भीतर की संपदा — आत्मा से उठने वाले आनंद का रहस्य
मनुष्य को जीवन मिला है — पर उसने उसे जीना नहीं सीखा। वह केवल दौड़ना जानता है। सुबह से रात तक वह किसी न किसी चीज़ के पीछे भागता रहता है। वह सोचता है कि कुछ पा लिया तो शांति मिल जाएगी। पर जितना पाता है, उतनी ही बेचैनी बढ़ जाती है।
कभी तुमने गौर किया है? जो चीज़ मिलती है, वह तुम्हें खुश नहीं करती — वह तुम्हें और अधिक पाने की भूख दे जाती है। हर उपलब्धि के पीछे कोई अधूरापन छिपा रहता है। क्योंकि मन को जो मिला, वह बाहर से मिला। और जो बाहर से मिलता है, वह कभी आत्मा की प्यास नहीं बुझा सकता।
बाहरी सुख — मृगतृष्णा की रेत
बाहर का सुख वैसा है जैसे रेगिस्तान में मृगतृष्णा। दूर से दिखता है कि वहाँ पानी है, पर पास जाकर पता चलता है — वहाँ केवल रेत है।
संसार में हर व्यक्ति उसी मृगतृष्णा के पीछे दौड़ रहा है। कोई धन में सुख खोजता है, कोई प्रेम में, कोई प्रसिद्धि में। पर जो भी वह पा लेता है, थोड़ी देर बाद वही चीज़ बोझ बन जाती है।
बाहर का सुख क्षणिक है, क्योंकि वह मन की आकांक्षा से उपजता है — और मन कभी तृप्त नहीं होता। मन कहता है, “थोड़ा और…” और यही “थोड़ा और” तुम्हें जीवन भर अपूर्ण रखता है।
भीतर का आनंद — जो न बनाया जा सकता, न मिटाया जा सकता
आनंद कोई वस्तु नहीं है। वह तुम्हारे भीतर की सुगंध है, जो तब उठती है जब तुम शांत हो जाते हो। जब चाहतें गिर जाती हैं, जब पाने की ललक बुझ जाती है, जब तुम कुछ नहीं बनना चाहते — तब भीतर से कुछ खिलता है, बिना किसी कारण के।
वह आनंद है। वह आत्मा की धड़कन है। वह वह संगीत है जो हमेशा से बज रहा था, पर तुम्हारा मन इतना शोर करता था कि तुमने कभी सुना ही नहीं।
यह आनंद बाहर से नहीं आता। यह तुम्हारे अस्तित्व की जड़ से उठता है। इसलिए इसे कोई छीन नहीं सकता।
यह तुम्हारा स्वभाव है, जैसे सूरज का स्वभाव है उजाला देना, जैसे फूल का स्वभाव है महकना।
जो बाहर खोजता है, वह स्वयं को खो देता है
जो व्यक्ति इस भीतर के आनंद को भूलकर वस्तुओं में सुख खोजता है, वह धीरे-धीरे मर जाता है — जीते जी।
उसके पास सब कुछ होता है — घर, नाम, संबंध — पर भीतर एक सूना कक्ष गूंजता रहता है। वह जितना जोड़ता है, वह सूना कम नहीं होता, और गहरा होता जाता है। क्योंकि हर वस्तु, हर संबंध, हर उपलब्धि उस रिक्तता को कुछ पल ढक सकती है, भर नहीं सकती। और एक दिन आता है जब उसे समझ आता है — वह बहुत कुछ पा चुका है, पर स्वयं को नहीं पाया। और जिसने स्वयं को नहीं पाया, उसने चाहे दुनिया जीत ली हो, वह अंततः हार गया है।
सच्ची संपदा — जो भीतर से फूटती है
जो भीतर से उठता है, वही असली संपदा है। वह तुम्हारी नहीं, तुम उसके हो। वह तुम्हें खोजता है, तुम नहीं। तुम्हें बस शांत होना है — वह स्वयं प्रकट हो जाएगा। जो आनंद आत्मा से जन्मता है, वह न समय का मोहताज है, न परिस्थिति का। वह तूफान में भी शांत रहता है। वह मृत्यु के सामने भी मुस्कुराता है। क्योंकि जो भीतर से जीता है, उसे पता है — जो छिन सकता है, वह कभी मेरा था ही नहीं। और जो मेरा है, उसे कोई छीन नहीं सकता।
भूल यही है — बाहर को ‘अपना’ समझ लेना
स्मरण रखना — जो बाहर से मिला है, वह किसी दिन चला जाएगा। और जो भीतर से मिला है, वह किसी दिन जा ही नहीं सकता। बाहर का सुख उधार है, भीतर का आनंद उत्तराधिकार। पर मनुष्य उलटा जीता है — वह उधार के पीछे भागता है और अपनी विरासत भूल जाता है। वह परमात्मा की संपदा को छोड़कर कण-कण के पीछे रोता है। वह आकाश छोड़कर मुट्ठी भर धूल पकड़ता है और फिर शिकायत करता है कि जीवन अधूरा है।
भीतर लौटो — वहीं सच्चा सुख है
जब तुम बाहर से लौटोगे, जब तुम थक जाओगे संसार की इस दौड़ से, जब तुम समझोगे कि पाने में कुछ नहीं मिलता —
तभी पहला द्वार खुलेगा। तब तुम भीतर झाँकोगे। और तुम पाओगे कि जो खोज रहे थे, वह सदा से भीतर था। वह शांत है, पर जीवंत। वह स्थिर है, पर गूंजता हुआ। वह तुम्हारी आत्मा है — और वही आनंद है।
अंततः
जो स्वयं में आनंदित है, उसके लिए जीवन उत्सव है। जो बाहर से आनंद माँगता है, उसके लिए जीवन बोझ है। तुम्हारा चुनाव ही तुम्हारा भाग्य तय करता है — भीतर या बाहर। बाहर जाओगे — रिक्तता मिलेगी। भीतर लौटोगे — परिपूर्णता मिलेगी। और जब एक बार भीतर का स्वाद आ गया, फिर संसार अपनी सारी चमक खो देता है। फिर तुम चीज़ों को भोगते नहीं —उनसे खेलते हो। फिर जीवन बोझ नहीं — एक नृत्य बन जाता है।
🕊️ “वही वास्तविक संपदा है जो भीतर से उठती है।
जो बाहर खोजता है, वह जीवन खो देता है।
जो भीतर खोजता है — वही जीवन पा लेता है।”
— ओशो

कोई टिप्पणी नहीं: