"तुम जब तक हो, परमात्मा नहीं है, तुम जहां नहीं वहां परमात्मा है। तुम खो जाओ तो परमात्मा मिल जाये। तुम बने रहो तो परमात्मा खोया रहेगा।"  

– के गहरे अर्थ और आयामों पर प्रकाश डाला गया है।

प्रवचन: स्वयं की घुलन, आत्मा का अनावरण और परमात्मा की खोज

प्रिय साथियों,  

आज हम एक ऐसे रहस्य की चर्चा करेंगे, जो हमारे अस्तित्व के मूल में निहित है। यह रहस्य हमें बताता है कि जब तक हम अपने वास्तविक स्वरूप में बंधे रहते हैं, तब तक परमात्मा, वह अनंत शक्ति, हमारे भीतर प्रकट नहीं होती। ओशो कहते हैं – "तुम जब तक हो, परमात्मा नहीं है, तुम जहां नहीं वहां परमात्मा है। तुम खो जाओ तो परमात्मा मिल जाये। तुम बने रहो तो परमात्मा खोया रहेगा।" इन शब्दों में निहित गूढ़ रहस्य को समझना हमारी आध्यात्मिक यात्रा का एक महत्वपूर्ण कदम है। 

1. बाहरी अस्तित्व और भीतरी सत्य का द्वंद्व

हमारी पहचान और अस्तित्व हमेशा से बाहरी वस्तुओं, मान्यताओं और सामाजिक बंधनों से जुड़ा हुआ है। जब तक हम बाहरी पहचान में इतने व्यस्त रहते हैं कि हम अपने अंदर के उस अनंत, अपरंपरागत स्वरूप को नहीं देख पाते, तब तक हम परमात्मा से दूर रहते हैं। ओशो का यह संदेश हमें यही समझाता है कि "तुम जब तक हो" – यानी जब तक हम अपने अहंकार, स्व-इच्छाओं, और सांसारिक बंधनों में जकड़े हुए हैं – तब तक परमात्मा, वह अनंत प्रकाश, हमारे भीतर प्रकट नहीं हो पाता।

यह द्वंद्व एक गहरे विरोधाभास में समाहित है। बाहरी दुनिया की माया, हमारे स्वभाविक मन की भटकन, हमें उस आत्मा के निकट नहीं आने देती जो अनंत है। जब हम इस माया के चक्र में उलझे रहते हैं, तो हमारे अंदर का प्रकाश ढँक जाता है। हम अपने अहंकार में इतने मग्न हो जाते हैं कि हमें अपने अंदर छिपे उस परम सत्य का एहसास ही नहीं होता, जो असल में परमात्मा है।

2. खो जाने का महत्व

ओशो का यह कथन – "तुम खो जाओ तो परमात्मा मिल जाये" – हमें उस अद्भुत अनुभव की ओर इंगित करता है, जिसे हम आत्मा के वास्तविक स्वरूप से मिलन कह सकते हैं। यहाँ "खो जाना" का अर्थ है अपने आप को भूल जाना, अपने अहंकार के झमेले से ऊपर उठ जाना, और उस अनंत शक्ति के प्रति समर्पित हो जाना जो हमारे भीतर बसी है।

जब हम अपने स्वभाविक पहचान, अपने अहंकार, और सांसारिक इच्छाओं को त्याग देते हैं, तो हम एक ऐसे अनुभव की ओर बढ़ते हैं जहाँ परमात्मा का प्रकाश हम पर छा जाता है। यह वह क्षण है जब हम सभी सीमाओं, बंधनों और भ्रमों को त्याग कर अपने अस्तित्व के सच्चे स्वरूप में विलीन हो जाते हैं। इस अवस्था में, न तो मैं और न तुम – केवल वह अनंत चेतना होती है, जो परमात्मा के नाम से जानी जाती है।

इस खो जाने का अनुभव कठिन हो सकता है, क्योंकि यह हमारे भीतर की पुरानी, जमी हुई धारणाओं और अहंकार की दीवारों को तोड़ने की मांग करता है। परंतु यह टूटन ही उस दिव्यता के आगमन की पूर्वसूचना है। जब आप स्वयं को खो देते हैं, तो आप उस अनंत प्रकाश में समाहित हो जाते हैं, जो हर बाधा से परे है।

