🌿 “लोग वही सुनते हैं जो सुनना चाहते हैं”

मनुष्य बड़ा अजीब जीव है। वह सुनता नहीं—चुनता है। वह जानता नहीं—मन्नतें गढ़ता है। वह देखता नहीं—छाँटता है। और उसी छाँटने को समझना कहता है। यह दुनिया जैसी है, वैसी किसी को दिखाई नहीं देती। हर एक ने अपने चश्मे पहन रखे हैं—किसी के अहंकार का, किसी के भय का, किसी के संस्कारों का, किसी की महत्वाकांक्षा का। इसलिए जब कोई सत्य की बात कही जाती है, तो वह सीधी भीतर उतरती नहीं। आदमी पहले अपने ही पुराने विचारों की तह में उसे तौलता है। और अगर वह उसकी सुविधा में फिट बैठ जाए—तो वह ‘सत्य’ बन जाता है; नहीं तो ‘गलत’, ‘नापसन्दीदा’, ‘खतरनाक’ ठहर जाता है।

इसीलिए कहा गया है—“सफाई देने में और स्पष्ट करने में अपना कीमती समय मत बर्बाद करो, लोग वही सुनते हैं जो वे सुनना चाहते हैं.”

तुम लाख समझाओ कि सूरज निकला है; जिसने भीतर अंधेरा पाल रखा है, वह कहेगा—“नहीं, यह तो एक छलावा है।” तुम हजार प्रमाण ले आओ; मन पहले से ही निर्णय करके बैठा है। प्रमाण केवल उतने ही स्वीकारता है जितने उसके निष्कर्ष को मजबूत करते हों। बाकी सब वह अनसुना कर देता है। मन की यही बीमारी है—यह सुनता नहीं, चुनता है; समझता नहीं, व्याख्या करता है; खुले नहीं रहता, पहले से बंद रहता है।

सुनने का अर्थ स्वीकार करना नहीं होता

लोग कहते हैं—“हमने सुना।” लेकिन सुनना एक बहुत ही गहरा विज्ञान है। सुनना केवल शब्दों को कान से गुजरने देना नहीं है। सुनना तो तब होता है जब तुम भीतर से खाली हो जाओ। जब तुम अपने निष्कर्ष, अपने पूर्वाग्रह, अपने डर, अपने अहंकार को बगल में रखकर खड़े हो जाओ। तब शब्द बीज बनते हैं और हृदय में अंकुर फूटता है।

लेकिन मनुष्य प्रायः खाली नहीं होता। वह भरा होता है—इतना भरा कि नया बीज गिर भी जाए तो जगह नहीं मिलती। मानो कोई घर कचरे से भरा हो और तुम वहां फूल रख दो; फूल सड़ जाएगा। मन भी ऐसा ही है। उसमें हजारों विचार, जुटाए हुए विश्वास, पिता-पुस्तकों की आवाज़ें, गुरुओं की छाया, समाज द्वारा दी हुई ज़ंजीरें—सब मौजूद हैं।

जब तुम कुछ बोलते हो, तो तुम्हारे शब्द इन सबकी चौकीदारी से होकर गुजरते हैं। भीतर बैठा पहरेदार हर आवाज़ को रोकता है। वह पूछता है—“यह मेरे विश्वास से मेल खाता है कि नहीं?” जो मेल खाए वह भीतर जाता है, जो नहीं खाए वह बाहर छोड़ दिया जाता है। इसी कारण दुनिया में समझ इतनी कम है और संघर्ष इतने अधिक।

क्यों व्यक्ति अपनी ही धुन सुनता है?

