नीचे प्रस्तुत है एक विस्तृत प्रवचन, जिसमें विचारों के स्वभाव, उनके हमारे मन पर प्रभाव और साक्षी भाव से उनकी अनुभूति करने की कला पर गहन ध्यान दिया गया है। यह प्रवचन इस बात का गूढ़ विश्लेषण करता है कि कैसे विचार, जो वस्तुतः बाहरी तत्व हैं, हमारे मन में प्रवेश करते हैं, हमें नियंत्रित करते हैं और अगर हम उन्हें अपनी पहचान मान लेते हैं तो हम स्वयं को बंधन में पाते हैं। साथ ही, इसमें यह भी समझाया गया है कि विचारों से स्वयं को अलग रखकर, केवल थिंकिंग प्रक्रिया का आनंद लेते हुए, हम सच्ची स्वतंत्रता और शांति प्राप्त कर सकते हैं।
1. प्रवेश – विचारों का आकाश और हमारे मन की भूमि
देखिए, हम सब एक विशाल आकाश के नीचे रहते हैं। उस आकाश में बादलों की तरह विचार लगातार उभरते रहते हैं। लेकिन क्या ये बादल हमारे हैं? नहीं, ये तो पराये हैं, जो बिना हमारे आदेश के आते हैं और जाते हैं। ऐसे ही, विचार भी हमारे मन में अचानक प्रकट होते हैं, आ जाते हैं, फिर चले जाते हैं। यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, बिल्कुल वैसे ही जैसे बारिश के बूंदें या सूर्योदय-आस्त का क्रम। जब हम देखते हैं कि बादल आते हैं तो हम सोचते हैं, “ये मेरे हैं,” लेकिन वास्तव में वे आकाश के बच्चे हैं, स्वाभाविक रूप से उभरते हुए। इसी प्रकार, विचार भी हमारे मन के आकाश में स्वतंत्र रूप से प्रवाहित होते हैं, परंतु सोचने की प्रक्रिया – थिंकिंग – वह हमारा स्वामित्व है, हमारा क्रियात्मक हिस्सा है।
ओशो कहते हैं, “विचार आणविक, एटामिक चीजें हैं। तुम पर आते हैं, पराए होते हैं सदा।” इस कटाक्ष में एक गूढ़ सत्य निहित है। जब हम सोचते हैं कि विचार हमारी अपनी पहचान हैं, तो हम एक भ्रम में फंस जाते हैं। विचार स्वयं तो बाहर के तत्व हैं, जैसे नदी में बहता पानी, जो अपनी स्वाभाविक गति में चलता रहता है, परंतु हम जब पानी में खुद को विलीन कर लेते हैं, तो हम उसकी धाराओं के गुलाम बन जाते हैं।
2. विचार और थिंकिंग का अंतर – दो प्रवाह, दो प्रक्रियाएँ
सोचिए, हमारे भीतर दो अलग-अलग घटनाएँ हो रही हैं। एक है – विचारों का आगमन, जो बिना हमारे निर्णय के आते हैं, और दूसरी है – थिंकिंग की प्रक्रिया, जो हमारी जागरूकता का फल है। विचार एक प्रकार के डेटा या जानकारी के रूप में आते हैं, जैसे कि बुदबुदाहट, खींचाव या परछाइयाँ। वे अपने आप में निष्पक्ष हैं; न वे अच्छे होते हैं न बुरे, बस एक तरह के संकेत होते हैं।
लेकिन थिंकिंग, यानी कि विचारों पर प्रतिक्रिया देना, उन्हें पकड़ लेना और उनसे पहचान बनाना – यह एक क्रिया है। जब हम थिंक करते हैं, तो हम उन विचारों को अपना मान लेते हैं। हम कहते हैं, “मैं यह सोचता हूँ, मैं ऐसा महसूस करता हूँ।” इस प्रक्रिया में हम विचारों से अपनी पहचान जोड़ लेते हैं, और इसी कारण हम उनमें उलझ जाते हैं। सोचने की क्रिया, जबकि हमारी अपनी जिम्मेदारी है, परंतु विचार स्वयं तो बाहरी प्रवाह हैं जो मन की सतह पर आते हैं।
कल्पना कीजिए, एक नदी में तैरते पत्थर। पत्थर नदी का हिस्सा नहीं होते, बल्कि नदी के प्रवाह में केवल निहारते हैं। यदि आप उन पत्थरों से अपना संबंध जोड़ लेंगे, तो आप समझ ही नहीं पाएंगे कि आपकी यात्रा का वास्तविक उद्देश्य क्या है। इसी प्रकार, यदि हम विचारों को अपनी पहचान मान लेते हैं, तो हम स्वयं को उस प्रवाह में फँस जाते हैं, और हमारे भीतर की स्वतंत्रता चुर जाती है।
3. विचारों का आक्रमण – जब पराए तत्व हमें नियंत्रित करते हैं
हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में अक्सर ऐसा होता है कि विचार बिना किसी पूर्व सूचना के हमारे मन में आ जाते हैं। कभी अचानक एक स्मरण, कभी कोई चिंता, कभी कोई अपेक्षा। ये विचार हमें ऐसे घेर लेते हैं कि हम उनमें डूब कर अपने असली स्वभाव को भूल जाते हैं। ओशो के प्रवचनों में अक्सर यह कटाक्ष मिलता है कि “विचार ही आपके अस्तित्व का झूठा आईना हैं।”
जब हम अपने मन में आने वाले विचारों को बिना पूछे स्वीकार कर लेते हैं, तो हम उन पर नियंत्रण खो देते हैं। जैसे कि कोई अतिथि जो अनायास आपके घर में आ जाए और बिना पूछे ही आपकी मेज़ पर चढ़ जाए। आप उसे भगाने की कोशिश करेंगे, पर वह फिर भी वहीं मौजूद रहेगा। इसी प्रकार, विचारों का अटूट प्रवाह हमें उस स्थिति में पहुँचा देता है जहाँ हम स्वयं की वास्तविकता से दूर हो जाते हैं।
एक कहानी याद आती है: एक साधु था, जो हमेशा अपने विचारों से परेशान रहता था। वह कहता था, “मेरे मन में ऐसे विचार आते हैं जैसे जंगल में झाड़ियों के बीच से नक्काशीदार रास्ता निकल आया हो। मैं उन रास्तों पर चलता रहता हूँ, लेकिन कभी नहीं समझ पाया कि असली मंज़िल क्या है।” यह कहानी हमें यह सिखाती है कि विचार चाहे कितने भी खूबसूरत या विचित्र क्यों न हों, अगर हम उन्हें अपना मान लेते हैं, तो हम हमेशा एक भ्रम के पीछे भागते रहेंगे।
ओशो का कहना है कि हम विचारों के गुलाम बन जाते हैं, क्योंकि हम उन्हें अपने अस्तित्व का हिस्सा मान लेते हैं। लेकिन अगर हम साक्षी बनकर देखते हैं – बिना जकड़ कर, बिना पहचान बनाये – तो हम उन विचारों से मुक्त हो सकते हैं। विचारों को देखते हुए, उन्हें आना और जाना देते हुए, हम स्वयं की स्वाभाविक शांति को पुनः प्राप्त करते हैं।
4. साक्षी भाव – विचारों से मुक्त होने की कुंजी
साक्षी भाव, या 'वॉचिंग स्टेट' वह स्थिति है जिसमें हम अपने मन में उठते विचारों का निरीक्षण करते हैं, बिना उनमें खोए बिना अपने आप को उनसे पहचानते हुए। यह एक अत्यंत सहज और सरल अवस्था है, परंतु इसे प्राप्त करना जितना भी कठिन लग सकता है, उतना ही आवश्यक है।
जब हम अपने आप को एक निष्पक्ष दर्शक के रूप में स्थापित कर लेते हैं, तो हमें पता चलता है कि विचार आते हैं, विचार जाते हैं। वे हमारे भीतर के आंतरिक चलचित्र हैं, परंतु हमारी जागरूकता – वह साक्षी है – जो उन सब को देखती रहती है। यह साक्षी भाव हमें यह एहसास कराता है कि “मैं केवल देख रहा हूँ, मैं किसी भी विचार से जुड़ा हुआ नहीं हूँ।”
ओशो के अनुसार, “विचार सदा पराए होते हैं; थिंकिंग अपनी होती है।” यह एक ऐसा संदेश है जिसे समझने के लिए हमें अपने भीतर झाँकने की आवश्यकता है। जब हम केवल सोचते हैं कि “अब यह विचार आया, अब वह चला गया,” तो हम स्वयं को उस क्षण में मुक्त कर लेते हैं। विचारों को पकड़ने या उनसे पहचान बनाने की बजाय, उन्हें अपने आप प्रवाहित होने दें।
कल्पना कीजिए कि आप एक नदी के किनारे बैठे हैं। नदी में पानी लगातार बहता रहता है। आप देखते हैं कि पानी के बहाव में कूदते पत्थर, तैरते पत्ते और बहते कचरे आते हैं, लेकिन आप उन सब से अटके नहीं रहते। आप बस देखते हैं, मुस्कुराते हैं, और अपनी मौन अनुभूति में लीन हो जाते हैं। यह साक्षी भाव की अनुभूति है। उसी प्रकार, जब हम अपने मन में आने वाले विचारों को बिना पकड़े, केवल देखते हैं, तो हम अपनी स्वाभाविक स्वतंत्रता को पुनः प्राप्त करते हैं।