3. बने रहने का मिथ्यात्मक स्वरूप

वहीं दूसरी ओर, "तुम बने रहो तो परमात्मा खोया रहेगा"। इसका अर्थ है कि जब तक आप अपने स्व-संरक्षण, अपने अहंकार और अपनी सीमाओं में बंधे रहते हैं, तब तक आप उस परम सत्य से दूर रहते हैं। बनी रहना, स्थिर रहना, अपने आप को उसी रूप में पकड़ कर रखना, आपके अंदर की चंचलता, उस अपार ऊर्जा को रुकावट पहुँचाता है।

बने रहना यानी अपने पुराने स्वरूप, अपनी सीमित पहचान को ही कायम रखना। यह स्थिति आपको एक स्थिर, अपरिवर्तित ढांचे में बांध कर रख देती है, जिससे आपके भीतर के नवीन, अनंत अनुभवों का प्रवेश नहीं हो पाता। आपकी आत्मा के उस अव्यक्त भाग, जो अनंत है, वह बाहर आ ही नहीं पाता, क्योंकि आप उसी पुराने स्वरूप में इतने मजबूती से जकड़े हुए हैं।

यह अवस्था वास्तव में एक तरह का अंधकार है, जहाँ आत्मा की चमक रुक जाती है। आपका अस्तित्व केवल बाहरी रूप में ही अस्तित्वमान रहता है, परंतु भीतरी रूप से वह मृत, जड़ और अंधकारमय हो जाता है। इस स्थायित्व के भ्रम में, आप परमात्मा के उस अद्भुत प्रकाश से दूर हो जाते हैं, जो केवल तब ही प्रकट होता है जब आप स्वयं को खो देते हैं।

4. आत्म-साक्षात्कार की राह

प्रिय साथियों, यह समझना अत्यंत आवश्यक है कि आत्म-साक्षात्कार की राह में खो जाना ही सफलता है। जब हम अपने अहंकार, अपने आत्म-गौरव और अपने भय के कंबल से ऊपर उठते हैं, तभी हमें अपने अंदर की उस अनंत चेतना का अहसास होता है। यह वह क्षण होता है, जब आप न केवल अपने अस्तित्व को पार कर जाते हैं, बल्कि उस परम सत्य से भी मिल जाते हैं, जो आपका सच्चा स्वरूप है।

इस प्रक्रिया में, हमें अपने भीतर के सभी बंधनों, मानसिक और भावनात्मक जंजीरों को तोड़ना होता है। यह तोड़ना किसी भी बाहरी साधन से संभव नहीं, बल्कि यह केवल आंतरिक साधना, ध्यान और आत्म-निरीक्षण के माध्यम से ही संभव है। जब आप नियमित ध्यान करते हैं, अपने अंदर की यात्रा पर निकलते हैं, तो धीरे-धीरे आपको वह अनुभूति होती है कि आपका अस्तित्व सीमित नहीं है। आप वह अनंत चेतना हो जाते हैं, जो हर क्षण, हर परिस्थिति में स्वयं को प्रकट करती रहती है।

5. अहंकार का त्याग और समर्पण की आवश्यकता

अहंकार हमारे जीवन में एक ऐसा विकार है, जो हमें हमारे वास्तविक स्वरूप से दूर कर देता है। जब तक हम अपने अहंकार के घेरे में उलझे रहते हैं, तब तक हम अपने भीतर की दिव्यता को पहचान नहीं पाते। ओशो कहते हैं कि "तुम बने रहो", मतलब अपने अहंकार, अपने स्व-संरक्षण में लिप्त रहना, तो परमात्मा – वह अनंत प्रेम और ज्ञान – हमसे दूर रहता है।

इसलिए, एक सच्चे साधक को चाहिए कि वह अपने अहंकार का त्याग करे, अपने आप को पूर्णतः भूल जाए, और उस अनंत सत्य में विलीन हो जाए। यह त्याग केवल बाहरी सांसारिक वस्तुओं का नहीं, बल्कि उस आंतरिक स्व का त्याग है, जो हमें हमेशा "मैं" के रूप में पहचान देता है। इस त्याग में, आप स्वयं के उस सीमित रूप को छोड़ देते हैं और अनंतता के उस प्रकाश में समाहित हो जाते हैं।