मानव मन सुरक्षा चाहता है। और सुरक्षा केवल तब मिलती है जब पुराना सुरक्षित रहे। नया हमेशा डर पैदा करता है, क्योंकि नया जोखिम है, नया बदलाव है। मनुष्य नए से डरता है। नया उसे नग्न करता है। नया उसे सोचने पर मजबूर करता है। नया उसे बदलने को कहता है।

और मनुष्य बदलना नहीं चाहता—वह चाहता है दुनिया बदल जाए, लेकिन वह न बदले। इसलिए जब उसे ऐसा कुछ सुनना पड़ता है जो उसके मन के ढांचे को तोड़ सकता है, तो वह उसकी ओर से ध्यान हटा लेता है। वह या तो हँस देता है, या अनसुना कर जाता है, या उसका मज़ाक बना देता है।

लोग खाली नहीं हैं। वे अपने ही प्रतिध्वनि-कक्ष में रहते हैं। तुम कुछ भी कहो, वे सुनते नहीं—वे अपनी मन की गूंज को सुनते रहते हैं।

सत्य का स्वीकार केवल बहादुरों का काम है

सत्य कोई आरामदायक चीज़ नहीं है। सत्य आग है—जो छू ले, वह बदल जाता है। और बदलना आसान नहीं। लोग कहते हैं—“हमें सत्य चाहिए।” लेकिन मन के भीतर एक हल्की सी भी झलक आने पर वे घबरा जाते हैं।

सत्य पूर्वाग्रहों का नाश करता है।
सत्य अहंकार को तोड़ देता है।
सत्य झूठी पहचानें चूर कर देता है।
सत्य मनुष्य को नंगा कर देता है।

इसलिए मनुष्य सत्य को नहीं सुनता। वह वही सुनता है जो उसके अहंकार को सहलाए, उसके विश्वासों की पुष्टि करे, उसकी मनचाही तस्वीर को मजबूत करे।

यही कारण है कि महावीर, बुद्ध, यीशु—इन सबको बहुत कम लोग वास्तव में सुन सके। बाकी तो बस अपनी सुविधा के अनुसार उनकी शिक्षा का अर्थ बनाते रहे, अपने मनमाफिक व्याख्याएँ गढ़ते रहे। उस व्याख्या में गुरु खो जाता है—और मन का अहंकार विजयी हो जाता है।

किसी को समझाने की कोशिश क्यों व्यर्थ है?

जिसने सुनने की क्षमता ही न विकसित की हो, उसे तुम कितना भी समझाओ, वह वैसा ही रहेगा। सफाई देना उन लोगों के लिए है जो तुम्हें गलत समझना चाहते हों। और जो गलत समझना चाहता है, उसे तुम लाख सफाई दो, वह न बदलेगा।

क्योंकि उसका उद्देश्य समझना है ही नहीं; उसका उद्देश्य अपने भ्रम को बचाना है। उसके पास पहले से ही निष्कर्ष है—वह बस तुम्हारे शब्दों को ढाल की तरह इस्तेमाल करता है।

यह मानो तुम किसी अंधे को समझाओ कि रंग क्या होता है। तुम कितनी भी कोशिश करो, उसकी दुनिया में रंग मौजूद ही नहीं। वह सुनता नहीं—वह अपना अंधापन सुनता है।

या किसी सोए हुए आदमी को चिल्लाकर जगाने की कोशिश करो—वह सपने में ही तुम्हारी आवाज़ का अर्थ बनाएगा। सपने के भीतर तुम्हारी आवाज़ भी सपना बन जाती है।

लोग अपने डर की भाषा में सुनते हैं

किसी को तुम प्रेम की बात करो—वह अपने अनुभवों की भाषा में सुनेगा। किसी को स्वतंत्रता की बात करो—वह अपने संस्कारों की भाषा में सुनेगा। किसी को ध्यान की बात करो—वह अपने तर्कों की भाषा में सुनेगा।

एक ही शब्द हजारों मन तक पहुँचता है, लेकिन हर मन उसमें अपना अर्थ भर देता है। इसलिए यह मत सोचो कि तुमने कुछ कह दिया तो समझा भी गया।
वास्तव में तो तुम कुछ कहते हो—और सामने वाला कुछ सुनता है—और दोनों के बीच जो दूरी है उसमें ही सारे संघर्ष उत्पन्न होते हैं।