5. विचारों से पहचान जोड़ना – बंधन का निर्माण
एक और गहरी समझ यह है कि जब हम अपने आप को विचारों से जोड़ लेते हैं, तो हम स्वयं को एक भ्रम में फंसाते हैं। विचारों के साथ हमारी पहचान बन जाती है और यह पहचान धीरे-धीरे हमारे अस्तित्व को घेर लेती है। हम कहते हैं, “मैं यह सोचता हूँ, इसलिए मैं हूँ।” परन्तु यह कथन केवल एक छलावा है, क्योंकि सोचने की प्रक्रिया तो सभी प्राणियों में होती है – लेकिन केवल आप ही उस सोच को अपना मान लेते हैं।
एक साधारण उदाहरण से समझें: एक बच्चे को अपनी पहली साइकल पर गर्व होता है, लेकिन जब वह अपनी साइकल से अधिक पहचान बना लेता है, तो वह हर छोटी गलती पर आहत हो जाता है। यदि वह अपनी साइकल के अभिन्न अंग बन जाता है, तो साइकल में होने वाली छोटी-छोटी खामियों से उसका आत्म-सम्मान टूट जाता है। इसी प्रकार, यदि हम अपने विचारों को अपना मान लेते हैं, तो हर एक विचार जो हमारे मन में आता है, वह हमें बांधने लगता है।
यहां ओशो की कटाक्षपूर्ण शैली प्रकट होती है – “अगर तुम सोचते हो कि विचार तुम्हारे हैं, तो तुम खुद को एक अजीब जंजाल में फँसा लेते हो।” जब हम अपने विचारों से अपने अस्तित्व की पहचान जोड़ लेते हैं, तो हम उन पर इतने निर्भर हो जाते हैं कि एक बार अगर वे बदल गए तो हमारा सम्पूर्ण अस्तित्व ध्वस्त हो जाता है। यह निर्भरता हमें मानसिक रूप से कमजोर बना देती है।
विचारों को पराया समझने का अर्थ यह है कि हम उन्हें अपने अस्तित्व का हिस्सा मानने से इंकार कर देते हैं। हम कह देते हैं, “विचार आते हैं, विचार जाते हैं – मैं तो बस देखने वाला हूँ।” इस दृष्टिकोण से हम अपने आप को उन विचारों के गुलाम होने से बचा लेते हैं और एक प्रकार की आंतरिक स्वतंत्रता का अनुभव करते हैं।
6. कहानियाँ और रूपक – विचारों की परछाइयाँ
कई बार कहानियाँ और रूपक हमें उन गूढ़ सच्चाइयों तक पहुँचने में मदद करते हैं जिन्हें शब्दों में समझाना कठिन हो जाता है। कल्पना कीजिए, एक बार एक व्यक्ति जंगल में भटक रहा था। वह सोच में इतना डूबा हुआ था कि उसने जंगल की सुंदरता, पक्षियों की चहचहाहट और हवा की हल्की खुशबू का अनुभव करना ही भूल गया। उसकी पूरी दुनिया उसके अंदर चल रहे विचारों में सीमित हो गई थी। उसे ऐसा लगता था कि वही विचार ही उसका अस्तित्व हैं, जबकि बाहर की दुनिया उसकी प्रतीक्षा कर रही थी।
एक अन्य रूपक है – एक पतंग का। पतंग को उड़ते हुए देखने में कितना सौंदर्य होता है, परंतु यदि हम पतंग की डोर को पकड़ लें, तो वह हमारी पकड़ में आ जाती है। पतंग की उड़ान में उसकी वास्तविक सुंदरता छुपी होती है, लेकिन उसकी डोर को थाम कर हम उसे नियंत्रित करने लगते हैं। इसी प्रकार, जब हम अपने विचारों को पकड़ लेते हैं, तो हम उनके प्रवाह को रोक लेते हैं और अपने आप को बंधन में डाल लेते हैं। विचारों को बहने दें, उन्हें नियंत्रित न करें, तभी हम उस सुंदरता को महसूस कर पाएंगे जो हमारी आत्मा में निहित है।