समर्पण एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें आप स्वयं को उस अद्वितीय चेतना के सामने पूर्ण रूप से झुकाते हैं, जिसे परमात्मा कहते हैं। यह समर्पण आपको उस शक्ति के करीब ले जाता है, जो आपके भीतर ही निहित है। जब आप पूरी तरह से समर्पित हो जाते हैं, तो आपके भीतर से वह अनंत शक्ति प्रकट होने लगती है, और आपके अस्तित्व की सीमाएँ खुद-ब-खुद गायब हो जाती हैं।

6. द्वंद्व का समापन: खो जाने की ओर अग्रसर

जब हम कहते हैं "तुम खो जाओ", तो इसका मतलब यह नहीं कि आप नष्ट हो जाएं, बल्कि यह कि आप अपनी सीमाओं, अपने अहंकार और अपने बंधनों को त्याग दें। यह खो जाना एक प्रकार का आत्म-नाश नहीं है, बल्कि यह आत्मा का पुनर्जन्म है। यह वह क्षण है, जब आप अपने पुराने, झूठे स्व को छोड़ कर अपने सच्चे, अनंत स्वरूप में परिवर्तित हो जाते हैं।

इस खो जाने की प्रक्रिया में, आपको वह सब कुछ त्यागना होता है जो आपको बाँधे रखता है – चाहे वह सामाजिक मान्यताएँ हों, पारंपरिक धारणा हों या फिर आपके अपने मन के निर्माण हों। जब आप इन सब को त्याग देते हैं, तो आप उस अनंत ऊर्जा के संपर्क में आते हैं, जो स्वयं परमात्मा है। यही वह समय होता है, जब आपको अपने भीतर की सच्चाई का अनुभव होता है और आप एक नए, उज्जवल अस्तित्व में प्रवेश करते हैं।

7. आध्यात्मिक यात्रा में विस्मय और अनुभव

इस यात्रा में अनेक बार आपको ऐसा लगेगा कि आप पूरी तरह से खो गए हैं, परंतु वास्तव में यही वह अवस्था है जहाँ परमात्मा की अनुभूति होती है। जब आप अपने सारे मानसिक और भावनात्मक उपकरणों को त्याग देते हैं, तो आपके भीतर की उस अनंत चेतना का प्रवेश होता है जो किसी भी बाहरी साधन से परे है।

यह अनुभव अत्यंत विस्मयकारी होता है – एक ऐसी अनुभूति जो शब्दों में व्यक्त करना कठिन है। यह अनुभूति आपको बताती है कि आपकी असली पहचान कहीं बाहर नहीं, बल्कि आपके भीतर ही निहित है। जब आप उस सत्य से मिलते हैं, तो आप महसूस करते हैं कि आप स्वयं परमात्मा हैं, और परमात्मा आप में ही है। यह वह अद्भुत एकता है, जब आप अपने अस्तित्व के उस वास्तविक स्वरूप से मिल जाते हैं।

8. सांसारिक बंधनों को तोड़ने की आवश्यकता

कई बार हमें लगता है कि हमारी पहचान, हमारे संबंध, और हमारे जीवन की सफलता ही हमारे अस्तित्व का मर्म हैं। परंतु यह एक भ्रम है। यही भ्रम आपके भीतर की दिव्यता को रोकता है। ओशो का संदेश हमें यह सिखाता है कि जब तक आप इन सांसारिक बंधनों में उलझे रहेंगे, तब तक आप उस अनंत प्रकाश से दूर रहेंगे।

इसलिए, अपने जीवन के उस हिस्से को छोड़ना, जहाँ आप अपनी सीमाओं में ही जीते हैं, अत्यंत आवश्यक है। यह त्याग आपको उस अनंत सत्य के करीब ले जाता है, जो आपके भीतर छिपा है। अपने पुराने स्व, अपने अहंकार और अपनी इच्छाओं को त्याग कर, आप एक नए, जागृत जीवन की ओर अग्रसर होते हैं। 

