प्रेम लौटता ही है — अस्तित्व का प्रतिध्वनि-सूत्र

कभी गौर किया है — इस जीवन में कुछ भी अकेला नहीं रहता। हर आवाज़ लौटती है, हर कर्म प्रतिध्वनि बनकर वापस आता है। तुमने यदि किसी घाटी में पुकारा हो, तो जानते होगे कि आवाज़ लौटती है — कभी हल्की, कभी गूँजती हुई, कभी हजार रूपों में बदलकर।

अस्तित्व भी एक ऐसी ही घाटी है। तुम जो भी भेजते हो — वही तुम्हारे पास लौट आता है। तुमने प्रेम भेजा तो प्रेम लौटेगा, तुमने विष भेजा तो विष लौटेगा। यह कोई नैतिकता नहीं, यह ब्रह्मांड की गूढ़ भौतिकी है।

प्रेम का नियम — देना ही प्राप्त करना है

मनुष्य सोचता है कि जब कोई मुझसे प्रेम करेगा, तब मैं प्रेम दूँगा। वह हमेशा प्रतीक्षा में रहता है। पर यह प्रतीक्षा ही उसका पतन है।

प्रेम देने से जन्म लेता है, लेने से नहीं। जब तुम प्रेम करते हो — बिना शर्त, बिना अपेक्षा, तो उसी क्षण तुम सृष्टि के साथ तालमेल में आ जाते हो। तुम एक हो जाते हो। और फिर प्रेम का प्रवाह तुम्हारे भीतर से बाहर नहीं जाता — बल्कि चारों ओर फैलकर वापस तुम्हारे पास लौट आता है।

तुम सागर बन जाते हो। लहरें उठती हैं, तटों को छूती हैं, फिर उसी सागर में लौट जाती हैं। यह ब्रह्मांड का शाश्वत चक्र है — जो देता है, वही पाता है। और जो कुछ नहीं देता, वह भीतर ही भीतर सूख जाता है।

प्रेम लौटता क्यों है?

क्योंकि प्रेम ऊर्जा है — और ऊर्जा कभी व्यर्थ नहीं जाती। जो कुछ भी तुम देते हो, वह इस ब्रह्मांड के किसी कोने में टकराकर फिर से तुम्हारे पास लौट आता है।

तुम किसी एक व्यक्ति को प्रेम देते हो, पर लौटना कहीं से भी हो सकता है। कभी किसी अजनबी मुस्कान से, कभी किसी पेड़ की छाँव से, कभी किसी अनदेखे आशीर्वाद से।

जो सोचता है कि “मैंने इसे प्रेम दिया, और इसने मुझे नहीं लौटाया,” वह प्रेम के नियम को समझा ही नहीं। प्रेम सीधा व्यापार नहीं है, यह एक ऊर्जा-परिक्रमा है। यह तुम्हारे हृदय से उठती है, अस्तित्व में फैलती है, और जब लौटती है, तो पहचान से परे होती है। तुम्हें बस इतना जानना है — अगर तुमने सच में दिया है, तो वह लौटेगा — हजार गुना होकर।

अगर प्रेम नहीं लौटा — तो शायद दिया ही नहीं था

यह ओशो की सबसे कड़ी और सच्ची बात है। वह कहते हैं —
अगर प्रेम लौटकर नहीं आया, तो ठहरो, और अपने भीतर झाँको।

क्या तुमने सच में दिया था? या केवल लेने की चाल चली थी? क्या तुम्हारा “देना” केवल किसी उत्तर की प्रतीक्षा थी? क्योंकि प्रेम जब अपेक्षा से जन्म लेता है, वह प्रेम नहीं, लेन-देन बन जाता है।

सच्चा प्रेम बिना वजह बहता है। जैसे फूल अपनी खुशबू देता है — कौन सूँघेगा, कौन नहीं — उसे परवाह नहीं। वह बस महकता है, क्योंकि महकना उसका स्वभाव है।

