प्रेम कोई कर्मसूत्र नहीं है, न ही यह किसी शर्त या अपेक्षा का परिणाम है। प्रेम, जैसा कि ओशो ने कहा – "प्रेम तो प्रकृति है, ये कोई व्यवहार थोड़ी है कि तुम करो तो ही मैं करूँ" – वह स्वाभाविक, सहज और स्वयंसिद्ध अनुभूति है, जो बिना किसी कोशिश के, बिना किसी अपेक्षा के, अपने आप ही प्रकट हो जाती है। आइए, इस प्रवचन में हम प्रेम की उस आत्मिक वास्तविकता की खोज करें और समझें कि कैसे आधुनिक जीवन की जटिलताओं में भी प्रेम का यह स्वरूप विद्यमान है।
प्रेम: एक स्वाभाविक प्रवाह
जब हम प्रेम की बात करते हैं, तो अक्सर हम उसे एक कर्म के रूप में देख लेते हैं—जैसे कि हमें किसी व्यक्ति के लिए कुछ करना होगा, कोई उम्मीद पूरी करनी होगी, या फिर किसी निश्चित व्यवहार को अपनाना होगा। लेकिन अगर हम ध्यान से देखें तो प्रेम स्वयं में एक ऐसी शक्ति है जो प्रकृति की मूलभूत धारा की तरह निरंतर बहती रहती है। यह न तो हमारी इच्छाओं द्वारा निर्मित है और न ही किसी शर्त के अधीन है। प्रेम का अस्तित्व उसी प्रकार है जैसे सूरज का उदय, नदी का प्रवाह, और हवा की मंद मंद सरसराहट—ये सब बिना किसी प्रयास के, स्वयंसिद्ध रूप से प्रकट होते हैं।
ओशो कहते हैं, "प्रेम तो प्रकृति है," अर्थात प्रेम कोई बाहरी कर्म नहीं, बल्कि हमारे अंदर के स्वाभाविक अस्तित्व का हिस्सा है। इसे प्राप्त करने के लिए हमें किसी बाहरी कर्म या व्यवहार की आवश्यकता नहीं होती। यदि हम अपने अंदर झांकें, तो हमें उस अदृश्य ऊर्जा का अनुभव होगा जो बिना किसी अपेक्षा के, बिना किसी शर्त के, बस मौजूद है। यह वह ऊर्जा है जो हमें जीवन में सत्य, शांति और आनंद की अनुभूति कराती है।
जब हम प्रेम को किसी व्यवहार या कर्तव्य के रूप में देखते हैं, तो हम उसे बाँधने की कोशिश करते हैं। हम सोचते हैं कि अगर तुमने मुझे प्यार नहीं किया तो मैं भी प्यार नहीं करूँगा, या फिर अगर मैं किसी को प्यार करूँगा तो उसे बदले में कुछ करना होगा। इस तरह की सोच में प्रेम का स्वाभाविक प्रवाह रुक जाता है। प्रेम तब सच्चा होता है जब यह निःस्वार्थ, सहज और स्वयंसिद्ध हो। यह उसी प्रकार है जैसे नदी बिना किसी दबाव के अपने रास्ते पर बहती रहती है, चाहे रास्ते में कितनी भी बाधाएँ क्यों न आ जाएँ।
प्रेम में स्वाभाविकता और सहजता
आधुनिक जीवन में हम अक्सर इस भ्रम में रहते हैं कि प्रेम को किसी विशेष परिस्थिति, समय या क्रिया पर निर्भर किया जा सकता है। हम कहते हैं कि "अगर तुमने मुझे वह किया तो मैं तुम्हें प्रेम करूँगा" या "अगर तुम मेरे प्रति सच्चे रहोगे तो मैं भी तुम्हें प्यार करूंगा।" लेकिन क्या यह प्रेम का स्वाभाव है? प्रेम तो एक ऐसी अनुभूति है जो हमारे अंदर से आती है, बिना किसी बाहरी प्रेरणा या दबाव के। इसे न तो बदला जा सकता है और न ही मापा जा सकता है।