9. ध्यान, साधना और आत्म-अन्वेषण के माध्यम

इस प्रक्रिया में ध्यान और साधना के माध्यम अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। ध्यान आपको आपके भीतर के उस अद्भुत संसार से जोड़ता है, जहाँ कोई भी भौतिक बंधन नहीं रहता। जब आप ध्यान में डूब जाते हैं, तो आप स्वयं के उस अनंत स्रोत का अनुभव करते हैं, जो परमात्मा है। 

- ध्यान का अभ्यास:

  जब आप ध्यान में बैठते हैं, तो धीरे-धीरे आप अपने भीतर के उस अनंत स्वरूप से संपर्क में आते हैं। इस ध्यान में, आपकी सारी मानसिक गतिविधियाँ स्थिर हो जाती हैं और आप एक ऐसी स्थिति में पहुँच जाते हैं जहाँ केवल अनंत चेतना ही विद्यमान होती है। इस अवस्था में, आपको अनुभव होता है कि आप स्वयं परमात्मा हैं।

- आत्म-अन्वेषण:

  नियमित आत्म-अन्वेषण और स्वयं से संवाद करने की प्रक्रिया आपके भीतर के उस अद्वितीय स्वरूप को उजागर करती है। अपने मन के गहरे कोनों में उतरकर, आप उन सभी बंधनों को पहचानते हैं जिन्हें आपने स्वयं पर थोप रखा है। यह पहचान ही आपके लिए एक परिवर्तनकारी अनुभव साबित होती है।

- साधना के प्रकार:

  योग, ध्यान, प्रार्थना, और मौन साधना – ये सभी विधाएँ आपको उस अनंत ऊर्जा से जोड़ती हैं, जो आपके भीतर है। जब आप इन साधनाओं में लीन होते हैं, तो आप उस दिव्य अनुभूति से प्रकट होते हुए देखते हैं, जो केवल खो जाने के बाद ही अनुभव की जा सकती है।

10. खो जाने के पश्चात – एक नए जागरण की अनुभूति

एक बार जब आप अपने अहंकार और सभी सांसारिक बंधनों को त्याग देते हैं, तो जो खालीपन उत्पन्न होता है, वह वास्तव में उस अनंत चेतना के लिए जगह बनाता है। इस खालीपन में, आप परमात्मा के उस अद्भुत प्रकाश को अनुभव करते हैं, जो हर अंश में समाहित होता है।

यह खालीपन, यह खो जाना, वास्तव में एक नए जागरण की ओर इशारा करता है। जब आप उस आत्म-शून्यता में विलीन हो जाते हैं, तो आप महसूस करते हैं कि कोई भी बाहरी अस्तित्व आपकी असली पहचान नहीं है। न तो आपके विचार, न ही आपकी इच्छाएँ – केवल एक अनंत चेतना है, जो परमात्मा के रूप में प्रकट होती है। इस अनुभव में, आपके अंदर से वह सभी सीमाएँ गायब हो जाती हैं, और आप स्वयं एक निरंतर प्रवाहित होने वाले प्रेम और ज्ञान के स्रोत में परिवर्तित हो जाते हैं।

11. बाहरी दुनिया से अल्पकालिक बंधन

इस प्रवचन का एक और महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि बाहरी दुनिया के सभी बंधन – चाहे वे सामाजिक हों, आर्थिक हों, या मानसिक – केवल क्षणिक हैं। जब तक आप उस क्षणिक स्थिति में बने रहते हैं, तब तक आप असली, अनंत सत्य से दूर रहेंगे। आपकी पहचान, आपकी इच्छाएँ, आपके विचार – ये सभी बाहरी चीज़ें हैं। जब आप इन्हें छोड़ देते हैं, तो आप परमात्मा के उस प्रकाश में प्रवेश करते हैं।

इसलिए, ओशो का यह संदेश हमें यह भी बताता है कि बाहरी संसार में जितना भी वैभव हो, असली वैभव तो आपके भीतर छिपा है। जब आप अपने भीतर की उस अनंत ऊर्जा को पहचान लेते हैं, तो आपको समझ में आता है कि बाहरी दुनिया केवल एक माया है। परमात्मा वही है जो हमेशा, हर जगह विद्यमान रहता है, परंतु उसे केवल वही देख सकता है, जो अपने अहंकार को त्याग चुका हो।