अगर तुम प्रेम देते हो और दुखी हो जाते हो कि सामने वाले ने लौटाया नहीं, तो जान लो — तुमने प्रेम नहीं दिया, तुमने सौदा किया था। तुमने बीज बोया नहीं, बस दिखावा किया था कि बो रहे हो। इसलिए फसल नहीं उगी।

ब्रह्मांड एक दर्पण है

यह संसार एक विशाल दर्पण है। तुम जो भेजते हो, वही तुम्हें दिखाता है। अगर तुम गुस्सा भेजते हो, तो संसार तुम्हारे प्रति कठोर हो जाता है। अगर तुम मुस्कान भेजते हो, तो हर चेहरा फूल की तरह खिल उठता है।

तुम्हारा अनुभव हमेशा तुम्हारे भीतर की प्रतिछाया है। जो तुम्हें लौटता है, वह तुम्हारे ही हृदय से निकला हुआ स्वर है। इसलिए ओशो कहते हैं — “जो लौटे, उसे देखकर समझ लेना, वही तुमने भेजा था।”

जीवन कोई दुर्घटना नहीं, यह एक प्रतिध्वनि का विज्ञान है। हर शब्द, हर भावना, हर कर्म — कहीं न कहीं गूंज बनकर लौटता है।

प्रेम की फसल — कर्म का बीज

जो प्रेम बोता है, वह प्रेम ही काटता है। जो अपमान बोता है, वह अपमान पाता है। यह धर्म नहीं, नियम है।

अगर तुम जीवन को ध्यान से देखो, तो पाएंगे कि यह नियम हर क्षण काम कर रहा है।

एक क्रोधित व्यक्ति के आसपास अचानक हवा तक भारी हो जाती है। और एक शांत व्यक्ति के पास बैठो, तो भीतर ठंडक उतर आती है।

ऊर्जा अदृश्य है, पर उसका प्रभाव सजीव है। तुम जैसा कंपन भेजते हो, वैसा ही तुम्हारे चारों ओर का वातावरण बन जाता है।
इसलिए ओशो कहते हैं —
“प्रेम देना ध्यान का सबसे सुंदर रूप है।” क्योंकि प्रेम देने में ही तुम अपने भीतर के ज़हर को पवित्र बना लेते हो।

प्रेम का रहस्य — देना ही ध्यान है

प्रेम केवल भावना नहीं, वह एक ध्यान की अवस्था है। जब तुम प्रेम देते हो, तो तुम्हारा अहंकार गिरता है। क्योंकि देना, अहंकार के लिए मृत्यु है। अहंकार हमेशा लेना चाहता है।

जिस क्षण तुम बिना कारण प्रेम करने लगते हो, तुम “मैं” से परे चले जाते हो। और उसी क्षण तुम परमात्मा के करीब पहुँच जाते हो।

क्योंकि परमात्मा भी केवल देता है — सूरज प्रकाश देता है, पेड़ छाया देते हैं, नदी जल देती है — कभी बदले में कुछ नहीं मांगते।

प्रेम देना ही प्रार्थना है, क्योंकि इसमें देने वाला भी गल जाता है। वह खुद प्रेम बन जाता है।

हजार गुना होकर क्यों लौटता है?

क्योंकि अस्तित्व कृपामय है। वह तुम्हें वही नहीं लौटाता जो तुमने दिया — वह उसे बढ़ाकर लौटाता है। अगर तुमने थोड़ी सी दया दी, तो वह करुणा बनकर लौटेगी। अगर तुमने थोड़ा सा प्रेम दिया, तो वह आनंद की वर्षा बनकर लौटेगा।

ब्रह्मांड तुम्हारा प्रतिदान नहीं करता — वह विस्तार करता है। तुम्हारा दिया छोटा बीज होता है, अस्तित्व उसे वृक्ष बना देता है।

इसलिए ओशो कहते हैं —
“फिकर मत करो कि किसे दिया।” क्योंकि देने के बाद तुम्हारा काम समाप्त। बाकी काम अस्तित्व का है। वह तय करेगा कि कहाँ से, कैसे और कब लौटाना है।