ओशो कहते हैं कि विचार आते हैं, जाते हैं, लेकिन थिंकिंग – वह एक क्रिया है जिसे हम चुनते हैं। यह क्रिया हमारे अंदर की रचनात्मकता, हमारी जागरूकता और हमारी स्वतंत्रता का प्रतीक है। यदि हम अपने आप को केवल थिंकिंग में उलझा देते हैं, तो हम विचारों के भूतपूर्व मेले में फँस जाते हैं। मगर अगर हम साक्षी बन जाते हैं, तो हम उस मेले से बाहर निकल सकते हैं और अपनी वास्तविकता को पुनः प्राप्त कर सकते हैं।
7. विचारों की धाराएँ – नियंत्रित करने का भ्रम
विचारों की धारा इतनी प्रबल होती है कि जब हम उन्हें अपनी पहचान बना लेते हैं, तो वे हमें ऐसे घेरे लेते हैं जैसे एक नदी अपने किनारे पर उभरते हुए छोटे-छोटे कंकड़-मार्बल। यह धाराएँ इतनी तेज़ होती हैं कि जब तक हम उनमें खुद को खो देते हैं, तब तक हमें यह अहसास ही नहीं होता कि हम एक असली, स्थिर और शुद्ध चेतना से दूर हो गए हैं।
कई बार ऐसा लगता है कि विचार हमारे ऊपर हावी हो गए हैं। हम सोचते हैं कि ये विचार हमारी शक्ति हैं, हमारी पहचान हैं। परंतु वास्तव में, ये विचार केवल हमारे मन की चलती-फिरती छाया हैं, जो बिना किसी नियंत्रण के आते हैं। जब हम सोचते हैं कि “मैं यह महसूस करता हूँ, इसलिए मैं हूँ,” तो हम उस अनुभव की वास्तविकता से दूर हो जाते हैं। हमें समझना होगा कि अनुभव और विचार अलग-अलग स्तरों पर काम करते हैं। अनुभव हमारे भीतर की जागरूकता है, जबकि विचार बस संकेत हैं।
ओशो के प्रवचनों में अक्सर यह बात सामने आती है कि “विचारों का शासन मन को अंधकार में ले जाता है।” जब हम अपने मन को विचारों के गड़बड़ झमेले में उलझा लेते हैं, तो हमारी वास्तविक चेतना खो जाती है। हम अपने आप को उस अंधकार में पाते हैं जहाँ अतीत, वर्तमान और भविष्य की सभी उलझनें एक साथ मिल जाती हैं। यही वह अवस्था है जहाँ से सच्ची स्वतंत्रता का द्वार खुलता है – जब हम विचारों से ऊपर उठकर उन्हें एक पराये तत्व के रूप में देखने लगते हैं।
8. साक्षी बनकर – विचारों को देखने की कला
तो आइए, हम साक्षी बनने की कला सीखें। साक्षी बनना मतलब है अपने मन में उठते विचारों को बिना किसी निर्णय या प्रतिक्रिया के देखने की स्थिति में आ जाना। यह ऐसा है जैसे आप एक शांत झील के किनारे बैठे हों, जहाँ पानी की सतह पर हर प्रकार की लहरें आती-जाती रहती हैं, पर आप उस पानी में डूबे बिना, बस देखते रहते हैं।
इसमें कोई दिक्कत नहीं है कि विचार आते हैं, क्योंकि वे तो प्रकृति का नियम हैं। परंतु समस्या तब उत्पन्न होती है जब हम उन विचारों से अपनी पहचान जोड़ लेते हैं। हम सोचते हैं कि “यह मेरा विचार है” और तभी से वे विचार हमें नियंत्रित करने लगते हैं। जब हम साक्षी बनते हैं, तो हम कहते हैं, “हाँ, यह विचार आया, पर मैं उसे पकड़ने वाला नहीं हूँ।” यह सरल सा सा आश्वासन हमें मन की शांति देता है।
जब हम ध्यान में बैठते हैं, तो अक्सर हमें अपने मन में उठते विचारों का एक भयंकर सागर दिखाई देता है। परंतु ध्यान का अभ्यास यही सिखाता है कि उस सागर में तैरते-तैरते भी हम खुद को अलग रख सकते हैं, उस पानी में डूबे बिना, केवल तैरते हुए, उसे देखते हुए। यही है साक्षी भाव। जब आप इस भाव को अपनाते हैं, तो आप देखेंगे कि विचार – चाहे कितने भी प्रबल क्यों न हों – वे आपको छूने नहीं पाएंगे। आप स्वयं एक स्थिर, शांत और अडिग चेतना के रूप में खड़े रहेंगे।
9. विचारों का स्वाभाविक प्रवाह – निरंतरता और परिवर्तन