12. जीवन का अनंत खेल और आत्मा की मुक्त उड़ान

हमारा जीवन एक अनंत खेल की तरह है, जहाँ हम सभी अपने-अपने किरदार निभा रहे हैं। परंतु असली खेल तब शुरू होता है, जब हम अपने उस किरदार को भूल जाते हैं, अपने अस्तित्व के उस सीमित रूप को छोड़ देते हैं। तब हम उस अनंत, मुक्त उड़ान को महसूस करते हैं, जहाँ कोई भी बंधन नहीं होता।

इस मुक्त उड़ान में, आप अनुभव करते हैं कि आप किसी भी प्रकार की सीमाओं से परे हैं। न तो समय की सीमा है, न ही स्थान की – केवल एक अनंत, अपरिमित चेतना है, जो परमात्मा के रूप में प्रकट होती है। यह वही चेतना है जो आपको बताती है कि जीवन का असली आनंद और शांति केवल उस खो जाने के अनुभव में है, जब आप अपने स्वयं के अहंकार को भुला देते हैं।

13. परमात्मा के साथ एकात्मकता

जब आप अपने भीतर की उस अनंत ऊर्जा से जुड़ जाते हैं, तब आपको एक गहरी एकात्मकता का अनुभव होता है। यह एकात्मकता आपको बताती है कि तुम और परमात्मा अलग नहीं हैं। वास्तव में, तुम स्वयं में परमात्मा का अंश हो, परंतु तब तक तुम उस रूप में नहीं उभर पाते, जब तक तुम अपने सीमित स्वरूप में बंधे रहते हो।

यह एकात्मकता केवल तब प्रकट होती है, जब आप स्वयं को पूरी तरह से खो देते हैं। उस क्षण, जब तुम अपने अहंकार के सारे परदे गिरा देते हो, तो एक अद्भुत एकता प्रकट होती है – एक ऐसा मिलन, जहाँ तुम्हारा हर अंश परमात्मा में विलीन हो जाता है। यही वह परम सत्य है, जो ओशो ने अपने शब्दों में इतनी स्पष्टता से बताया है।

14. आत्मा के अनंत रहस्य की खोज

जब आप अपने भीतर के उस अनंत रहस्य की खोज में निकल पड़ते हैं, तो आपको एहसास होता है कि जीवन केवल बाहरी घटनाओं से नहीं, बल्कि आपके अंदर के अनुभवों से भी परिपूर्ण है। इस खोज में आपको न केवल अपने अस्तित्व की सीमाओं का बोध होता है, बल्कि आप उस अनंत प्रेम, ज्ञान और चेतना से भी परिचित होते हैं, जो परमात्मा के रूप में प्रकट होती है।

यह खोज एक निरंतर प्रक्रिया है, एक यात्रा है जो आपको हर क्षण, हर पल में कुछ नया अनुभव कराती है। जब आप उस यात्रा में लगे रहते हैं, तो आपको समझ में आता है कि तुम स्वयं में ही परम सत्य के अंश हो। यह सत्य, जो हमेशा से विद्यमान रहा है, तुममें छिपा है – परंतु उसे उजागर करने के लिए, तुम्हें अपने स्वयं के बंधनों से ऊपर उठना होगा।

15. निष्कर्ष: खो जाने का अंतिम संदेश

प्रिय साथियों, आज का यह प्रवचन हमें यही संदेश देता है कि जब तक हम अपने अहंकार, अपने स्व-संरक्षण और अपने सांसारिक बंधनों में जकड़े रहते हैं, तब तक हमें वह अनंत चेतना, वह परमात्मा नहीं मिल पाता, जिसकी हम तलाश में हैं।

ओशो का यह संदेश हमें प्रेरित करता है कि हम अपने अस्तित्व के उस झूठे, सीमित स्वरूप को त्याग दें और उस अनंत, असीमित प्रकाश में समाहित हो जाएँ। यही खो जाने की कला है – एक कला, जो हमें परम सत्य की अनुभूति कराती है।