जब हम प्रेम को एक व्यवहारिक कर्तव्य में बदल देते हैं, तो हम उसके स्वाभाविक प्रवाह को रुकने का जोखिम उठाते हैं। ऐसा करने से प्रेम का वह जादू खो जाता है जो उसे जीवंत बनाता है। उदाहरण के तौर पर, यदि कोई माता-पिता अपने बच्चे से केवल तब ही प्रेम जताते हैं जब बच्चा किसी खास उपलब्धि को हासिल करता है, तो उस प्रेम में सच्ची निष्ठा और बिना शर्तता नहीं रह पाती। असली प्रेम तो वही है जो बिना किसी अपेक्षा के, बिना किसी शर्त के, अपने आप में प्रकट होता है।
इस संदर्भ में ओशो हमें यह समझाते हैं कि प्रेम को अगर हम बाहरी क्रियाओं या अपेक्षाओं से बाँधने की कोशिश करेंगे तो वह प्रेम की प्राकृतिक धाराओं से वंचित हो जाएगा। प्रेम का यह स्वाभाविक रूप हमें यह सिखाता है कि प्रेम करने के लिए कोई नियम या शर्त नहीं होती, बल्कि यह तो जीवन का एक ऐसा तत्व है जो हमारे अस्तित्व में निहित है।
आधुनिक जीवन में प्रेम का स्वरूप
आधुनिक युग में जहाँ तकनीकी प्रगति, सामाजिक मीडिया और तेज़-तर्रार जीवनशैली ने मानव संबंधों में जटिलताएँ पैदा कर दी हैं, वहीं प्रेम की इस स्वाभाविकता को समझना और अपनाना अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है। आजकल हम देखते हैं कि लोग प्रेम संबंधों में अक्सर अपेक्षाओं और शर्तों के जाल में उलझ जाते हैं। एक दूसरे से अपेक्षाएँ रखने लगते हैं, कि अगर तुम मेरे लिए कुछ करोगे तो मैं भी तुम्हारे लिए कुछ करूंगा। इस तरह की अपेक्षाएँ प्रेम की स्वाभाविकता को बाधित कर देती हैं।
जब हम प्रेम को इस प्रकार से मापते हैं, तो हम उसे किसी कार्य या परिणाम से जोड़ लेते हैं। उदाहरण के तौर पर, अगर कोई साथी अपने प्रेमी या प्रेमिका से यह अपेक्षा रखता है कि वह हर परिस्थिति में उसे समझेगा, चाहे परिस्थितियाँ कैसी भी हों, तो यह अपेक्षा प्रेम को एक सीमित ढांचे में बाँध देती है। प्रेम, अगर वह स्वाभाविक है, तो वह न तो कोई शर्त मांगता है और न ही किसी विशेष व्यवहार का आह्वान करता है।
हमें यह समझना चाहिए कि प्रेम का वास्तविक स्वरूप किसी भी परिस्थिति में स्थायी रहता है। यह उसी प्रकार है जैसे प्रकृति में दिन और रात का चक्र चलता रहता है। प्रेम में भी एक प्राकृतिक संतुलन होता है जो बिना किसी हस्तक्षेप के, बिना किसी दबाव के, स्वयं में ही संतुलित रहता है। आधुनिक जीवन के अनेक उदाहरण हमें यही सिखाते हैं कि प्रेम को बाहरी अपेक्षाओं में बाँधने की बजाय, उसे अपनी सहज प्रवाहिता में जीने देना चाहिए।
व्यक्तिगत अनुभव: प्रेम की सहज अनुभूति
मेरे जीवन के कई अनुभव ऐसे हैं जहाँ मैंने महसूस किया कि प्रेम का अनुभव तब सबसे अधिक प्रबल होता है जब हम उसे मजबूर करने की कोशिश नहीं करते। एक बार की बात है, जब मैं एक शांत, सुनसान पहाड़ी इलाके में गया था, वहाँ की प्राकृतिक सुंदरता ने मुझे उस स्वाभाविक प्रेम की अनुभूति कराई जो हर जीव में विद्यमान है। उस समय मुझे समझ आया कि प्रेम कोई कर्म नहीं, बल्कि एक ऐसी ऊर्जा है जो हमारे अंदर के सम्पूर्ण अस्तित्व को स्पर्श करती है।