यह समझना भी अत्यंत आवश्यक है कि विचार कभी स्थिर नहीं रहते, वे निरंतर परिवर्तित होते रहते हैं। एक क्षण में एक विचार प्रकट होता है, तो अगले ही क्षण में वह गायब हो जाता है। यह निरंतर परिवर्तन जीवन की अनिवार्य प्रक्रिया है। अगर हम इस परिवर्तनशीलता को समझने लगते हैं, तो हम विचारों के प्रति अपनी आसक्ति को कम कर देते हैं।
जब हम किसी नदी के प्रवाह को देखते हैं, तो हमें यह स्पष्ट हो जाता है कि पानी का हर कण, हर बूंद एक निश्चित दिशा में आगे बढ़ता है, परंतु स्वयं नदी का स्वरूप अटल रहता है। इसी प्रकार, विचारों की भी अपनी एक प्रवृत्ति है – वे आते हैं, जाते हैं, परंतु हमारा वास्तविक अस्तित्व, हमारी जागरूकता, स्थिर रहती है।
ओशो की एक मशहूर बात है – “विचारों की बारात में शामिल मत हो, बस पास से देखो।” यह कटाक्ष हमें यह याद दिलाता है कि विचार केवल दर्शक होते हैं, हमें उनमें उलझ कर अपने जीवन को बर्बाद नहीं करना चाहिए। यदि हम अपने आप को विचारों से अलग रख सकते हैं, तो हम उस निरंतर परिवर्तन को सहजता से स्वीकार कर सकते हैं।
10. स्वतंत्रता की ओर – विचारों से मुक्ति का अनुभव
जब हम अंततः अपने आप को विचारों से अलग पहचानने लगते हैं, तो एक अद्भुत परिवर्तन होता है। वह परिवर्तन केवल मन की शांति नहीं, बल्कि एक गहरी स्वतंत्रता का अनुभव होता है। यह स्वतंत्रता किसी भी बाहरी परिस्थिति से नहीं, बल्कि हमारे अंदर की उस स्वच्छ, शुद्ध जागरूकता से आती है जो विचारों के इस भ्रम से परे है।
स्वतंत्रता का अर्थ है – हर एक विचार को आने देना, उसे जाने देना और स्वयं केवल साक्षी बनकर उसकी उपस्थिती का अनुभव करना। यह अवस्था हमें उस अविचलित शांति की ओर ले जाती है, जहाँ हम किसी भी बाहरी प्रभाव से अछूते रहते हैं। यह वही पल है जब हम कहते हैं, “मेरा मन मेरा नहीं, वह तो एक क्षेत्र है जहाँ विचार केवल आगंतुक हैं।”
जब हम इस सत्य को अपनाते हैं, तो हम देखते हैं कि विचार चाहे कितने भी प्रबल क्यों न हों, वे हमारी आत्मा का हिस्सा नहीं बनते। हम स्वतंत्र हो जाते हैं, क्योंकि हमारी पहचान अब विचारों से नहीं, बल्कि उस अटूट चेतना से होती है जो हम हैं। यह चेतना, जो हर पल हमारे भीतर विद्यमान रहती है, वह हमें जीवन के हर उतार-चढ़ाव में स्थिर रखती है।
एक साधु कहते हैं – “जब तुम स्वयं को विचारों से अलग कर लेते हो, तो तुम अनंत की अनुभूति करते हो।” यह न केवल एक आध्यात्मिक सत्य है, बल्कि एक गहन मनोवैज्ञानिक अनुभव भी है। जो लोग विचारों के बंधन में फंस जाते हैं, वे अक्सर असहजता, चिंता और मानसिक उथल-पुथल का अनुभव करते हैं। परंतु जो लोग साक्षी भाव को अपना लेते हैं, वे जीवन की वास्तविकता में प्रवेश कर जाते हैं – एक ऐसी वास्तविकता जहाँ केवल शांति, प्रेम और स्वतंत्रता का वास होता है।
11. आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता – विचारों का आलोचनात्मक अवलोकन
अंत में, यह समझना भी अत्यंत आवश्यक है कि विचारों के प्रति हमारी आसक्ति स्वयं हमारे विकास में बाधा डालती है। आत्मनिरीक्षण की प्रक्रिया में हमें अपने विचारों का आलोचनात्मक अवलोकन करना चाहिए। हमें यह देखना चाहिए कि कौन से विचार हमें उन्नति की ओर ले जाते हैं और कौन से विचार हमें गिरावट की ओर धकेलते हैं।