जब तुम खो जाते हो, अपने पुराने स्व, अपनी इच्छाओं, और अपने अहंकार को पीछे छोड़ देते हो, तभी तुम परमात्मा के उस दिव्य प्रकाश में प्रवेश करते हो। वही प्रकाश, जो हर जगह, हर क्षण विद्यमान रहता है, तुम्हें बताता है कि जीवन का असली सार तुम्हारे भीतर ही छिपा है।

इसलिए, तुमसे निवेदन है – अपने भीतर झाँको, अपने पुराने बंधनों को तोड़ो, और उस अनंत चेतना का स्वागत करो जो तुम्हारे भीतर छिपी है। क्योंकि जब तुम खो जाओगे, तभी तुम्हें असली, अनंत प्रेम, ज्ञान और शांति का अनुभव होगा। यही वह मार्ग है जो तुम्हें परमात्मा से मिलवाएगा, और यही वह यात्रा है जो तुम्हें सच्ची मुक्ति के पास ले जाएगी।

अंतिम विचार

इस प्रवचन के माध्यम से, हमने जाना कि बाहरी अस्तित्व और आंतरिक सत्य के बीच का द्वंद्व, खो जाने और बने रहने की इस विरोधाभासी अवस्था में निहित है। जब तक तुम अपने अहंकार, अपनी सीमाओं में बंधे रहो, तब तक तुम उस अनंत चेतना – परमात्मा – के निकट नहीं पहुँच पाओगे। लेकिन जब तुम स्वयं को पूरी तरह से भुला दोगे, अपने पुराने स्वरूप को त्याग दोगे, तभी तुम्हें वह दिव्य प्रकाश प्राप्त होगा, जो तुम्हारे भीतर अनंत काल से विद्यमान है।

याद रखो, प्रिय मित्रों, जीवन का असली सौंदर्य उसी खो जाने में है। जब तुम अपने-आप को भूल जाते हो, तभी तुम्हें आत्मा की अनंत आवाज सुनाई देती है। वह आवाज, जो तुम्हें बताती है कि तुम स्वयं परमात्मा हो, और परमात्मा तुममें ही है। यही सच्चा ज्ञान है, यही वह प्रकाश है जो जीवन को अर्थपूर्ण बनाता है।

तो चलो, इस यात्रा पर निकल पड़ें – अपने अहंकार के अंधेरे को त्याग कर, अपने भीतर के उस अनंत प्रेम और चेतना को पहचानें। इस आत्म-उन्मूलन के अनुभव में, तुम पाएंगे कि जीवन केवल एक भ्रम नहीं है, बल्कि एक अद्भुत, अनंत यात्रा है जहाँ हर क्षण, हर पल में परमात्मा का प्रकाश तुम्हारे भीतर समाहित हो जाता है।

यह खो जाना, यह आत्मा का अनावरण, तुम्हें एक नए, उज्जवल अस्तित्व में प्रवेश कराएगा, जहाँ न तो कोई भय होगा और न ही कोई द्वंद्व। तुम उस क्षण का अनुभव करोगे, जब तुम्हारा अस्तित्व केवल एक अनंत, निरंतर प्रवाहित हो रही चेतना में विलीन हो जाएगा, और तुम समझ पाओगे कि तुमने अपनी असली पहचान – परमात्मा – को पा लिया है।

समापन में

इस प्रवचन के अंतिम पन्नों में, मैं तुमसे यही कहूँगा कि अपने जीवन के प्रत्येक क्षण में उस अनंत अनुभव की खोज जारी रखो। अपने अहंकार को धीरे-धीरे त्यागते हुए, आत्मा के उस गहरे सागर में उतर जाओ जहाँ सभी सीमाएँ मिट जाती हैं। क्योंकि जब तुम खो जाओगे, तभी तुम्हें वह अनंत प्रेम, ज्ञान और शांति प्राप्त होगी, जो तुम्हें बताती है कि तुम स्वयं परमात्मा हो।