प्रेम और घृणा — दोनों के परिणाम

यह नियम केवल प्रेम पर नहीं, हर ऊर्जा पर लागू होता है। अगर तुमने घृणा भेजी, तो वही लौटी — कभी दूसरों से, कभी परिस्थितियों से। अगर तुमने अपमान दिया, तो वही वातावरण तुम्हारे लिए बना।

तुम्हारे जीवन की गुणवत्ता तुम्हारे हृदय की गुणवत्ता पर निर्भर करती है। जो भीतर प्रेम से भरा है, वह हर जगह प्रेम देखता है। जो भीतर विष से भरा है, वह हर ओर दुश्मन देखता है।

दुनिया तुम्हारी जैसी है वैसी नहीं, दुनिया तुम्हें वैसी दिखती है जैसी तुम्हारी दृष्टि है।
इसलिए ओशो कहते हैं —
“तुम्हारा संसार, तुम्हारा ही प्रतिविम्ब है।”

प्रेम का विज्ञान — ऊर्जा का संतुलन

प्रेम देना आत्मा का संतुलन बनाए रखता है। जब तुम केवल लेते हो, तो भीतर ठहराव नहीं रहता, ऊर्जा सड़ने लगती है। पर जब तुम देते हो, तो भीतर एक नई ताजगी जन्म लेती है।

जैसे तालाब का पानी बहता रहे तो निर्मल रहता है, और ठहरा रहे तो सड़ने लगता है। प्रेम देना उसी बहाव को जीवित रखता है।

जो प्रेम देता है, वह कभी निर्धन नहीं होता। क्योंकि देने में वह खुद स्रोत बन जाता है। और स्रोत कभी सूखता नहीं।

प्रेम और प्रतिध्वनि का आध्यात्मिक अर्थ

यह सूत्र केवल व्यवहारिक नहीं, यह ध्यान का गूढ़ द्वार है। जब तुम यह जान लेते हो कि संसार हर क्षण तुम्हारी प्रतिध्वनि है, तो तुम दूसरों को दोष देना बंद कर देते हो।

तुम समझते हो — “मुझसे जो लौट रहा है, वह वही है जो मैंने भेजा था।”

यह समझ ही तुम्हें जागृति के करीब लाती है। फिर तुम सचेत होकर जीने लगते हो। फिर तुम्हारे शब्द, तुम्हारे विचार, तुम्हारी दृष्टि — सब प्रेममय हो जाते हैं। और उस क्षण से तुम्हारे चारों ओर का ब्रह्मांड भी प्रेममय हो जाता है।

निष्कर्ष — प्रेम लौटता ही है

ओशो के इस सूत्र को केवल सुनो मत, इसे जियो। हर दिन किसी न किसी को प्रेम दो — बिना कारण, बिना अपेक्षा।
फूलों को, पक्षियों को, किसी अनजान व्यक्ति को। और फिर देखो — किसी दिन वह प्रेम लौटता है, किसी अजनबी मुस्कान में, किसी शांत रात में, कभी भीतर के मौन में।

प्रेम लौटता है — यह विश्वास नहीं, यह नियम है। जो नहीं लौटा, वह कभी गया ही नहीं था। शायद तुमने दिया नहीं, सिर्फ दिखाया था।

इसलिए प्रेम को देना मत, प्रेम बन जाना। फिर देना और पाना एक ही बात हो जाएगी। फिर जो लौटेगा, वह तुमसे नहीं, तुम्हारे ही भीतर से उठेगा — हजार गुना होकर।

🕊️ “जो तुम देते हो, वही लौटता है —
प्रेम दो, तो ब्रह्मांड प्रेम से गूंज उठता है।
घृणा दो, तो जीवन अंधकार बन जाता है।
तुम्हारा देना ही तुम्हारा भाग्य है।”

— ओशो, प्रेम-ध्यान प्रवचन

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