कई बार हम अपने मन में चल रही अनगिनत वार्ताओं में उलझ जाते हैं – “मैं क्या करूँ, मैं ऐसा क्यों महसूस कर रहा हूँ, ये सब मेरे नियंत्रण में नहीं है।” ऐसी स्थिति में, हमें अपने आप से पूछना चाहिए – “क्या ये विचार वास्तव में मेरा हैं या फिर ये बाहरी तत्व हैं जो मेरे मन में स्वाभाविक रूप से आते हैं?” जब हम इस प्रश्न को गहराई से सोचते हैं, तो हमें अहसास होता है कि विचार तो केवल संकेत हैं, जबकि हमारी थिंकिंग प्रक्रिया, हमारी निर्णय क्षमता, वह हमारी अपनी शक्ति है।
ओशो के शब्दों में, “थिंकिंग अपनी होती है, थॉट हमेशा पराया होता है।” यह एक गहरी सत्यता को उजागर करता है – हमारी स्वयं की पहचान उस थिंकिंग में है, न कि उन विचारों में जो अनायास उत्पन्न होते हैं। यदि हम इस सत्य को समझ लेते हैं, तो हम अपने आप को विचारों के चक्कर से मुक्त कर सकते हैं।
आत्मनिरीक्षण हमें यह सीखाता है कि विचारों के साथ किसी भी प्रकार की लड़ाई में शामिल होने के बजाय, हमें उन्हें आने देना चाहिए, जैसे कि पत्ते पतझड़ में गिरते हैं। जब हम बिना किसी प्रतिक्रिया के उन्हें देखने लगते हैं, तो हम स्वयं के भीतर की शांति और स्वतंत्रता का अनुभव करते हैं।
12. निष्कर्ष – विचारों से परे, एक स्वतंत्र अस्तित्व की ओर
तो अंततः, हम यह समझ सकते हैं कि विचार अपने आप में बाहरी तत्व हैं – वे हमारे मन में अनायास आते हैं, परंतु उनमें हमारी पहचान नहीं होती। थिंकिंग, अर्थात् सोचने की प्रक्रिया, हमारी अपनी है, और इसमें हमारी स्वतंत्रता निहित है। जब हम अपने आप को विचारों से जोड़ लेते हैं, तो हम स्वयं को एक भ्रम में बाँध लेते हैं, जहाँ हर विचार हमारी पहचान का हिस्सा बन जाता है।
ओशो कहते हैं कि “विचार पराए होते हैं,” और यह संदेश हमें यह समझाता है कि यदि हम विचारों को बाहरी तत्वों के रूप में देखना सीख जाएँ, तो हम उनमें उलझकर अपनी वास्तविकता खोने से बच सकते हैं। विचारों को केवल आने और जाने देने दें, उन्हें पकड़ने या पहचान बनाने का प्रयास न करें। इस प्रकार, आप उस शुद्ध और अटूट जागरूकता को पा सकते हैं, जो आपके भीतर निहित है।
यह स्वतंत्रता न केवल मानसिक शांति का स्रोत है, बल्कि एक सम्पूर्ण आध्यात्मिक अनुभव भी है। जब हम साक्षी बन जाते हैं, तो हम समझते हैं कि जीवन के हर पहलू में – चाहे वह खुशी हो या दुख, सफलता हो या असफलता – सभी केवल विचारों का प्रवाह हैं। और जब यह प्रवाह हमें घेर लेता है, तो हमें यह एहसास होता है कि असली शक्ति और स्वतंत्रता हमारे भीतर, उस अव्यक्त चेतना में निहित है, जो विचारों के पार है।
आज, जब आप अपने मन में चल रहे विचारों को देखते हैं, तो याद रखिए – ये केवल आगंतुक हैं, आपके अस्तित्व के स्थायी अंग नहीं। अपनी थिंकिंग प्रक्रिया को अपनाइए, परंतु उन विचारों से अपना संबंध काट दीजिए। क्योंकि जब आप इस संबंध को तोड़ देंगे, तभी आप उस अनंत और अटल चेतना का अनुभव कर पाएंगे, जो हर पल आपके साथ है।
यह प्रवचन हमें यह सिखाता है कि विचारों के साथ किसी भी प्रकार की आत्मसाति या पहचान बनाना एक प्रकार का बंधन है, जो हमें उस वास्तविक स्वतंत्रता से दूर ले जाता है, जिसे हम सभी के भीतर खोजा जा सकता है। ओशो की तरह, हमें अपने जीवन को एक ऐसी कला के रूप में देखना चाहिए, जहाँ हम विचारों को सजगता से आने देते हैं, पर उन्हें पकड़कर अपनी पहचान न बना लेते।
