भय क्या है? — ओशो की दृष्टि से
किसी ने मुझसे पूछा, “भय क्या है?”
मैंने कहा, अज्ञान।
स्वयं को न जानना ही भय है।
क्योंकि जब तुम अपने भीतर से अनजान हो,
तब संसार तुम्हें अजनबी लगता है।
अंधेरे कमरे में जैसे बच्चा रो उठता है —
वैसे ही जो स्वयं को नहीं जानता, वह जीवन से डरता है।
उसे लगता है कि चारों ओर मृत्यु है, हानि है, असुरक्षा है।
पर असल में यह सब नहीं है — केवल तुम्हारा अज्ञान है जो इन छायाओं को जन्म देता है।
भय की जड़ — स्वयं से दूरी
जब तुम अपने ही भीतर से कट जाते हो,
तो तुम संसार के हर कोने में भय खोजने लगते हो।
कभी धन के रूप में, कभी प्रेम के रूप में, कभी नाम के रूप में।
तुम सोचते हो कि कुछ पा लोगे, तो सुरक्षित हो जाओगे —
पर जितना पाते हो, भय और गहरा उतरता है।
भय का संबंध बाहरी दुनिया से नहीं है।
भय भीतर की अनजानी भूमि से उपजता है।
जहाँ आत्मा सोई है, वहाँ अंधेरा है;
और जहाँ अंधेरा है, वहाँ कल्पनाएँ हैं —
“मैं मर जाऊँगा”, “मैं असफल हो जाऊँगा”,
“मुझे कोई छोड़ देगा”, “मैं अकेला रह जाऊँगा।”
इन सब कल्पनाओं का नाम ही भय है।
और ध्यान देना —
भय कभी सच्चा नहीं होता,
वह केवल संभावना का भूत होता है।
भय और मृत्यु — दो नाम, एक सत्य
ओशो कहते हैं,
“जो स्वयं को नहीं जानता, वह केवल मृत्यु को जानता है।”
क्योंकि जिसने आत्मा का स्वाद नहीं चखा,
उसके लिए जीवन केवल प्रतीक्षा है — समाप्ति की।
तुम जीते नहीं, तुम मरने की ओर बढ़ते हो।
हर दिन का अर्थ घटता जाता है,
हर श्वास किसी अंत की गिनती जैसी लगती है।
यह मृत्यु का जीवन है।
पर जिस क्षण तुम भीतर उतरते हो,
तुम्हें एक नयी दुनिया मिलती है — जहाँ मृत्यु नहीं है।
वहाँ सब कुछ बदलता है:
पेड़ वही हैं, हवा वही है, सूरज वही है,
पर तुम बदल गए हो।
अब तुम जानते हो कि मृत्यु शरीर की है,
पर तुम शरीर नहीं हो।
तुम वही श्वास हो जो सदा बह रही है।
तुम वही चेतना हो जो किसी अंत को नहीं जानती।
यह जानना ही आत्म-बोध है।
और यही जानना, भय से मुक्ति है।
आत्म-बोध का अर्थ — जीवन का जागरण
“जहाँ आत्म-बोध है, वहाँ जीवन ही जीवन है,”
यह वाक्य केवल दर्शन नहीं, अनुभव की चाबी है।
जब तुम स्वयं को जान लेते हो,
तो तुम्हारे लिए जीवन विरोधों से मुक्त हो जाता है।
सुख-दुःख, लाभ-हानि, प्रेम-विरह —
सब लहरों की तरह आते हैं और चले जाते हैं।
पहले तुम लहर थे, अब तुम समुद्र हो गए हो।
अब भय नहीं बचता,
क्योंकि भय हमेशा सीमित से उपजता है —
और तुम सीमाहीन हो चुके हो।
जब तुम जानते हो कि “मैं वही चेतना हूँ”
जिसमें सब घटित हो रहा है —
तब कोई चीज़ तुम्हें हिला नहीं सकती।
न आलोचना, न मृत्यु, न अकेलापन।
फिर तुम जीवन के हर क्षण को खेल की तरह जीते हो।
तुम्हारा हँसना भी ध्यान बन जाता है,
तुम्हारी चुप्पी भी प्रार्थना बन जाती है।
परमात्मा और अभय — एक ही अनुभव
ओशो कहते हैं,
“परमात्मा में होना ही अभय में होना है।”
परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं, कोई देवता नहीं —
वह तुम्हारा अपना विस्तार है,
