कर्तापन का भ्रम: मनुष्य की सबसे गहरी कैद

मनुष्य के जीवन की सबसे बड़ी भूल यह नहीं कि वह दुखी है… असली भूल यह है कि वह मानता है कि वह अपने दुख का कर्ता है। जितनी बड़ी कोई भूल नहीं, उतना बड़ा कोई भ्रम नहीं, जितनी बड़ी यह एक मान्यता है कि “मैं करता हूँ।” यह ‘मैं’ कैसा अद्भुत छल है—यह हवा में उठी एक तरंग जैसा है, अस्तित्व में भी नहीं और फिर भी ऐसा प्रभाव पैदा कर जाता है मानो यह ही सारी सृष्टि का केंद्र हो।

जीवन तुम्हारे बिना भी चल रहा है। शरीर तुम्हारे बिना भी कार्य करता है। विचार तुम्हारे आदेश से नहीं आते। भावनाएँ तुम्हारे बुलावे पर प्रकट नहीं होतीं। फिर भी तुम बीच में खड़े होकर हर बात पर घोषणा करते हो: “मैंने किया, मैंने सोचा, मैंने चाहा, मैंने बनाया, मैंने पाया।” यह दावा ही जीवन की पूरी उलझन का कारण है।

कर्तापन की यह भावना मनुष्य को उस कैद में डाल देती है जिसकी दीवारें बहुत सूक्ष्म हैं—इतनी सूक्ष्म कि आँखें उन्हें देख ही नहीं पातीं। और क्योंकि दीवारें नहीं दिखतीं, मनुष्य सोचता है कि वह स्वतंत्र है, जबकि उसका हर कदम, हर विचार, हर प्रतिक्रिया उसी कर्तापन की जंजीरों से बंधी है। यह सबसे खतरनाक कैद है—जिसका कैदी जानता ही नहीं कि वह कैदी है।जैसे ही तुम मानते हो कि तुम कर्ता हो, तुम परिणामों के भी भोगी बन जाते हो। तुम्हारी खुशी तुम्हारी हो जाती है—और तुम्हारा दुख भी। तुम्हारी सफलता तुम्हारी बन जाती है—और असफलता भी।

कर्तापन का अर्थ है:
जो भी हुआ, उसका श्रेय भी तुम्हें, और दोष भी तुम्हें।

और यह बोझ जीवन भर मनुष्य को दबाए रखता है।

उदासी आती है—लेकिन उदासी ‘तुम’ नहीं हो

कभी गौर किया है? उदासी अचानक आती है। तुमने उसे बुलाया नहीं। कभी सुबकते भाव उठते हैं, और तुम जानते भी नहीं कि वे कहाँ से आए। लेकिन उदासी आते ही तुम घोषणा कर देते हो: “मैं उदास हूँ।” उदासी तुम हो ही नहीं— उदासी एक बादल है, और तुम आकाश हो। लेकिन तुम्हारी दिक्कत यह है कि तुम बादल को पकड़ लेते हो, सहेज लेते हो, अपने ही सीने में बंद कर लेते हो। और जब बादल घिर जाता है, तो तुम खुद को अंधकार समझने लगते हो। उदासी आकाश पर नहीं टिक सकती। वह केवल गुजरती है। तुमने उसे पकड़ लिया— यही कर्तापन है। वैसे ही खुशी आती है—हल्की धूप की तरह, एक मुस्कान की तरह, एक सूक्ष्म कंपन की तरह। और तुम उसे पकड़कर रखने की कोशिश करते हो। लेकिन खुशी जितना पकड़ी जाती है, उतना फिसलती है। कर्तापन दोनों को पकड़ता है— उदासी को भी, खुशी को भी। साक्षीभाव दोनों को गुजरने देता है।

कर्तापन जीवन को भारी बना देता है

जब व्यक्ति मानता है कि वह सब कर रहा है, तो स्वाभाविक ही है कि वह जिम्मेदारियों के पहाड़ के नीचे दब जाता है। जब तुम मानते हो कि विचार तुम्हारे हैं, तो तुम उनसे लड़ते हो। जब तुम मानते हो कि भावनाएँ तुम्हारी हैं, तो तुम उन्हें नियंत्रित करते हो। जब तुम मानते हो कि परिस्थितियों के निर्माता तुम हो, तो तुम उनके परिणामों से भयभीत होते हो। कर्तापन जितना गहरा होता है, जीवन उतना कठिन। कर्तापन जितना मजबूत होता है, तनाव उतना तीखा। कर्तापन जितना पक्का होता है, भय उतना बढ़ता है।