इस प्रकार, विचारों से परे जाकर, केवल साक्षी बनकर, हम अपने जीवन में वह स्वतंत्रता पा सकते हैं जो अनंत है। विचार चाहे कितने भी प्रबल क्यों न हों, उनका नियंत्रण हम पर तभी हो सकता है जब हम उन्हें अपना मान लेते हैं। अगर हम उन्हें बस एक बाहरी प्रवाह के रूप में देखते हैं, तो हमारी थिंकिंग – हमारी रचनात्मकता – हमें सही दिशा में ले जाती है।
तो चलिए, आज से एक नया दृष्टिकोण अपनाएं – विचारों को बाहरी, पराये तत्व के रूप में देखें। उनके आने जाने का आनंद लें, बिना उनसे जुड़ाव महसूस किए। यही वह मार्ग है जो आपको उस असीम स्वतंत्रता की ओर ले जाएगा, जिसे हर इंसान की मूल प्रकृति में निहित है।
आख़िरकार, जीवन का सच्चा सार यह नहीं कि हम कितनी बार सोचते हैं, बल्कि यह है कि हम उन सोचों के पार जाकर अपनी असली पहचान, अपनी सच्ची चेतना, को कैसे जान पाते हैं। और यही वह रहस्य है, वह दिव्य सत्य, जिसे समझकर आप न केवल अपने मन को, बल्कि अपने पूरे जीवन को एक नए अर्थ से भर देंगे।
याद रखिए – विचार आते हैं, विचार जाते हैं, परंतु आपकी सच्ची पहचान, आपकी जागरूकता, वह स्थायी है। ओशो के इस अद्भुत प्रवचन में निहित यह संदेश हमें प्रेरित करता है कि आप अपने मन के आकाश में उड़ते हुए बादलों को केवल देखिए, बिना उन्हें पकड़ने की इच्छा किए। यही वह मार्ग है जो आपको अंततः अपने आप से, अपने अस्तित्व से मिलने में सक्षम करेगा।
इस ध्यानपूर्ण यात्रा में, जब आप अपने विचारों की भीड़ से परे, उस शुद्ध और निर्बाध चेतना तक पहुँचेंगे, तो आप पाएंगे कि आपकी स्वतंत्रता न केवल मानसिक शांति है, बल्कि एक सम्पूर्ण आध्यात्मिक उन्नति है। यह उन्नति आपको जीवन के हर पहलू में, हर अनुभव में एक नई रोशनी प्रदान करेगी – वह रोशनी जो आपके अंदर के अटूट सत्य को प्रकट करेगी।
इस प्रवचन के माध्यम से यह संदेश स्पष्ट होता है कि विचार स्वयं तो बस पराये हैं; उनका आगमन और प्रस्थान एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, परंतु उन्हें पकड़ लेना, उनसे अपना अस्तित्व जोड़ लेना, एक भ्रम है। जब आप इस भ्रम को तोड़ देंगे, तभी आप उस अनंत स्वतंत्रता का अनुभव करेंगे, जिसे कोई बाहरी तत्व न तो प्राप्त कर सकता है और न ही उसे नियंत्रित कर सकता है।
आख़िर में, यह कहना उचित होगा कि अपने विचारों को स्वतंत्र रूप से आने दें, उन्हें बस देखने दें – एक साक्षी की दृष्टि से। उस साक्षी भाव में ही आपकी असली शक्ति निहित है, जो न केवल आपके मन को शांत रखती है, बल्कि आपको उस अद्भुत स्वतंत्रता का अहसास कराती है, जिसे हर आत्मा को प्राप्त होना चाहिए। यही है वह मार्ग, वह सत्य, और यही है वह अद्भुत अनुभव जो आपको जीवन के वास्तविक रंगों से रूबरू कराएगा।
13. एक अंतिम विचार
जब आप अगली बार अपने मन में उठते विचारों की भीड़ देखेंगे, तो एक पल के लिए रुक जाएँ। देखें कि कैसे ये विचार आते हैं, कैसे जाते हैं – एक पल में खिलते हैं, एक पल में मुरझा जाते हैं। उन्हें पकड़ने की कोशिश न करें, क्योंकि पकड़ने की कोई जरूरत नहीं है। आपका अस्तित्व इन विचारों से कहीं अधिक गहरा, कहीं अधिक विशाल है।
ओशो ने हमें यह सिखाया कि “थिंकिंग अपनी होती है, थॉट हमेशा पराया होता है।” इस सत्य को समझिए और अपनाइए। अपने मन में आने वाले हर विचार को केवल एक आगंतुक की तरह देखने का अभ्यास कीजिए, और देखिए कि कैसे आपका मन धीरे-धीरे उस शुद्ध, शांत और अटूट चेतना से भर जाता है, जो आपके अंदर हमेशा से मौजूद रही है। यही है वह मार्ग जो आपको मानसिक बंधनों से मुक्ति दिलाएगा, और आपको जीवन के असली अर्थ से रूबरू कराएगा।