वह चेतना का महासागर है जिसमें तुम्हारा अस्तित्व घुल जाता है।
जब तुम परमात्मा में हो,
तो मृत्यु तुम्हारी परिधि से बाहर हो जाती है।
अब तुम्हारे लिए भय असंभव हो जाता है,
क्योंकि अब कोई दूसरा नहीं बचा जो तुम्हें हानि पहुँचा सके।
अब केवल एक ही है —
जीवन, और जीवन का अनंत प्रवाह।
जो इस एकत्व को जान लेता है,
उसका भय समाप्त हो जाता है।
वह न मृत्यु से डरता है, न जीवन से।
उसके लिए दोनों एक ही तरंग के दो छोर हैं।
यह अभय भीतर से उठता है,
बाहर की किसी शक्ति से नहीं मिलता।
न तलवार से, न तर्क से, न आत्मविश्वास से।
यह केवल आत्म-साक्षात्कार से उपजता है।
भय का उपचार नहीं — उसका दर्शन चाहिए
ओशो कहते हैं,
भय को भगाने की कोशिश मत करो —
उसे देखो।
जैसे ध्यान से किसी फूल को देखते हो,
वैसे ही भय को देखो।
तुम पाओगे कि वह धीरे-धीरे मिटता नहीं,
वह स्वयं प्रकाश में विलीन हो जाता है।
क्योंकि भय अंधकार है,
और देखने का अर्थ है — दीपक जलाना।
जैसे ही तुम भय को सचेतन रूप से देखते हो,
वह अपना अस्तित्व खो देता है।
भय को केवल देखा जा सकता है,
उससे लड़ा नहीं जा सकता।
भय का व्यावहारिक रूप से सामना कैसे करें?
-
ध्यान में बैठो, बिना किसी उद्देश्य के।
केवल अपनी श्वास देखो।
जब मन कहे “अगर यह हुआ तो…”,
मुस्कुरा देना — यह भय का खेल है। -
मृत्यु का ध्यान करो।
हर दिन दो मिनट के लिए मृत्यु की कल्पना करो।
देखो कि शरीर जाएगा, पर तुम देखने वाले बने रहोगे।
धीरे-धीरे “मरने” का डर तुम्हारे लिए अजीब-सा खेल बन जाएगा। -
स्वयं को स्वीकारो।
भय वहीं पनपता है जहाँ अस्वीकार है।
जो स्वयं से प्रेम करता है, वह दुनिया से डर नहीं सकता। -
अस्तित्व पर भरोसा रखो।
जब तुम भरोसा करते हो,
जीवन अपने ढंग से तुम्हें संभाल लेता है।
फिर तुम्हें नियंत्रण की जरूरत नहीं रहती,
और जहाँ नियंत्रण नहीं, वहीं शांति है।
भय से परे की अवस्था — मौन
एक समय आता है जब भय गायब नहीं होता —
बल्कि उसका अर्थ बदल जाता है।
अब भय भी तुम्हें प्रिय लगने लगता है,
क्योंकि वह भी अस्तित्व का हिस्सा है।
तुम जान लेते हो कि अगर भय है,
तो उसका होना भी दिव्य है।
तुम विरोध नहीं करते,
तुम बस साक्षी बन जाते हो।
और यह साक्षीभाव ही परम सुरक्षा है।
क्योंकि साक्षी कभी मरता नहीं,
वह केवल देखता है —
और देखना ही परमात्मा में होना है।
निष्कर्ष — भय से मुक्ति नहीं, आत्मा की पहचान
तो जब पूछा जाए “भय क्या है?”,
उत्तर सीधा नहीं, अनुभव से निकलता है।
भय वही क्षण है जहाँ तुम स्वयं से दूर हो।
और निर्भय वही क्षण है जहाँ तुम स्वयं में लौट आते हो।
अज्ञान भय है।
ज्ञान प्रेम है।
और आत्म-ज्ञान —
वह पुल है जो दोनों के बीच की खाई को पाट देता है।
जैसे ही तुम अपने भीतर उतरते हो,
तुम्हें एहसास होगा कि
भय कोई वास्तविक चीज़ नहीं,
बल्कि केवल उस क्षण की छाया है
जब तुम अपने ही सूर्य से पीठ फेर लेते हो।
जो स्वयं के सूर्य की ओर देखता है,
उसके जीवन में केवल प्रकाश है —
और जहाँ प्रकाश है,
वहाँ भय का कोई अर्थ नहीं बचता।

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