दूसरा तुम्हारे शब्द नहीं, अपनी परछाई देखता है

यह जीवन का बड़ा रहस्य है—किसी को तुम जो कहते हो, वह सुनता नहीं। वह तुम्हारे शब्दों में भी अपनी ही छवि ढूँढता है।
यही कारण है कि दो लोग एक ही वाक्य सुनते हैं—एक हँस देता है, दूसरा आहत हो जाता है, तीसरा सोच में पड़ जाता है।

शब्द तो वही थे—सुनने वाला अलग था।
शब्दों में कोई शक्ति नहीं—शक्ति सुनने वाले के भीतर की तैयारी में है।

तो फिर क्या करें?

कहा गया है—सफाई मत दो। स्पष्ट मत करो। बात उतना ही कहो जितना तुम्हारा होना जानता है, और छोड़ दो। जिसे समझना होगा, वह बिना कहे भी समझ लेगा। जिसे नहीं समझना होगा, वह हजार समझाने पर भी समझेगा नहीं।

फूल अपनी सुगंध समझाता नहीं—जो भी योग्य हो, वह स्वयं उससे भर जाता है।

दीपक अँधेरे को समझाता नहीं—रोशनी बस होती है। योग्य हों तो देखते हैं; अयोग्य हों तो आँखें बंद कर लेते हैं।

बादल वर्षा से पहले नोटिस नहीं देते—धरती तैयार हो तो पी लेती है, न हो तो पानी बह जाता है।

सत्य भी इसी तरह है—जो तैयार हो, वही ग्रहण करेगा।

ध्यान-सूत्र

यदि तुम चाहते हो कि तुम ठीक सुने जाओ—पहले सुनने की कला सीखो।
क्योंकि जो सच में सुनता है, वही सच में कहा भी जा सकता है।
जो भीतर खाली है, वही दूसरों को समझ पाता है।
जो भीतर भरा है, वह केवल प्रतिध्वनि सुनता है—अपनी ही आवाज़, अपनी ही आहट, अपनी ही कल्पनाएँ।

ध्यान का सार यही है—अपने भीतर जगह बनाओ।
सब पुराने विचारों को, सब संचित निर्णयों को, सब संस्कारों की धूल को झाड़ दो।
फिर जब कोई तुम्हें कुछ कहेगा, तुम्हारे भीतर सीधा उतर जाएगा—बिना किसी विकृति, बिना किसी विकर्षण के।

और जब ऐसा होता है, तभी पहली बार मनुष्य सुनता है।
और जो सुन सकता है—वही जान सकता है;
और जो जान सकता है—वही बदल सकता है;
और जो बदल सकता है—उसी तक सत्य पहुँच सकता है।

अंतिम बात

इसलिए मैं कहता हूँ—
लोग वही सुनते हैं जो सुनना चाहते हैं।
उनके सुनने का तुम्हारे कहने से कोई संबंध नहीं।
उनकी प्रतिक्रिया तुम्हारे शब्दों पर आधारित नहीं—उनके मन की दशा पर आधारित है।
तुम्हारा कर्तव्य बस इतना है—सत्य बोलो। स्पष्ट रहो। जागे रहो।
बाकी जिसकी जितनी क्षमता होगी, उतनी ही वह ग्रहण करेगा।

पानी गिरता है, बादल नहीं सोचता कि कौन पियेगा।
सूरज चमकता है, उसे चिंता नहीं कि कौन आँखें खोलकर बैठेगा।
फूल महकता है, उसे परवाह नहीं कि कौन सुगंध उठाएगा।

इसी तरह सत्य बोलो—
शांत, सहज, निर्भय।
जो तैयार होंगे, वे सुन लेंगे।
और जो सुनना ही नहीं चाहते—उनके लिए तुम्हारी हर सफाई, हर स्पष्टीकरण व्यर्थ है।

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