांति की ओर ले जाएगा, जिसकी तुम हमेशा तलाश में थे।
तो चलिए, आज ही से इस यात्रा की शुरुआत करें। बाहर के दीवारों में नहीं, बल्कि अपने हृदय की गहराइयों में उतरें, उस मौन को सुनें जो तुम्हें हमेशा बुलाता है, और खुद से यह पूछें—“मैं कौन हूँ?” क्योंकि इस उत्तर में ही तुम्हारा जीवन, तुम्हारी भक्ति, और तुम्हारा अस्तित्व निहित है।
18. अंतिम विचार – जीवन एक यात्रा है, और यात्रा का अंतिम लक्ष्य है आत्मा की प्राप्ति
जीवन एक अनंत यात्रा है जिसमें हम कई मोड़ पर भटकते हैं। परंतु, जब तक हम अपने भीतर की दिव्यता को पहचान नहीं लेते, तब तक हम केवल बाहरी चमक-दमक में उलझे रहते हैं। ओशो की शिक्षाएं हमें यही सिखाती हैं कि असली भटकन तब तक जारी रहती है जब तक हम अपने आप से दूर रहते हैं।
सच्ची भक्ति वही है जो आत्म-जागरूकता के माध्यम से होती है। जब तुम यह समझ लोगे कि तुम स्वयं ही ईश्वर हो, तो तुम्हारा हर एक कदम, हर एक सांस, एक साधना बन जाएगी। तुम्हारा जीवन अपने आप में एक गहन, सुंदर संगीत बन जाएगा, जो तुम्हें उस दिव्य अनुभूति की ओर ले जाएगा जिसे तुम हमेशा से महसूस करना चाहते थे।
इसलिए, आज से अपने भीतर की यात्रा शुरू करें। मंदिरों, गुरुओं, और अनुष्ठानों की भव्यता से ऊपर उठकर, अपने अंदर के मौन और शुद्ध चेतना को खोजें। जब तुम यह अनुभव कर लोगे कि तुम्हारा प्रत्येक विचार, प्रत्येक अनुभूति उसी दिव्यता का प्रतिबिंब है, तो समझ जाओ कि तुम्हारा जीवन वहीँ से शुरू होता है – तुम्हारे भीतर।
यह प्रवचन तुम्हें उस आत्मा से मिलने के लिए प्रेरित करे, जिसे तुम हमेशा से ढूँढ रहे थे। बाहरी अनुष्ठानों के झमेले छोड़कर, अपने भीतर की दिव्यता को पहचानो। क्योंकि जब तुम समझ लोगे कि तुम ही भगवान हो, तो तुम्हारा भटकना अंततः समाप्त हो जाएगा, और तुम्हें वह शांति, प्रेम, और आनंद मिलेगा, जिसकी अनंत यात्रा तुमने आरंभ की थी।
आओ, इस दिव्य सत्य को आत्मसात करें –
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