उस पहाड़ी क्षेत्र की ठंडी हवा, शांत नदियों का प्रवाह, और पहाड़ों की गोद में बिखरी हरियाली ने मुझे यह अहसास कराया कि प्रकृति में प्रेम की कोई कमी नहीं है। यहाँ पर प्रेम किसी व्यक्ति के द्वारा किया गया कोई विशेष कार्य नहीं था, बल्कि यह तो स्वयं में ही विद्यमान था—बिना किसी शर्त के, बिना किसी अपेक्षा के। उस अनुभव ने मुझे यह सिखाया कि जब हम प्रेम को किसी बाहरी कारक या व्यवहार से जोड़ते हैं, तो हम उसकी आत्मिक सुंदरता से दूर हो जाते हैं।
ऐसे ही अनुभव हमारे जीवन में बार-बार आते हैं, जब हम ध्यान से देखते हैं कि प्रेम असल में एक ऐसी अनुभूति है जिसे बाँधने या नियंत्रित करने की आवश्यकता नहीं होती। यह हमारे अंदर एक गहरी शांति और आत्मिक संतोष का संदेश लेकर आता है, जो हमें हमारे अस्तित्व के सार से जोड़ता है।
दार्शनिक विचार और ओशो की शिक्षाएँ
ओशो की शिक्षाएँ हमें यह समझाती हैं कि प्रेम को अगर हम किसी आदर्श या व्यवहार के रूप में देखेंगे तो हम उसकी वास्तविकता को खो देंगे। प्रेम तो प्रकृति की एक अनंत धारा है, जो स्वतः प्रवाहित होती है। जब हम प्रेम को केवल एक व्यवहारिक क्रिया मान लेते हैं, तो हम उसे उस स्वाभाविक आनंद से वंचित कर देते हैं जो बिना किसी अपेक्षा के, बिना किसी दबाव के मिलता है।
ओशो का यह कहना कि "प्रेम तो प्रकृति है" हमें यह संदेश देता है कि प्रेम का वास्तविक स्वरूप हमारी आंतरिक चेतना में निहित है। यह किसी बाहरी कारक से उत्पन्न नहीं होता, बल्कि यह हमारे अंदर की उस शुद्ध ऊर्जा का परिणाम है जो हर जीव में विद्यमान है। ओशो अक्सर कहते थे कि जब हम अपने आप में शांति और संतुलन को पाते हैं, तभी हम प्रेम की वास्तविक अनुभूति कर सकते हैं।
उनकी शिक्षाएँ हमें यह भी बताती हैं कि प्रेम को किसी प्रकार की बाधाओं में नहीं बांधना चाहिए। अगर हम प्रेम को किसी नियम, शर्त या सामाजिक मानदंड के अधीन कर देते हैं, तो वह प्रेम अपने स्वाभाविक रूप में प्रवाहित नहीं हो पाता। यह बिल्कुल वैसा ही है जैसे अगर हम नदी के प्रवाह को किसी टांके में बाँध दें, तो नदी अपनी स्वतंत्रता खो देती है।
दार्शनिक दृष्टिकोण से देखें तो प्रेम वह परम तत्व है जो सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त है। यह न तो किसी तर्क या सिद्धांत पर आधारित है, न ही किसी व्यवहारिक नियम से। प्रेम अपने आप में अनंत, अनंत और स्वयंसिद्ध है। इसे किसी भी प्रकार के बाहरी प्रोत्साहन की आवश्यकता नहीं होती। यह तो बस, हमारी आत्मा की गहराइयों से प्रकट होने वाली उस अनुग्रहपूर्ण ऊर्जा का प्रतीक है।
प्रेम की सहजता: कहानियाँ और उपमाएँ
कहते हैं कि एक बार एक गुरु अपने शिष्यों के बीच यह स्पष्ट करने के लिए आए कि प्रेम क्या होता है। उन्होंने एक छोटे से पौधे की उपमा दी। उन्होंने कहा, "देखो, यह पौधा अपने आप बढ़ता है, पानी और धूप मिलने पर यह खिल उठता है। इसे बढ़ने के लिए किसी विशेष आदेश या मेहनत की आवश्यकता नहीं होती। यह तो स्वाभाविक रूप से बढ़ता है, उसी तरह जैसे प्रेम भी बिना किसी बाधा के हमारे दिलों में उभर आता है।"