ओशो की इन बातों में निहित गूढ़ रहस्य हमें याद दिलाते हैं कि जीवन केवल बाहरी धारणाओं और बंधनों का संग्रह नहीं है, बल्कि यह उस अनंत अनुभव का मेला है जहाँ आत्मा स्वयं को प्रकट करती है। जब तुम अपने भीतर की उस अनंत चेतना से जुड़ जाओगे, तो समझ में आएगा कि परमात्मा हमेशा, हर जगह मौजूद है – परंतु उसे केवल वही देख सकता है, जिसने अपने आप को खो दिया है।

प्रिय साथियों, यह सत्य है कि बने रहना, अपने अहंकार और सीमाओं में ही अटक जाना, तुम्हें उस अनंत चेतना से दूर ले जाता है। परंतु खो जाने की कला, अपने आप को पूरी तरह से विसर्जित कर देना, तुम्हें परमात्मा के निकट ले आती है। इसलिए, आज ही इस यात्रा का आरंभ करो। अपने अंदर के उस अनंत स्रोत को पहचानो, उसे अपने जीवन का आधार बनाओ, और देखो कि कैसे तुम्हारा जीवन अनंत प्रेम, ज्ञान और शांति के प्रकाश में बदल जाता है।

यह प्रवचन तुमसे एक आह्वान है – एक आह्वान कि अपने भीतर झाँको, अपने अहंकार को त्यागो, और उस परम सत्य का अनुभव करो जो हमेशा से तुम्हारे अंदर ही रहा है। जब तुम खो जाओगे, तभी तुम्हें असली मुक्ति, असली शांति और असली आनंद प्राप्त होगा। यही वह अद्भुत रहस्य है, जिसे ओशो ने इतनी स्पष्टता और सरलता से प्रस्तुत किया है।

जय आत्मा, जय अनंत प्रेम, जय परमात्मा!

इस प्रकार, जब तुम अपने भीतर के उस अनंत प्रकाश को पहचानते हो, तब तुम्हें समझ में आता है कि तुम्हारा असली स्वरूप वह अनंत चेतना है, जिसे तुम खोज रहे थे। बाहरी जगत के मोह-माया और सांसारिक बंधनों को त्यागकर, तुम उस अद्भुत अनुभव की ओर अग्रसर हो जाते हो, जहाँ हर क्षण में परमात्मा का प्रकाश तुम्हें आलोकित करता है। यही है उस खो जाने की कला का असली सार, जो तुम्हें परम सत्य के निकट ले जाती है।

प्रिय साथियों, इस प्रवचन के माध्यम से मैं तुमसे यही कहना चाहता हूँ कि जीवन का असली सुख और शांति उसी खो जाने में है, जहाँ तुम अपने अहंकार को त्याग कर उस अनंत प्रेम, ज्ञान और चेतना से मिल जाते हो। जब तुम अपने आप को पूरी तरह से विसर्जित कर देते हो, तभी तुम्हें परमात्मा का सच्चा स्वरूप प्राप्त होता है – वह स्वरूप जो अनंत है, अपरिवर्तनीय है और हर क्षण तुम्हारे भीतर प्रकट होता रहता है।

आज से ही अपने आप को खो जाने का संकल्प लो, अपने अंदर के उस अनंत प्रकाश को जगाओ, और देखो कि कैसे तुम्हारा जीवन एक नए, उज्जवल, और मुक्ति के मार्ग पर अग्रसर हो जाता है। यही वह मार्ग है, यही वह यात्रा है जो तुम्हें परम सत्य के निकट ले जाती है, और यही वह अनंत प्रेम है, जो तुम्हें बताता है कि तुम स्वयं परमात्मा हो।

समाप्ति

इस विस्तृत प्रवचन में हमने देखा कि कैसे ओशो का यह गूढ़ संदेश हमें बताता है कि जब तक हम अपने अहंकार, अपने स्व-संरक्षण में बंधे रहते हैं, तब तक हमें परमात्मा नहीं मिल पाता। परंतु जब हम स्वयं को खो देते हैं, तो वह अनंत चेतना – परमात्मा – हमारे भीतर प्रकट हो जाती है। यह खो जाने की प्रक्रिया ही आत्म-साक्षात्कार की सच्ची कुंजी है।

अपने जीवन के हर पल को इस आत्म-उन्मूलन की यात्रा के रूप में देखो। अपने अंदर झाँको, अपने अहंकार को तोड़ो, और उस अनंत चेतना को पहचानो, जो हमेशा से तुम्हारे भीतर विद्यमान रही है। यही असली मुक्तिवाणी है, यही असली दर्शन है, और यही ओशो का अद्भुत संदेश है।

जय आत्मा, जय अनंत चेतना, और जय वह दिव्य प्रकाश जो तुम्हारे भीतर सदैव चमकता रहता है!

