“सहज” — आओ इस शब्द को खोलें
जब Osho कहते हैं कि “सहज का मतलब होता है जो हो रहा है उसे होने दें, आप बाधा न बनें” — तो वे केवल एक शब्द नहीं कह रहे, बल्कि अस्तित्व की उस गहराई तक पहुँचना चाह रहे हैं जहाँ हम खुद नहीं खड़े होकर प्रकृति-प्रवाह बना लेते हैं।
सहजता का शाब्दिक अर्थ हो सकता है “स्वाभाविक”, “उपद्रव हीन”, “बाधा रहित” — पर ओशो उसे एक आध्यात्मिक गहराई में ले जाते हैं। वे कहते हैं — जैसे हवा है, पानी है — हमें बनने दें कि हमारी वृत्ति भी चारों ओर बहती जाए, बीच में बुद्धि-रुकावट-विचार-शब्द न आएँ।
इस वाक्य में तीन आइडिया है:
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हो रहा है उसे होने देना — यानी प्रतिबंध, रोक-टोक और नियंत्रण की प्रवृति को छोड़ देना।
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आप बाधा न बनें — यानी स्वयं-बाधक न बनें; आंतरिक तीव्रता, चिंताएँ, प्रतिरोधन (resistance) छोड़ना।
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हवा-पानी की तरह हो जाना — एक प्रवाह-धारा जहाँ “मैं” और “दुनिया” का विभाजन हल्का हो जाता है।
यह सरल सुनाई देता है, लेकिन वास्तव में बहुत कठिन — क्योंकि हमारी शिक्षा-संस्कृति हमें “करने-वाले”, “नियंत्रित करने-वाले” रहने की आदत सिखाती है।
सहजता क्यों इतनी कठिन होती है?
ओशो ने कहा है:
“चलना ज़ेन है, बैठना ज़ेन है; बोलना हो या चुप रहना — सार यह है: THE ESSENCE IS AT EASE.”
यहाँ एक बेहद सरल-सा वाक्य है, लेकिन उसमें उलझा हुआ है पूरा जीवन का मसला: जब “मैं चल रहा हूँ”, “मैं बोल रहा हूँ”, “मैं विचार कर रहा हूँ” — तब भी “हृदय-गहराई में” अगर एक शांत-चक्षु-साक्षी बना हुआ है, तब “सहज” हो जाना संभव है।
“सहज” इसलिए कठिन है क्योंकि:
हम नियंत्रण की प्रवृत्ति में फँसे हुए हैं: मैं कैसे दिखूं, कैसे महसूस करूं, क्या परिणाम आएगा।
हम भावना-महत्त्व के कारण मानसिकता में हैं: “यह नहीं होना चाहिए”, “मैं चाह रहा हूँ कि…” — इससे बीच-बीच में बाधक खड़े हो जाते हैं।
बुद्धि-विचार हमें असहज बना देते हैं: हवा-पानी जैसे बह जाना एक सहजता मांगता है — पर हमारा मन उसे रोकने, छाँटने, सही-गलत करने निकल पड़ता है।
इसलिए, एक आदमी अगर नग्न हो गया — यहाँ नग्न का प्रतीक है पूर्ण खुलापन, कोई लपेट-फिर नहीं, कोई नकाब नहीं — तो वह सहज हो सकता है, क्योंकि उसमें “मैं-और-दुनिया” का अन्तर घट जाता है। लेकिन बड़ा कठिन हो गया क्योंकि हमारा स्वाभाविक शरम-ढांचा, सामाजिक प्रतिबिंब, पहचान-विचार सभी इसमें बाधा डालते हैं।
सहजता का अभ्यास: कुछ दिशा-निर्देश
ओशो जैसा दृष्टिकोण अपनाना मतलब “काफ़ी वक्त बैठ जाना” भर नहीं — बल्कि जीवन के हर पल में एक नई संबंध-स्थिति स्थापित करना है। नीचे कुछ सुझाव हैं जो रोडमैप की तरह काम कर सकते हैं:
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स्वीकृति से शुरुआत करें
जो हो रहा है — उसे पहचानना कि हो रहा है। न “यह नहीं होना चाहिए”, न “मैं चाहता था कि…”, न “मैं इसे बदल दूँ” — बस यह महसूस करें: “यह हो रहा है।”
जब स्वीकार्यता मन में उतर जाए, तभी परिवर्तन स्वाभाविक रूप से घटित होना संभव है। -
बाधा-प्रवृत्ति को पहचानें
विचार-चक्र, मन में उठने-बैठने वाली प्रतिक्रियाएँ, “मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए”, “क्यों हो रहा है?”, “मैं इसका सामना नहीं कर सकता” — ये सब संकेत हैं कि आप बाधा बन रहे हैं।
एक आंतरिक सवाल पूछें: “क्या मैं इस पल में सहज हूँ? या मैं अपने विचार-भावना-इच्छा से इसे जकड़ रहा हूँ?” -
बुद्धि-विचार को देखने वाला बनें
न कि बुद्धि-विचार खुद आप हों — बल्कि उनके पीछे एक साक्षी रूप में बनें। जैसे आप हवा को देखते हैं, जैसे नदी बहती है — उस तरह अपनी प्रवृत्तियों को देखिए: “विचार आ रहा है”, “भावना उठ गई”, “इच्छा उभर रही है” — पर उनका मालिक बनने का दबाव न लें।
ओशो कहते हैं, “जब मन थम जाता है, समय थम जाता है।” सहजता वहाँ से शुरू होती है जहाँ समय-विचार-भावना का रेसmodus धीमा पड़ता है। -
प्रवाह में बने रहने की क्षमता विकसित करें
जैसे हवा बिना रोक-टोक चली जाती है, पानी बिना अपना स्वरूप बदले बह जाता है — वैसे ही आप स्थिति-परिस्थितियों में “तरल बने” रहें।
इसका मतलब यह नहीं कि आप निष्क्रिय हो जाएँ — बल्कि कि आप प्रतिक्रियाशीलता से बाहर आ जाएँ। चलना हो, बोलना हो, काम करना हो — लेकिन बीच में “मैं इसे नियंत्रित कर रहा हूँ” का भाव हे नहीं रह जाए।
इस तरह, सहजता आपके हर क्रिया में समाहित हो जाती है। -
छिन्न-भिन्न स्थितियों में सहज बने रहें
सुख, दुःख, सफलता, विफलता — ये सब अनुभव आएँगे। सहजता इनका विरोध नहीं करती, न इनका पीछा करती। “होने दो” — यही सहजता का मूल मंत्र है।
ओशो कह देते हैं: “वॉकिंग इज़ ज़ेन, सिटिंग इज़ ज़ेन … मूविंग या अनमूविंग — सार यह है: The essence is at ease.”
सहजता का रोज़-जीवन में अर्थ
अब इसे दैनिक जीवन में देखें — पर इसे एक बड़ी बात की तरह न जकड़ें। आसान-या कठिन दोनों हो सकते हैं; यह सिर्फ अभ्यास-प्रक्रिया है।
उदाहरण १: संवाद में सहजता
आप किसी से बात कर रहे हैं — आपके भीतर “मैं क्या कहूँ?”, “वह क्या सोचेगा?”, “अगर वो नहीं समझे तो?” आदि प्रश्न उठ सकते हैं। सहजता यह है: आप बातचीत कर रहे हैं, पर आपके भीतर यह स्थिति बनी हो कि आप “सिर्फ बोल रहे हैं” — और बोलने के बाद “उसका असर-प्रतिक्रिया” को छोड़ सकते हैं।
मतलब: बोलो, पर न उस पर निर्भर हो। सुनो, पर न सुनने के बाद घबराओ। यह प्रवाह है।
उदाहरण २: काम-काज में सहजता
जब आप काम कर रहे हों — ऑफिस-प्रोजेक्ट, घर-कार्य, कोई भी सक्रियता — सहजता यह है कि आप काम करते हुए “मैं काम कर रहा हूँ” और “काम कर रहा है मुझसे” — इस बीच चुनिंदा दूरी रख सकें।
काम हो रहा है, आप हैं, पर उस काम में फँसे नहीं। बाधा-प्रवृत्ति जैसे “परफेक्ट होना है”, “अगर गलती हुई तो मैं…” — ये सब धीमे-धीमे पिघलती जाएँ।
उदाहरण ३: मुश्किल समय में सहजता
जब संकट आए — स्वास्थ्य समस्या, संबंधों में तनाव, नौकरी-संकट — सहजता यह अलग-से मोड़ ले लेती है। आप कह सकते हैं: “यह हो रहा है”। आप कह सकते हैं: “मैं इससे परेशान हूँ” — लेकिन बीच में यह न कहें कि “मैं इस स्थिति का बंदोबस्त कर लूँगा या नहीं कर लूँगा” । आप स्थिति को होने दे रहे हों।
यह आसान नहीं है — क्योंकि हमारी प्रवृत्ति होती है समस्या को निपटाना, उसे अस्वीकार करना, उसे बदलना। सहजता कहती है: पहले स्वीकार करो कि “यह हो रहा है”, फिर देखें कि क्या इस स्वीकार से भीतर एक शांति-गुण उभरता है।
सहजता के लाभ — आपकी दुनिया बदल सकती है
किन बातों का ध्यान रखें — कुछ चेतावनियाँ
निष्कर्ष
तो — जब आप “जो हो रहा है उसे होने दें” की उस आओ (call) को स्वीकारते हैं, आप एक नई आंतरिक चेतना-स्थिति की ओर बढ़ रहे होते हैं। यह वह अवस्था है जहाँ आप “मैं कर रहा हूँ” और “हो रहा है” के बीच अचानक उस स्थान पर खड़े हो जाते हैं जहाँ कोई विशेष प्रयास, कोई विशेष परिणाम-प्रेट नहीं है — बस एक खुला-स्थान है।
ओशो ने अपनी भाषा में कहा है:
“Once you have caught the quality, then the trap can be forgotten. Walking is Zen, sitting is Zen… The essence is at ease.”
सहजता की यह राह आसान नहीं — लेकिन जितना प्रयास होगा, उतनी ही शुद्धता-शांति मिलेगी। जीवन की गति में, रोज़मर्रा की हलचल में, आप महसूस करेंगे कि “मैं बाधा नहीं हूँ” — बल्कि “मैं प्रवाह-का हिस्सा हूँ”

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