🕉️ प्रवचन: “जीवन, चेष्टा नहीं है — समर्पण है”
“जीवन, चेष्टा नहीं है, समर्पण है। छोड़ देना है। जितना तुम लड़ोगे, उतना ही तुम मुश्किल में पड़ोगे। अहंकार संघर्ष है, समर्पण असंघर्ष की दशा है। तब सब स्वीकार कर लेना है, छोड़ कर। फिर जो उसकी मर्जी — जैसा वह रखे, जैसा वह चलाए, जहां वह ले जाए, जो वह करे। अचानक तुम पाओगे, सब हलका हो गया।” — ओशो
1. “छोड़ देने” का अर्थ — क्या छोड़ना है, और किससे जुड़ना है?
जब मैं कहता हूँ “छोड़ दो,” तो लोग डर जाते हैं।
उन्हें लगता है, सब कुछ छोड़कर भाग जाना है — घर, परिवार, नौकरी, रिश्ते।
नहीं, छोड़ना चीज़ों का नहीं है, पकड़ का है।
तुम्हें संसार नहीं छोड़ना, संसार को अपने नियंत्रण में रखने की मूर्खता छोड़नी है।
तुम्हें प्रेम नहीं छोड़ना, प्रेम पर अपना अधिकार छोड़ना है।
तुम्हें शरीर नहीं छोड़ना, शरीर से अपनी पहचान छोड़नी है।
“छोड़ देना” का अर्थ है — अब मैं चालक नहीं हूँ, मैं यात्री हूँ।
अब मैं दिशा तय नहीं करता, मैं यात्रा को अनुमति देता हूँ।
नदी में उतर जाओ — अगर तैरने की कोशिश करोगे तो थक जाओगे;
अगर खुद को पानी के हवाले कर दो, तो नदी खुद संभाल लेती है।
जीवन भी ऐसी ही नदी है।
जब तक तुम चलाने की कोशिश करते हो, संघर्ष है;
जैसे ही तुम बहने लगते हो, शांति है।
2. अहंकार और समर्पण — दो दिशाओं की यात्रा
अहंकार कहता है, “मैं करूंगा।”
समर्पण कहता है, “जो होना है, वही होगा।”
अहंकार की दुनिया में ‘मैं’ केंद्र है।
समर्पण की दुनिया में ‘वह’ केंद्र है।
अहंकार तनाव है — क्योंकि वह लड़ रहा है।
समर्पण शांति है — क्योंकि वह बह रहा है।
अहंकार वही करता है जो डरता है हारने से।
समर्पण वही करता है जो भरोसे में जीता है।
अहंकार मानता है — “मेरे बिना कुछ नहीं चलता।”
समर्पण हँसता है — “क्या तुम्हारे बिना सूरज उगना रुक जाएगा?”
अहंकार दीवार है, समर्पण द्वार है।
दीवारें बंद करती हैं, द्वार खुलता है।
समर्पण वह खुला द्वार है जहाँ से अस्तित्व भीतर आता है।
3. जीवन को समर्पण के रूप में देखना
हमने जीवन को प्रयासों की मशीन बना दिया है।
हर कोई “कुछ बनने” की दौड़ में है —
कोई सफल होना चाहता है, कोई प्रसिद्ध, कोई पवित्र।
लेकिन क्या तुमने कभी देखा है कि अस्तित्व में कोई प्रयास नहीं करता?
फूल खिलते हैं — प्रयास नहीं करते।
नदी बहती है — प्रयास नहीं करती।
पक्षी गाते हैं — किसी संगीत-विद्यालय से सीखा नहीं।
प्रयास वहाँ होता है जहाँ भरोसा नहीं है।
जहाँ भरोसा है, वहाँ प्रवाह है।
ओशो कहते हैं —
“जो जीतना चाहता है, वह हार चुका है।”
क्योंकि जीत की इच्छा ही अधूरेपन का प्रमाण है।
और जो कहता है, “मैं जैसा हूँ, पूर्ण हूँ,”
वह समर्पित हो चुका है।
समर्पण का अर्थ है —
जीवन को युद्ध नहीं, उत्सव के रूप में जीना।
नृत्य करना, क्योंकि हवा बह रही है —
न कि इसलिए कि किसी मंज़िल पर पहुँचना है।
4. “छोड़ देना” को जीवन में कैसे उतारें?