आज इस प्रवचन का उद्देश्य यही था कि आप यह जान सकें कि विचार केवल बाहरी तत्व हैं, जो बिना किसी आग्रह के आपके मन में आते हैं। लेकिन थिंकिंग, आपकी क्रियात्मक जागरूकता, वह आपकी अपनी है। जब आप इन दोनों के बीच के अंतर को समझेंगे, तो आप पाएंगे कि वास्तविक स्वतंत्रता का अनुभव तभी संभव है जब आप विचारों को पराया समझते हुए केवल साक्षी बन जाते हैं।
इस गहन अनुभव की ओर पहला कदम है – अपने मन के साथ एक सच्चा संवाद करना, बिना किसी डर के, बिना किसी उम्मीद के। अपने विचारों को आने और जाने दें, और केवल देखें कि वे कैसे आपकी आंतरिक यात्रा का हिस्सा बनते हैं। यही वह साधना है, वही वह ध्यान है, जो आपको अंततः उस उच्चतम सत्य तक ले जाएगा, जहाँ आप स्वयं को एक अनंत, स्वतंत्र और निर्विकार चेतना के रूप में पहचानेंगे।
इस प्रकार, ओशो की इस प्रवचन शैली में, हमने यह समझने का प्रयास किया कि विचार, जो बाहरी और पराये तत्व हैं, कैसे हमारे मन में प्रवेश करते हैं और हमारी थिंकिंग प्रक्रिया पर प्रभाव डालते हैं। हमने देखा कि विचारों से अपनी पहचान जोड़ लेना एक प्रकार का मानसिक बंधन है, जो हमें असली स्वतंत्रता से दूर कर देता है। केवल साक्षी बनकर, विचारों के आगमन और प्रस्थान को बिना पकड़ के देखने से, हम उस शुद्ध चेतना तक पहुँच सकते हैं, जो हमारे भीतर सदैव विद्यमान रहती है।
यह एक लंबी, गहन और मनोवैज्ञानिक यात्रा है, जहाँ प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं के मन के आंतरिक स्वरूप को पहचानना होता है। जब आप इस राह पर चलेंगे, तो धीरे-धीरे आपको वह अनुभूति होगी कि आप अपने विचारों के गुलाम नहीं, बल्कि स्वयं एक स्वतंत्र चेतना हैं। और यही है वह वास्तविक मुक्तिवाद, वह वह प्रकाश जो आपके जीवन को सच्ची शांति, प्रेम और आनंद से भर देगा।
इस प्रवचन के माध्यम से मैं आपसे यही कहना चाहूँगा कि अपने विचारों को पकड़ने या उनसे जुड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। बस उन्हें आने दें, बस उन्हें जाने दें, और स्वयं केवल साक्षी बनकर देखें। यही वह अद्भुत अनुभव है जो आपको मानसिक, आध्यात्मिक और अस्तित्वगत स्वतंत्रता की ओर ले जाएगा।
आइए, हम सब मिलकर इस सच्चे स्वतंत्रता के मार्ग पर चलें – जहाँ विचार केवल बाहरी प्रवाह हैं, और हमारी थिंकिंग प्रक्रिया ही हमारी असली पहचान है। यही है वह सत्य, यही है वह मार्ग, और यही है वह अद्भुत अनुभव जो हमें हमारे सच्चे अस्तित्व से रूबरू कराता है।
यह प्रवचन, आपको यह संदेश देने का प्रयास है कि विचारों से अपनी पहचान जोड़ना हमें मानसिक बंधनों में उलझा देता है, जबकि उन्हें पराया समझकर केवल साक्षी बनने से हम उस अनंत स्वतंत्रता का अनुभव कर सकते हैं, जो हमारे भीतर सदैव विद्यमान है। जब आप इस सत्य को अपनाएंगे, तो आप देखेंगे कि जीवन में हर पल कितनी सरलता, कितनी शांति और कितनी गहराई से जी सकते हैं।
यह आपका निमंत्रण है – अपने मन के आकाश में उड़ते हुए विचारों को देखिए, उन्हें छूकर गुजर जाने दीजिए, और स्वयं उस अटूट, अनंत चेतना में विलीन हो जाइए, जो आपकी असली पहचान है। यही है जीवन का सच्चा सार, यही है मुक्तिवाद का अनुभव, और यही है वह अद्भुत रहस्य, जो हर आत्मा के भीतर निहित है।
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