अभय क्या है? भय का विसर्जन — अहिंसा का वास्तविक जन्मस्थान
भय — मनुष्य की सबसे पुरानी छाया। और अभय — वह पल जब यह छाया प्रकाश को देखकर विलीन हो जाती है।
अक्सर लोग सोचते हैं कि निर्भय होना ही आध्यात्मिकता का प्रमाण है, पर सत्य कुछ और है।
निर्भय व्यक्ति बहादुर हो सकता है, पर वह अहिंसक नहीं हो सकता। क्योंकि निर्भयता एक कृत्रिम स्थिति है — एक “नहीं डरूँगा” की घोषणा। घोषणाएँ भीतर चल रही प्रक्रियाओं को समाप्त नहीं करतीं।
अभय का अर्थ है — भय का विसर्जन। वो अवस्था जहाँ भय की जड़ ही समाप्त हो जाए, उसका स्रोत सूख जाए, वह स्वयं ही गिर पड़े। और जब भय समाप्त होता है, तभी अहिंसा जन्म लेती है — सहज, अनुप्राणित, बिना किसी नियम के। यह लेख अभय, भय, निर्भयता और अहिंसा के इस त्रिकोण को गहराई से समझता है — ओशो की चिंतन-शैली के अंदाज़ में, लेकिन संपूर्ण मौलिकता के साथ।
1. भय: मन का प्राचीन कार्यक्रम
भय केवल भावना नहीं है — यह एक आंतरिक तंत्र है जो हमारे भीतर हजारों वर्षों से चल रहा है।
मनुष्य ने जंगलों से लेकर सभ्यताओं तक की यात्रा इसी भय की सहायता से की है। लेकिन आज का भय वास्तविक नहीं है — न कोई शेर आपका पीछा कर रहा है, न कोई जंगल आपका शत्रु है। फिर भी मन लगातार भय रचता है: भविष्य का भय, अपमान का भय, असफलता का भय, खो देने का भय, मृत्यु का भय, अकेले रह जाने का भय, हम इन भय को दबाते रहते हैं। दबा हुआ भय कभी समाप्त नहीं होता — वह अंदर से काम करता है, सुरक्षा की माँग करता है, और सुरक्षा हिंसा की पहली सीढ़ी है। किसी भी हिंसा का मूल ढूँढिए, आपको भय मिलेगा। घृणा का मूल भी भय है। स्वामित्व का मूल भी भय है। अत्यधिक नियंत्रण का मूल भी भय है। भय जीवन को जकड़ता है; उसकी पकड़ से निकले बिना कोई भी अहिंसक नहीं हो सकता।
2. निर्भयता: दबे हुए भय का मुखौटा
निर्भयता सुनने में आकर्षक शब्द है, लेकिन यह एक मनोवैज्ञानिक रणनीति है। निर्भय व्यक्ति अपने आप से कहता है — “मैं डरता नहीं।” पर भीतर उसका डर अपना रूप बदल लेता है। वह बहादुरी के रूप में प्रकट होता है, अहंकार के रूप में, कठोरता के रूप में, या नियंत्रित करने की प्रवृत्ति के रूप में। निर्भय व्यक्ति भय को दबाता है, और दबा हुआ भय हिंसा को जन्म देता है। ऐसा व्यक्ति बाहर से शांत दिखाई दे सकता है, पर भीतर का तनाव उसे हर क्षण किसी न किसी संघर्ष की तरफ धकेलता रहता है। निर्भयता किसी अभिनय की तरह है— एक मुखौटा। जो गिरते ही भय का असली चेहरा उजागर कर देता है।
3. अभय: भय का पूर्ण विसर्जन
अभय, निर्भयता नहीं है। अभय, भय का न होना भी नहीं है। अभय वह है, जहाँ भय की जड़ें ही सूख जाएँ। अभय कोई प्रयास नहीं है — वह जागरूकता का परिणाम है। अभय तब आता है जब व्यक्ति भय को छुपाता नहीं दबाता नहीं भगाता नहीं बहादुरी से ढँकता नहीं नज़रअंदाज़ नहीं करता बल्कि उसे देखता है, पूरी स्पष्टता के साथ। जिस क्षण भय को बिना निर्णय के देखा जाता है — वह टूटने लगता है। उसकी गति धीमी पड़ने लगती है। उसका प्रभाव कम होने लगता है। भय कल्पना से जन्मता है। जब आपकी नजर वास्तविकता पर आ जाती है, कल्पना का खेल समाप्त हो जाता है। और उसके साथ भय भी।
यही अभय है — चेतना का साक्षात्कार, जहाँ भय अपनी शक्ति खो देता है।
4. सुरक्षा: भय की माँग, हिंसा का बीज
भय सदैव सुरक्षा चाहता है। सुरक्षा जितनी गहरी होती है, हिंसा उतनी ही बढ़ती है। राज्य सुरक्षा के नाम पर युद्ध करते हैं।परिवार सुरक्षा के नाम पर बच्चों का दमन करते हैं। धर्म सुरक्षा के नाम पर नियंत्रण थोपते हैं। व्यक्ति सुरक्षा के नाम पर स्वयं को सीमित कर लेता है। सुरक्षा का भ्रम हिंसा पैदा करता है — क्योंकि सुरक्षा का अर्थ है कि “मैं स्थायी हूँ”, जो एक झूठ है।जीवन अनिश्चित है — और यह अनिश्चितता ही जीवन की सुंदरता है। अनिश्चितता को स्वीकारना ही अभय का पहला कदम है। जो व्यक्ति अनिश्चितता से मित्रता कर लेता है, वह कभी हिंसक नहीं बन सकता।
5. अहिंसा: अभय की पुत्री
अहिंसा कोई नैतिक नियम नहीं है। यह किसी सिद्धांत का पालन नहीं है। यह किसी धर्म द्वारा थोपा गया अनुशासन नहीं है।अहिंसा एक अनुभूति है, जो केवल अभय से जन्म लेती है। जब अंदर भय न बचे, तब स्वाभाविक है कि आप किसी को नियंत्रित नहीं करेंगे, आप किसी पर अधिकार नहीं जमाएँगे, आप किसी से टकराएँगे नहीं, आपके शब्द, इशारे, ऊर्जा—कुछ भी हिंसक नहीं होगा अहिंसा के लिए किसी पर्व की आवश्यकता नहीं, किसी शिक्षा की आवश्यकता नहीं। अहिंसा आपकी उपस्थिति बन जाती है। हिंसा प्रयास मांगती है। अहिंसा—एक सहज स्थिति है।
6. भय को समझने और विसर्जित करने की प्रक्रिया
(१) जब भय उत्पन्न हो, रुक जाएँ
भागना — भय को बढ़ाता है। रुकना — उसे देखने की शक्ति देता है।
(२) शरीर पर ध्यान दें
भय हमेशा शरीर में उतरता है: धड़कन तेज़, सांस उथली, हाथ काँपते, पेट सिकुड़ता। बस इन्हें देखें। यह देखने से भय अपनी तीव्रता खो देता है।
(३) भविष्य और वास्तविक खतरे में अंतर पहचानें
अधिकांश भय काल्पनिक होते हैं। मन संभावनाओं से डरता है, वास्तविकता से नहीं।
(४) किसी भी संघर्ष के समय पहला शब्द शांत रखें
आपका पहला शब्द ही दूसरी व्यक्ति की दिशा तय करता है। शांत पहला शब्द — एक शक्तिशाली विराम है, जो हिंसा का चक्र तोड़ देता है।
(५) सत्य का सामना करें
अधिकांश भय उस सत्य को छिपाने से पैदा होते हैं जिसे हम मानना नहीं चाहते। सत्य को स्वीकारना भय का अंत है।
7. सामाजिक भय और सामूहिक हिंसा
भय केवल व्यक्तिगत नहीं है। समाज पूरे ढाँचे पर भय से चलता है: व्यवस्था का भय, नैतिकता का भय, परंपरा का भय, प्रतिष्ठा का भय, सत्ता का भय इन सबको मिलाकर समाज ऐसा बनता है जहाँ हर व्यक्ति दूसरे के डर को पोषण देता है। भय की संस्कृति, हिंसा की संस्कृति बन जाती है। यदि अभय व्यक्तिगत स्तर पर आता है, तो धीरे-धीरे वह सामूहिक चेतना को बदल देता है। एक अभय व्यक्ति — अपने परिवार, मित्रों, समाज में एक प्रकाश की तरह फैलता है।
8. अभय और जीवन की सहजता
जब भय समाप्त होता है, जीवन हल्का हो जाता है। सांसें गहरी हो जाती हैं। संबंध सरल हो जाते हैं। बातचीत में तनाव समाप्त हो जाता है। निर्णय सहज हो जाते हैं। आप किसी से प्रतिस्पर्धा नहीं करते। किसी से साबित नहीं करते। किसी को जीतने की कोशिश नहीं करते। किसी से लड़ते नहीं। जीवन एक नृत्य बन जाता है। क्योंकि भय का बोझ हट चुका है।
9. अभय का मार्ग: ध्यान, साक्षीभाव, सत्य
अभय किसी गुरु के आशीर्वाद से नहीं आता। न किसी पुस्तक से। न किसी धर्म से। यह केवल तीन आंतरिक प्रक्रियाओं से आता है:
(१) ध्यान — बिना निर्णय के देखना
ध्यान भय की ऊर्जा को स्थिर कर देता है।
(२) साक्षीभाव — मन के खेल को पहचानना
साक्षीभाव मन के स्वचालित भय-प्रोग्राम को तोड़ देता है।
(३) सत्य — स्वयं को छुपाना बंद करना
सच्चाई स्वीकारते ही भय की जड़ कट जाती है। इन तीनों का मिलन अभय को जन्म देता है।
10. निष्कर्ष: भय नदी है, अभय समुद्र
भय एक नदी की तरह है — बहती है, मुड़ती है, चक्कर खाती है, अपने मार्ग से बाहर जाती है, अपना रूप बदलती रहती है।लेकिन जब वही नदी समुद्र में गिरती है, वह अपनी पहचान खो देती है। वह शांत हो जाती है, स्थिर हो जाती है, अपने अहंकार को त्याग देती है। अभय — यही समुद्र है। भय नदी चाहे जितना भी जोर करे, समुद्र में पहुंचते ही उसका खेल समाप्त हो जाता है। इसी तरह जब मन चेतना के समुद्र में उतरता है, भय अपनी समस्त शक्ति खो देता है, और अहिंसा — सहज, स्थिर, जीवंत — जन्म लेती है।

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