कर्तापन का अर्थ है— हमेशा सतर्क रहो, हमेशा नियंत्रण में रहो, हमेशा योजना बनाओ, हमेशा परिणाम से डरो। लेकिन जीवन कभी किसी योजना से नहीं चलता। यह समुद्र की लहरों की तरह है—अपनी लय में, अपने उतार-चढ़ाव में, अपने संगीत में।कर्तापन जीवन की सहजता को जकड़ देता है। जैसे कोई नदी को मुट्ठी में पकड़ने की कोशिश करे—जितनी जोर से पकड़ेगा, उतनी ही तेज़ी से पानी बाहर निकल जाएगा।

कर्तापन के टूटते ही जीवन पहली बार हल्का लगता है

अगर तुम एक क्षण के लिए भी देख सको कि विचार अपने आप आते हैं, भावनाएँ अपने आप उठती हैं, शरीर अपने आप चलता है, और संसार तुम्हारे बिना भी सुचारू चल रहा है—तो तुम्हें लगेगा जैसे कोई भारी चट्टान गिर गई हो। वो तनाव जो वर्षों से तुम्हें खाए जा रहा था, वो अनचाहा दबाव जो तुम्हारे कंधों पर जमा था, वो डर जो हर निर्णय के पीछे खड़ा था—सब धुएँ की तरह उड़ते दिखाई देंगे। तुम अकेले होते हो, पर अकेलेपन का बोझ नहीं होता। तुम खाली होते हो, पर उस खालीपन में एक मधुर संगीत होता है। तुम चुप होते हो, पर उस चुप्पी में एक अपूर्व विस्तार होता है। कर्तापन गिरते ही मनुष्य पहली बार अपने अस्तित्व का स्वाद लेता है।

जीवन अनुशासन से नहीं, सहजता से खिलता है

कर्तापन वाले व्यक्ति जीवन को नियंत्रित करने की कोशिश करते हैं। वे नियम बनाते हैं। वे आदर्श गढ़ते हैं। वे समय-सारणी बनाते हैं। पर नियंत्रण हमेशा संघर्ष पैदा करता है। साक्षी व्यक्ति किसी अनुशासन को थोपता नहीं। जब कर्तापन टूट जाता है, तो भीतर से स्वाभाविक अनुशासन जन्म लेता है—वह अनुशासन जो पेड़ों में है, पक्षियों में है, नदियों में है, बादलों में है। किसी ने उन्हें अनुशासन नहीं सिखाया। उनका अस्तित्व ही अनुशासित है—क्योंकि वह प्रकृति की धारा के साथ बहते हैं, उसके विरुद्ध नहीं। कर्तापन के विरोध में जीवन हमेशा संघर्ष करता है, और साक्षीभाव के साथ जीवन हमेशा फूलता है।

साक्षीभाव कैसे जन्म लेता है?

साक्षीभाव कोई तकनीक नहीं है। यह कोई अभ्यास नहीं है। क्योंकि जैसे ही तुम अभ्यास करते हो, तुम फिर कर्ता बन जाते हो।साक्षीभाव केवल देखने से पैदा होता है—बिना हस्तक्षेप के, बिना निर्णय के, बिना पकड़ने की कोशिश के। उदासी उठी — बस कहो: “उदासी उठ रही है।” क्रोध आया — बस कहो: “क्रोध उठ रहा है।” खुशी आई — बस देखो कि वह आई है।” जहाँ “मैं” की जगह “हो रहा है” आ जाए, कर्तापन वहीं गिर जाता है। और जब कर्तापन गिरता है, तुम्हारे भीतर एक अपूर्व शांत सरोवर जन्म लेता है—जिसकी तरंगें किसी बाहरी हवा से नहीं उठतीं। वह मौन पहली बार तुम्हें तुम्हारी असली पहचान देता है।

मुक्ति कोई उपलब्धि नहीं—मुक्ति स्वाभाव है

दुनिया मुक्ति को लक्ष्य मानती है। पर मुक्ति लक्ष्य नहीं, तुम्हारा मूल स्वरूप है। तुम कर्तापन की मिट्टी से ढँक गए हो—और मुक्ति केवल इस मिट्टी का गिर जाना है। कोई साधना, कोई प्रयास, कोई तपस्या—इनमें भी कर्तापन छिपा है। साक्षीभाव में कुछ करना नहीं है। बस देखना है। और देखने मात्र से सब घटित हो जाता है। जब तुम देखते हो, तो कर्तापन पिघलता है।कर्तापन पिघलता है, तो मन शांत होता है। मन शांत होता है, तो जीवन स्पष्ट दिखाई देता है। और जब जीवन स्पष्ट हो जाता है,तो मुक्त होना तुम्हारा स्वभाव बन जाता है। मुक्ति कोई प्राप्ति नहीं—वह तुम्हारी असली पहचान है, जो कर्तापन के धुएँ से ढकी हुई थी।

❖ Frequently Asked Questions (FAQ)

1. कर्तापन क्या है?