(क) रिश्तों में:
जब तुम किसी से प्रेम करते हो,
तो उसे पकड़ने की कोशिश मत करो।
पकड़ में प्रेम नहीं रहता — केवल स्वामित्व रह जाता है।
प्रेम को सांस की तरह रहने दो —
अगर रोकोगे तो मर जाएगा, अगर बहने दोगे तो सुगंध बन जाएगा।
सच्चा प्रेम वह है जो दूसरे को स्वतंत्र छोड़ देता है।
जिसे तुम अपने पास बाँधना चाहते हो, वह तुम्हारा नहीं।
जिसे तुम आज़ाद छोड़ दो, वह सदा तुम्हारे साथ रहेगा।
(ख) काम में:
काम करो, पर परिणाम को छोड़ दो।
यह मत सोचो — “इससे मुझे क्या मिलेगा?”
बस करो, पूरी तन्मयता से, जैसे बच्चे खेलते हैं।
ओशो कहते हैं — “जब काम खेल बन जाए, तब कर्म योग है।”
(ग) आध्यात्मिक जीवन में:
ध्यान कोई नियंत्रण नहीं है।
तुम बैठते हो, आँखें बंद करते हो, और बस देखते हो।
विचार आते हैं — आने दो; जाते हैं — जाने दो।
न रोकना, न पकड़ना।
धीरे-धीरे देखने वाला, साक्षी, शांत हो जाता है।
और उसी मौन में समर्पण घटता है।
5. कहानी: “बांसुरी और श्वास”
एक वृद्ध साधु रोज़ बांसुरी बजाता था —
इतनी मधुर कि हवा भी सुनने को रुक जाती।
एक दिन एक युवक ने पूछा,
“बाबा, यह बांसुरी इतनी सुंदर क्यों बजती है?”
साधु मुस्कराए — “क्योंकि यह खाली है।”
फिर बोले —
“अगर बांसुरी अपने भीतर कुछ भर ले,
तो क्या संगीत बहेगा?”
युवक बोला, “नहीं।”
साधु ने कहा, “बस बेटा, मन को भी बांसुरी बना ले।
खाली हो जा —
तब ईश्वर की श्वास तेरे भीतर से संगीत बनकर गुज़रेगी।”
यही “छोड़ देने” का रहस्य है।
खाली हो जाना, ताकि अस्तित्व तेरे भीतर से बहे।
तुम्हारा होना ही बाधा है,
और तुम्हारा न होना ही समर्पण है।
6. ध्यान और समर्पण का मिलन
ध्यान, समर्पण की परिपक्वता है।
जहाँ समर्पण है, वहाँ ध्यान सहज हो जाता है।
जो नियंत्रण में जीता है, वह कभी ध्यान में नहीं उतर सकता।
ध्यान तब घटता है जब तुम कहते हो —
“मैं कुछ नहीं कर रहा, बस जो है उसे देख रहा हूँ।”
ध्यान, मौन में विश्राम है।
नींद शरीर की थकान मिटाती है;
ध्यान आत्मा की थकान मिटाता है।
जब तुम सब प्रयास छोड़ देते हो,
केवल मौन में रह जाते हो —
वह क्षण ध्यान का है।
और जब ध्यान गहराता है,
समर्पण तुम्हारा स्वभाव बन जाता है।
7. समर्पण की हँसी, मौन और प्रेम
ओशो कहते हैं — “समर्पण गंभीरता नहीं, हँसी है।”
क्योंकि जो समर्पित है, वह जानता है कि
जीवन कोई परीक्षा नहीं, उत्सव है।
अहंकार जीवन को युद्ध बना देता है।
समर्पण उसे नृत्य बना देता है।
एक बार किसी ने ओशो से पूछा —
“भगवान क्या है?”