एक अन्य कहानी भी प्रचलित है जहाँ एक व्यक्ति ने अपने जीवन भर प्रेम की खोज की, लेकिन उसे केवल तभी प्रेम का अनुभव हुआ जब उसने उसे खोजने की कोशिश छोड़ दी। वह व्यक्ति दिन-रात प्रेम पाने की कोशिश में उलझा रहा, लेकिन अंततः उसने महसूस किया कि प्रेम उसके अंदर ही विद्यमान था। यह कहानी हमें यह समझाती है कि प्रेम की अनुभूति तब होती है जब हम उसे अपनी जिंदगी में स्वाभाविक रूप से आने देते हैं, बिना किसी मजबूरी या अपेक्षा के।
ऐसी कई कहानियाँ और उपमाएँ हमारे चारों ओर फैली हुई हैं, जो हमें यह संदेश देती हैं कि प्रेम का अस्तित्व कोई बाहरी कर्म नहीं है, बल्कि यह तो हमारे अंदर की एक ऐसी शक्ति है जिसे नियंत्रित करने की आवश्यकता नहीं होती। प्रेम बस, मौजूद है—स्वाभाविक रूप से, सहजता से, और अपने आप में ही पूर्ण है।
आंतरिक यात्रा और ध्यान का महत्व
प्रेम का अनुभव करने के लिए हमें अपनी आंतरिक यात्रा पर ध्यान देने की आवश्यकता है। जब हम ध्यान और आत्मनिरीक्षण में लीन हो जाते हैं, तब हमें उस गहरी ऊर्जा का अनुभव होता है जो हमारे अंदर विद्यमान है। ध्यान के माध्यम से हम अपने अंदर के उस अनदेखे क्षेत्र से संपर्क करते हैं जहाँ प्रेम की असली झलक छिपी होती है।
आधुनिक जीवन की भागदौड़ और मानसिक अशांति हमें अक्सर इस गहरे आत्मिक स्रोत से दूर कर देती है। परन्तु यदि हम नियमित ध्यान करें, तो हम न केवल अपने मन को शांत कर सकते हैं, बल्कि उस स्वाभाविक प्रेम को भी अनुभव कर सकते हैं जो हमारे दिल में सदैव प्रवाहित होता रहता है। यह ध्यान हमें यह समझाने में मदद करता है कि प्रेम को किसी बाहरी कारक या क्रिया पर निर्भर नहीं किया जा सकता, बल्कि यह तो हमारे भीतर की एक अविभाज्य शक्ति है।
जब हम अपने अंदर झांकते हैं, तो हमें उस स्वाभाविक ऊर्जा का अनुभव होता है जो बिना किसी प्रयास के, बिना किसी अपेक्षा के, बस मौजूद होती है। यह ऊर्जा हमें हमारे अस्तित्व की सच्चाई से जोड़ती है, हमें याद दिलाती है कि हम अपने आप में पूरे हैं, और यह पूर्णता ही सच्चा प्रेम है।
समापन: प्रेम का स्वाभाविक अस्तित्व
अंत में यह समझना अत्यंत आवश्यक है कि प्रेम कोई कर्मसूत्र नहीं है, न ही यह किसी व्यवहार या कर्तव्य का परिणाम है। प्रेम तो प्रकृति की उस अनंत धारा का प्रतिबिंब है जो हमारे जीवन में बिना किसी रुकावट के बहती रहती है। यह हमारे अस्तित्व का एक अनिवार्य अंग है, जिसे हम अपने अंदर की गहराइयों से अनुभव कर सकते हैं।
ओशो के विचार हमें यह सिखाते हैं कि प्रेम को किसी भी बाहरी दबाव, अपेक्षा या नियम में बांधने की कोशिश करना उसे उसकी प्राकृतिक सुंदरता से वंचित कर देता है। प्रेम एक ऐसा अनमोल उपहार है जो हमें तब मिलता है जब हम अपने अंदर की सच्चाई को पहचान लेते हैं और अपने अस्तित्व को बिना किसी झूठे ढांचे के अपनाते हैं।
आज के इस युग में, जहाँ सभी लोग प्रेम के लिए जटिलताओं में उलझे हुए हैं, हमें यह समझना चाहिए कि असली प्रेम वही है जो सहज, स्वाभाविक और बिना किसी शर्त के प्रकट हो। हमें प्रेम के उस शुद्ध स्वरूप को अपनाना होगा जो हमारे अंदर निहित है, और इसे किसी भी बाहरी अपेक्षा या व्यवहार से बाँधने का प्रयास नहीं करना चाहिए।