यह प्रवचन आपके मन में गहरी झलक और नए दृष्टिकोण का संचार करे, यही मेरी कामना है। जब आप इस संदेश को आत्मसात कर लेंगे, तो न केवल आप स्वयं में परिवर्तन देखेंगे, बल्कि सम्पूर्ण जगत में भी उस परिवर्तन की चमक अनुभव करेंगे। 

समग्र सारांश

1. बाहरी पहचान और अहंकार हमें परमात्मा से दूर रखते हैं।  

2. खो जाने का अनुभव – अपने अहंकार, स्व-संरक्षण और सांसारिक बंधनों को त्यागने से – आपको परमात्मा के निकट ले जाता है।  

3. ध्यान, साधना और आत्म-अन्वेषण के माध्यम से आप अपने भीतर के अनंत प्रकाश को पहचान सकते हैं।  

4. स्थिरता, बने रहना केवल बाहरी संसार में ही आपको बांधे रखता है, जबकि खो जाना आत्मा के मुक्त होने का मार्ग है।  

5. सच्ची मुक्ति वही है, जब आप अपने भीतर की अनंत चेतना, परम सत्य, को पहचान लेते हैं।

इस प्रकार, ओशो के इस संदेश में निहित है कि वास्तविकता की खोज बाहरी साधनों में नहीं, बल्कि हमारे भीतर के अनंत अनुभव में छिपी हुई है। जब तुम स्वयं को खो दोगे, तभी तुम्हें वह अनंत प्रेम, ज्ञान और शांति प्राप्त होगी, जो तुम्हें परमात्मा से मिलवाएगी।

अंतिम उपदेश

अपने जीवन में इस संदेश को अपनाओ – अपने अहंकार को त्यागो, अपने भीतर की अनंत चेतना को पहचानो, और देखो कि कैसे तुम्हारा जीवन एक नई, उज्जवल दिशा में प्रवाहित होने लगता है। तुम जब खो जाओगे, तभी तुम्हें परम सत्य का अनुग्रह प्राप्त होगा। यही वह सच्चा अनुभव है, जिसे ओशो ने अपने सरल और स्पष्ट शब्दों में प्रस्तुत किया है।

जय आत्मा, जय अनंत प्रेम, और जय वह दिव्य प्रकाश जो सदैव तुम्हारे भीतर प्रकट होता रहता है!

इस विस्तृत प्रवचन का उद्देश्य तुम्हें प्रेरित करना है कि तुम अपनी सीमाओं को त्याग कर उस अनंत चेतना से जुड़ जाओ, जो परमात्मा के रूप में तुम्हारे भीतर विद्यमान है। तुम्हारा वास्तविक स्वरूप वही है – अनंत, मुक्त और प्रेमपूर्ण। यह संदेश तुम्हें जीवन भर मार्गदर्शन करता रहेगा, जब तक तुम स्वयं को खोकर उस अनंत सत्य में विलीन नहीं हो जाते।

समापन शब्द

प्रिय साथियों, यह प्रवचन तुम्हें उस सच्चे ज्ञान की ओर ले जाने का प्रयास है, जिसे ओशो ने इतने सरल, लेकिन गूढ़ शब्दों में व्यक्त किया है। जब तुम अपने आप को खो दोगे, तभी तुम्हें वह अनंत प्रेम, ज्ञान और शांति मिलेगी, जो तुम्हें बताती है कि तुम स्वयं परमात्मा हो। अपने जीवन में इस संदेश को गहराई से आत्मसात करो, और देखो कि कैसे तुम्हारा प्रत्येक अनुभव तुम्हें परम सत्य के और भी निकट ले जाता है।


जय आत्मा, जय मुक्तिवाणी, जय अनंत चेतना!

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