ओशो हँस पड़े — “जब तुम नहीं रहोगे,
तब वही बचेगा — वही भगवान है।”
मौन में समर्पण उतरता है,
और समर्पण से प्रेम जन्म लेता है।
अब प्रेम किसी व्यक्ति से नहीं,
हर उपस्थिति से होने लगता है।
समर्पण प्रेम का द्वार है,
और प्रेम ध्यान का मार्ग।
8. समर्पण का व्यंग्यात्मक आईना
तुम जीवन से कहते हो — “मेरे अनुसार चलो।”
और जब जीवन तुम्हारी नहीं सुनता,
तो तुम शिकायत करते हो — “यह क्या हो रहा है?”
तुम्हें लगता है कि जीवन तुम्हारा ड्राइवर है।
तुम दिशा बताते हो, और जब गाड़ी झटके खाती है,
तो तुम नाराज़ हो जाते हो!
ओशो हँसते हुए कहते थे —
“जब जीवन तुम्हारी योजनाएँ बिगाड़ देता है,
तब समझना — ईश्वर ने प्रवेश कर लिया है।”
छोड़ देना मतलब — योजना छोड़ देना।
जीवन को जीवन की तरह जीना,
न कि किसी प्रोजेक्ट की तरह।
9. समर्पण की अंतिम सहजता
जो छोड़ता है, वही पाता है।
जो पकड़ता है, वही खोता है।
तुम मुट्ठी में हवा नहीं पकड़ सकते।
मुट्ठी बंद होगी तो खाली रह जाएगी;
मुट्ठी खुली होगी तो हवा उसमें नाचेगी।
समर्पण कोई पराजय नहीं —
यह सबसे ऊँची विजय है।
क्योंकि जिसने समर्पण किया,
उसे कोई हरा नहीं सकता।
जब तुम “मैं” छोड़ देते हो,
तब भार गिर जाता है।
और जब “मेरा” छोड़ देते हो,
तब संसार गिर जाता है।
फिर अचानक सब हल्का हो जाता है।
अब केवल आकाश बचता है —
न मापने योग्य, न बाँधने योग्य —
बस अनंत।
🕉️ ध्यान-सूत्र: “छोड़ने की साधना”
हर दिन कुछ पल मौन में बैठो।
आँखें बंद करो, बस अपनी श्वास को महसूस करो।
हर श्वास के साथ भीतर कहो — “स्वीकार।”
हर निश्वास के साथ भीतर कहो — “छोड़।”
कुछ मत करो — केवल देखो।
विचार आएँ, भाव आएँ, सबको आने दो।
धीरे-धीरे तुम पाओगे —
छोड़ने की प्रक्रिया अपने आप घट रही है।
कोई “मैं” नहीं जो छोड़ता है,
केवल छोड़ना ही रह जाता है।
और वही समर्पण है।
❓ FAQs: जीवन, चेष्टा नहीं है, समर्पण है — ओशो प्रवचन
1. “जीवन चेष्टा नहीं है, समर्पण है” का क्या अर्थ है?
इसका अर्थ है — जीवन को नियंत्रित करने की कोशिश मत करो। जीवन को वैसे ही बहने दो जैसे वह बहना चाहता है।
2. क्या समर्पण का मतलब निष्क्रिय हो जाना है?
नहीं। समर्पण का अर्थ है प्रवाह में सक्रियता, लेकिन बिना अहंकार के। यह ‘करना’ नहीं, ‘होने देना’ है।
3. ‘छोड़ देना’ को रिश्तों में कैसे अपनाएँ?
प्रेम में स्वामित्व छोड़ो। साथी को स्वतंत्रता दो। प्रेम तभी जीवित रहता है जब उसे सांस लेने की जगह मिले।
4. ध्यान और समर्पण का आपस में क्या संबंध है?
ध्यान समर्पण की परिपक्वता है। जब तुम पूरी तरह छोड़ देते हो, तब ध्यान अपने आप घटता है।
5. ओशो “सब हल्का हो गया” क्यों कहते हैं?
क्योंकि जब “मैं” और “मेरा” गिर जाता है, तब भार समाप्त होता है — केवल आकाश रह जाता है, मुक्त और निश्चिंत।
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