कर्तापन वह मानसिक मान्यता है कि “मैं ही सब कर रहा हूँ।”
विचार, भावनाएँ, प्रतिक्रियाएँ—सब तुम्हारे नियंत्रण में हैं, ऐसा मान लेना ही कर्तापन है।
यही भ्रम मन में तनाव, भय और संघर्ष पैदा करता है।

2. ओशो बार-बार कर्तापन को भ्रम क्यों कहते हैं?

क्योंकि तुम्हारे भीतर जो भी घटित होता है—वह तुम नहीं करते। विचार अपने आप आते हैं, भावनाएँ अपनी लहर से उठती हैं। जब तुम दावा करते हो कि “मैं करता हूँ,” तो तुम अनावश्यक जिम्मेदारियाँ अपने ऊपर ले लेते हो, और यही दर्द का मुख्य कारण बनता है।

3. क्या कर्तापन छोड़ने का मतलब है कि व्यक्ति निष्क्रिय हो जाए?

नहीं।
कर्तापन छोड़ने का अर्थ काम छोड़ना नहीं—बल्कि “मैं कर रहा हूँ” की कल्पना छोड़ना है। कर्म होता रहेगा,
शरीर चलता रहेगा, निर्णय उभरते रहेंगे—लेकिन उनके पीछे “मैं” का दावा नहीं रहेगा। यही असली सहजता है।

4. कर्तापन गिरने पर जीवन कैसा हो जाता है?

बहुत हल्का, बहुत पारदर्शी, बहुत मौन। उदासी आएगी, जाएगी—लेकिन तुम्हें छुएगी नहीं। खुशी आएगी, जाएगी—लेकिन तुम उसमें खोओगे नहीं। जीवन पहली बार एक खेल जैसा, एक प्रवाह जैसा महसूस होता है।

5. साक्षीभाव क्या है?

साक्षीभाव का अर्थ है—तुम्हारे भीतर जो भी घटे, उसे बस देखना, बिना दखल दिए। उदासी उठी—देखो। क्रोध उभरा—देखो।खुशी आई—देखो। देखने मात्र से “मैं कर रहा हूँ” का भ्रम टूट जाता है, और तुम असली अस्तित्व से जुड़ने लगते हो।

6. साक्षीभाव कैसे विकसित होता है?

किसी साधना, तपस्या या जोर-जबर्दस्ती से नहीं। सिर्फ जागरूकता से। जैसे-जैसे तुम चीज़ों को “घटित होते हुए” देखते हो,
वे तुम्हारे साथ चिपकी नहीं रहतीं। धीरे-धीरे कर्तापन पिघलता है और सहजता जन्म लेती है।

7. क्या साक्षीभाव असल जीवन में भी संभव है—या सिर्फ ध्यान में?

पूरी तरह संभव है। जब तुम चलते हुए, बोलते हुए, काम करते हुए भी देख सकते हो, तो साक्षीभाव तुम्हारे जीवन में उतरने लगता है। ध्यान इसका द्वार है, लेकिन असली साक्षीभाव जीवन में घटता है।

8. क्या कर्तापन छोड़ने से व्यक्ति जिम्मेदारियों से भागने लगता है?

नहीं।
बल्कि उसकी जिम्मेदारियाँ और स्पष्ट, और हल्की हो जाती हैं। कर्तापन व्यक्ति को बोझीला बनाता है—साक्षीभाव उसे सहज बनाता है। काम वही रहता है, लेकिन करने वाला गायब हो जाता है। यहीं से “अहिंसा और सहजता” दोनों जन्म लेते हैं।

9. कर्तापन और अहंकार में क्या संबंध है?

कर्तापन ही अहंकार की जड़ है। जहाँ यह भावना है कि “मैं ही करता हूँ,” वहीं अहंकार पैदा होता है। कर्तापन टूटे तो अहंकार खुद-ब-खुद मिट जाता है, जैसे धूप आते ही अंधेरा गायब हो जाता है।

10. क्या यह किसी धर्म, परंपरा या सिद्धांत पर आधारित है?

यह किसी सिद्धांत का हिस्सा नहीं—यह एक अस्तित्वगत अनुभव है। ओशो, बुद्ध, कृष्ण, ताओ—सभी इसे अपने ढंग से कहते हैं: सत्य अनुभव से आता है, मान्यता से नहीं। कर्तापन का त्याग भी कोई विश्वास नहीं; यह एक आंतरिक देखने से उपजता है।

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