यदि हम प्रेम को उसी रूप में स्वीकार करते हैं जैसा कि वह है—एक स्वाभाविक प्रवाह, एक सहज ऊर्जा, और एक अविभाज्य अस्तित्व—तो हम न केवल अपने जीवन में संतुलन और शांति पा सकते हैं, बल्कि अपने आसपास के वातावरण में भी एक सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं। यह प्रेम ही है जो हमें एक दूसरे के साथ जोड़ता है, हमें आत्मिक रूप से जोड़ता है, और हमें जीवन का वास्तविक अर्थ समझाता है।
इस प्रकार, प्रेम कोई कर्म नहीं, कोई व्यवहार नहीं, और न ही कोई शर्त है—यह तो प्रकृति का वही स्वाभाविक और सहज रूप है, जो हर पल हमारे साथ मौजूद रहता है। जब हम इस सच्चाई को समझेंगे और अपने जीवन में आत्मसात करेंगे, तभी हम प्रेम के वास्तविक आनंद और आनंदमयता का अनुभव कर सकेंगे।
अंतिम विचार
जब भी हम प्रेम के बारे में सोचें, तो याद रखें कि यह किसी बाहरी अपेक्षा या शर्त का परिणाम नहीं है। यह तो हमारे अंदर की वह अनंत ऊर्जा है, जो बिना किसी दबाव के, बिना किसी कर्मसूत्र के, हमेशा प्रकट होती रहती है। हमें केवल अपनी आंतरिक यात्रा पर ध्यान देना है, अपने मन की शांति को खोज निकालना है, और उस प्रेम को महसूस करना है जो हमारे अस्तित्व का मूल आधार है।
जीवन में अनेक बार हम यह भूल जाते हैं कि प्रेम किसी विशेष कर्म या व्यवहार का नाम नहीं है, बल्कि यह तो उस स्वाभाविक ऊर्जा का अनुभव है जो हमें हमारे अस्तित्व के सार से जोड़ती है। प्रेम के इस स्वरूप को अपनाकर हम न केवल अपने जीवन में संतुलन और आनंद पा सकते हैं, बल्कि दुनिया में भी शांति और सौहार्द्र की मिसाल कायम कर सकते हैं।
तो आइए, हम सब मिलकर प्रेम की इस स्वाभाविक धारा को अपने दिलों में बहने दें, बिना किसी शर्त, बिना किसी अपेक्षा के—क्योंकि प्रेम तो प्रकृति है, और प्रकृति कभी झूठ नहीं बोलती। प्रेम के इस अनंत स्रोत से हमें सीख मिलती है कि सच्चा आनंद, सच्ची खुशी, और सच्चा जीवन उसी प्रेम में निहित है, जो बिना किसी प्रयास के, बिना किसी बाधा के, हमारे भीतर स्वयंसिद्ध रूप से विद्यमान है।
इस प्रवचन का यही संदेश है कि प्रेम को किसी भी बाहरी घटना, क्रिया या अपेक्षा के आधार पर न आंकें। प्रेम तो वह अनंत, स्वाभाविक शक्ति है जो हमें जीवन की प्रत्येक कठिनाई में सहारा देती है, हमें आत्मिक संतोष का अनुभव कराती है, और हमें इस संसार में वास्तव में जीवित रहने का एहसास कराती है। यह प्रेम ही है जो हमें अपने आप से जोड़ता है, हमें हमारी आंतरिक सत्यता की याद दिलाता है, और हमें उस आत्मिक शांति की ओर ले जाता है जिसे हम सब खोजते हैं।
अंत में, जब आप अगली बार अपने दिल की गहराई में उतरें, तो याद करें कि आप उस अनंत प्रेम का अनुभव करने के लिए जन्मे हैं—एक प्रेम जो बिना किसी शर्त, बिना किसी व्यवहार के, अपने आप में पूर्ण है। यही वह प्रेम है जिसे अपनाकर हम वास्तव में जीवन का सार पा सकते हैं, और यही वह सत्य है जो ओशो ने हमसे साझा किया है।
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