“बुद्ध कहते हैं संसार दुख है… अष्टावक्र कहते हैं काम शत्रु है…” — इन वचनों को समझने का सही मार्ग
जब बुद्ध कहते हैं—“संसार दुख है”,
अष्टावक्र कहते हैं—“काम शत्रु है”,
और महावीर कहते हैं—“अर्थ में केवल अनर्थ है”,
तो लगता है जैसे तीनों किसी निर्णय पर पहुँचे हुए संत हैं, और हम उनके पीछे-पीछे चल पड़ें।
लेकिन ओशो यहाँ एक बेहद सूक्ष्म, बेहद महत्वपूर्ण चेतावनी देते हैं:
इनकी बातें सुनकर तुरंत अनुयायी मत बन जाना।
क्योंकि सत्य उधार नहीं लिया जा सकता।
यह चेतावनी आपके भीतर की जागरूकता को जगाने के लिए है —
किसी निषेध के लिए नहीं, किसी विरोध के लिए नहीं, बल्कि एक आंतरिक स्वतंत्रता के लिए।
1. गुरु कहते हैं — अनुसरण मत करो! पर क्यों?
यह कितना विचित्र है! गुरु खुद कहते हैं: अनुयायी मत बनना, विश्वास मत करना, आँख मूँदकर मत चल देना और फिर भी लोग सबसे पहले क्या करते हैं? अनुयायी बन जाते हैं। क्यों? क्योंकि मन तैयार सत्य चाहता है। मन चाहता है कि कोई बता दे क्या करना है, क्या न करना है। मन चाहता है कि दूसरे का अनुभव अपना अनुभव बन जाए — लेकिन यही असंभव है। ओशो इसी असंभवता की ओर इशारा करते हैं। बुद्ध का “संसार दुख है” — यह बुद्ध का अनुभव है। अष्टावक्र का “काम शत्रु है” — यह उनका आंतरिक निष्कर्ष है। महावीर का “अर्थ अनर्थ है” — यह उनकी जीवन-यात्रा का सत्य है। पर यह तुम्हारा सत्य नहीं है। यदि तुम इसे बिना परखे मान लोगे, तो यह सत्य नहीं— यह बोझ बन जाएगा।
2. सत्य की नकल नहीं होती; सत्य जन्म लेता है
ओशो कहते हैं:
कोई भी महान वाणी बस कह देने से तुम्हारी नहीं हो सकती। तुम्हें झेलना पड़ेगा, देखना पड़ेगा, भीतर उतरना पड़ेगा। बुद्ध ने संसार को दुख कहा क्योंकि उन्होंने संसार का पूर्ण स्वाद चखा। उन्होंने उसमें रहने के हर संभव केन्द्र को छुआ, हर इच्छा का अंत देखा। तुम नहीं देखे हो। तुमने केवल किताबों से सुना है, यानी उधार। उधार का सत्य — सत्य नहीं, एक और बंधन है।अष्टावक्र कहते हैं—काम शत्रु है। पर यह उनके अनुभव की परिणति है। अनुभव के बिना यह वचन तुम्हें या तो दमन की ओर ले जाएगा, या पाखंड की ओर। महावीर कहते हैं—अर्थ में अनर्थ है। पर इसे बिना जांचे यदि तुम मान लोगे, तो या तुम चीज़ों से भागोगे, या गरीबी को आध्यात्मिकता समझने की भूल करोगे।
3. “सुनो — पर मानो मत। देखो — पर आँख मूँदकर मत चलो।”
ओशो की शैली यही है:
वे कभी विश्वास की मांग नहीं करते, वे कहते हैं—प्रयोग करो।
उनकी ख्यात पंक्ति:
“तुम्हारे पास अपनी आँखें नहीं हैं—तुम गिरोगे।”
यदि तुमने अपने सत्य को स्वयं नहीं देखा, तो चाहे वाणी भगवान की क्यों न हो, तुम गिरोगे ही। हर गुरु चेतावनी देता है, लेकिन लोग उल्टा करते हैं। क्योंकि मन आलसी है। मन कहता है—“वह कह रहा है तो सच होगा। चलो मान लेते हैं। चलो अनुयायी बन जाते हैं।” ओशो कहते हैं: यही खतरा है। अनुयायी सत्य तक नहीं पहुँच सकता—वह केवल व्यवस्था—रूल—परंपरा—नकल बन सकता है।
4. “विश्वास मत करो — लेकिन अविश्वास भी मत करो।”
ओशो की सबसे कीमती बात यह है कि वे दोनों छोरों से सावधान करते हैं। वे कहते हैं: विश्वास मत करो, अविश्वास भी मत करो
क्यों?
क्योंकि विश्वास तुम्हें अंध भक्त बनाता है। और अविश्वास तुम्हें अंध विद्रोही बनाता है। दोनों ही अंध हैं। दोनों ही बिना अनुभव के, बिना सत्य के। दोनों ही borrowed हैं — उधार। असली नहीं।
ओशो कहते हैं:
न तो मानो, न नकारो—केवल जांचो।
जीवन की कसौटी पर कसो। स्वयं को झोंको। तजुर्बे में उतरो। सत्य उधार नहीं लिया जाता — सत्य अर्जित होता है।
5. “मात्र तृष्णा बंध है” — यह वाक्य तुम पर कैसे लागू होता है?
अष्टावक्र कहते हैं: “मात्र तृष्णा बंध है।” यानी बंधन का मूल तत्व है — इच्छा।
केवल इच्छा। लेकिन यह समझ तभी आती है जब तुम इच्छा की संपूर्ण प्रक्रिया को देखते हो: इच्छा → उम्मीद → प्रयास → तनाव → भय → निराशा → नई इच्छा और यह चक्र चलता ही रहता है। अष्टावक्र ने यह चक्र अपने भीतर पूर्ण रूप से देखा, इसलिए वे कह सके। लेकिन यदि तुमने इसे नहीं देखा और केवल वचन को पकड़ लिया— तो तुम इच्छा को दमन करोगे, और दमन नई बीमारी पैदा करेगा। वचन को नहीं — अनुभव को समझो।
6. आध्यात्मिकता का सार: उधार नहीं। प्रयोग।
जीवन का कोई भी बड़ा सत्य किसी के कह देने से तुम्हारा नहीं हो सकता। बुद्ध कहें, महावीर कहें, अष्टावक्र कहें — वह उनके लिए ठीक है। पर तुम्हें अपने भीतर अपने बुद्ध पैदा करने होंगे। अपने अष्टावक्र, अपने महावीर। क्योंकि तुम उनके जीवन नहीं जी रहे। तुम्हारा रास्ता अलग है। तुम्हारी समस्याएँ अलग हैं। तुम्हारी तृष्णाएँ, तुम्हारी लड़ाइयाँ, तुम्हारे डर — सभी अनोखे हैं।तो उनका सत्य तुम्हारी यात्रा की शुरुआत हो सकता है, अंत नहीं।
7. गुरु का असली उद्देश्य: तुम्हें स्वतंत्र बनाना
सच्चा गुरु तुम्हें आज्ञाओं का गुलाम नहीं बनाता। वह तुम्हें स्वावलंबी बनाता है। यही कारण है कि ओशो कहते हैं—
“इनकी सुन कर तुरंत चल मत पड़ना…
जीवन की कसौटी पर कसना…
प्रयोग करना।”
गुरु का वास्तविक लक्ष्य है कि तुम अपनी आँखें खोलो, दूसरों के चश्मे उधार न पहनो। तुम्हें अपने सत्य का जन्म देना है। उसे किसी की बातों से पैदा नहीं किया जा सकता।
निष्कर्ष: सत्य अनुभव का फल है, अनुकरण का नहीं
इन सभी महान वचनों का सार यही है:
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सुनो — खुले मन से
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समझो — धैर्य से
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जीओ — अपने तरीके से
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देखो — अपनी आँखों से
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कसो — अपने अनुभव पर
सत्य न दूसरों से मिलता है, न किताबों से, न अनुकरण से। सत्य मिलता है—
अनुभव से।
जागरूकता से।
जांच से।
जीवन से।
इसीलिए ओशो कहते हैं — विश्वास मत करो, अविश्वास भी मत करो। प्रयोग करो — तभी “मात्र तृष्णा बंध है” एक सूचना नहीं, एक अनुभूति बन जाएगा।
FAQs
1. क्या बुद्ध का “संसार दुख है” कथन सभी पर लागू होता है?
नहीं। यह बुद्ध के अनुभव का निष्कर्ष है। इसे यूँ ही मानने की बजाय जीवन में परखने की आवश्यकता है।
2. अष्टावक्र कहते हैं “काम शत्रु है”—क्या इसका मतलब दमन करना है?
नहीं। इसका अर्थ है कि इच्छा अचेतन अवस्था में शत्रु बनती है। समझने और देखने से मुक्ति मिलती है।
3. क्या आध्यात्मिकता का मार्ग गुरु के शब्द मानकर चलने से मिलता है?
नहीं। गुरु दिशा दिखाते हैं, पर सत्य अनुभव से मिलता है—अनुकरण से नहीं।
4. ओशो “अनुयायी मत बनो” क्यों कहते हैं?
क्योंकि अनुयायी उधार के सत्य पर चलता है। ओशो स्वानुभव और स्वतंत्र सोच पर जोर देते हैं।
5. क्या धन, संसार या काम वास्तव में बुरे हैं?
नहीं। वे तभी समस्या बनते हैं जब व्यक्ति अचेतन अवस्था में उनसे चिपक जाता है।

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