🕉️ ईश्वर का मतलब है — खोजना उसे

ईश्वर क्या है?
मनुष्य हजारों सालों से यही प्रश्न पूछता आया है।
कभी मंदिर के पत्थरों में झाँका, कभी आकाश की ऊँचाई में देखा।
कभी उसने मंत्र जपे, कभी उसने तारों से प्रार्थना की।
पर ईश्वर मिला नहीं।
और मैं कहता हूँ — वह मिल नहीं सकता,
क्योंकि वह कोई वस्तु नहीं है जिसे तुम पा सको।
ईश्वर तो खोजना ही है।
जब तुम सच्चे खोजी बन जाते हो — उसी क्षण ईश्वर घटता है।

🔹 “खोजना” का अर्थ

जब ओशो कहते हैं — “ईश्वर का मतलब है, खोजना उसे”
तो वे किसी देवता की खोज की बात नहीं कर रहे।
वे खोज की उस जीवंत प्रक्रिया की ओर इशारा कर रहे हैं
जो चेतना को उसके शिखर पर ले जाती है।
“ईश्वर” कोई मंज़िल नहीं है — वह यात्रा है,
वह लहर है जो सागर की ओर बढ़ती है।

लोग सोचते हैं खोज का अर्थ है —
कहीं जाकर कुछ मिल जाए।
पर असली खोज है —
जहाँ जाने की कोई जगह नहीं, और लौटने का कोई रास्ता नहीं।
वह खोज भीतर घटती है, जहाँ खोजने वाला ही विलीन हो जाता है।

🔹 मंदिर के बाहर भीड़, मंदिर के भीतर मौन

देखो, लोग मंदिर जाते हैं, सिर झुकाते हैं,
घंटियाँ बजाते हैं, और फिर वापस आ जाते हैं —
जैसे किराने की दुकान गए हों।
वे सोचते हैं कि वहाँ किसी भगवान से सौदा होगा।
“मैं अगर यह पूजा कर लूँ तो तू मुझे नौकरी दे देना।”
कितना हास्यास्पद है!
ईश्वर कोई व्यापारी नहीं है —
वह तो प्रेम है, वह तो मौन है।

तुम उसे मंदिर में खोजते हो, और वह तुम्हारे भीतर बैठा मुस्कुरा रहा है।
तुम अगर थोड़ा ठहरो, तो वह स्वयं प्रकट हो जाता है।
पर मनुष्य भागता है — मंदिर से घर, घर से बाज़ार, बाज़ार से सोशल मीडिया,
हर जगह ढूँढता है — सिवाय अपने भीतर के।

🔹 सागर और बूँद का रहस्य

बूँद सोचती है — मैं सागर को खोजना चाहती हूँ।
वह यात्रा करती है, हवाओं से बहती है, बादल बनती है, बरसती है।
और एक दिन सागर में गिर जाती है।
उस क्षण क्या होता है?
खोज समाप्त हो जाती है —
क्योंकि खोजने वाली बूँद अब सागर बन चुकी है।

यही है ईश्वर का अर्थ।
जब तुम खोजते-खोजते थक जाते हो,
और अंततः गिर पड़ते हो —
तब तुम्हारे भीतर सागर घटता है।
बूँद खो जाती है, और वही खोना परम मिलन है।

🔹 मनुष्य की गलत खोज

मनुष्य की समस्या यह नहीं कि वह खोज नहीं करता,
समस्या यह है कि वह गलत दिशा में खोजता है।
वह सत्ता में खोजता है, वह धन में खोजता है,
वह दूसरों की प्रशंसा में खोजता है।
वह सोचता है कि जितना बड़ा घर, उतना बड़ा ईश्वर।
पर जितना बाहर बढ़ता है, उतना ही भीतर से खाली होता जाता है।

तुम किसी भी दिशा में दौड़ो —
अंततः तुम अपने ही भीतर आकर गिरोगे।
तुम्हारा अंत तुम्हारे आरंभ में है।
खोज तुम्हें बाहर नहीं ले जाएगी,
वह तुम्हें अपने भीतर की मौन गुफा में उतार देगी।

🔹 ध्यान: खोज का विज्ञान

ईश्वर को खोजने का अर्थ है —
अपने भीतर की चेतना को जानना।
और ध्यान उसका विज्ञान है।
ध्यान कोई पूजा नहीं है, कोई धर्म नहीं है —
वह एक खोज की प्रयोगशाला है।
जहाँ तुम अपनी आँखें बंद करते हो,
और पहली बार खुद को देखते हो —
बिना नाम, बिना परिचय, बिना विचार के।

वहाँ कोई हिंदू नहीं है, कोई मुसलमान नहीं है,
कोई ईसाई नहीं है — वहाँ सिर्फ मौन है।
और वही मौन ईश्वर है।
ईश्वर ध्वनि नहीं है, ईश्वर मौन की गूँज है।

🔹 एक साधु की कहानी

एक बार एक साधु ने जीवन ईश्वर की खोज में लगा दिया।
कभी हिमालय गया, कभी रेगिस्तान गया,
कभी आश्रमों में, कभी गुरुओं के पास।
हर जगह लोग कहते — “वह वहाँ नहीं है, कहीं और जाओ।”
वह भटकता रहा।

एक दिन थककर वह एक झील के पास बैठ गया।
जल में अपना चेहरा देखा — और मुस्कुराया।
कहा, “इतने वर्षों से मैं खुद को खोज रहा था,
और मैं यहीं था।”
उसने आँखें बंद कीं, और उसी क्षण मौन उतर आया।
वह अब कुछ खोज नहीं रहा था —
खोज स्वयं में विलीन हो गई थी।

🔹 विज्ञान और आध्यात्म

विज्ञान भी खोज है — पर उसका केंद्र बाहर है।
वह पदार्थ की तह तक जाता है।
आध्यात्म भी खोज है — पर उसका केंद्र भीतर है।
वह चेतना की तह तक उतरता है।
दोनों का लक्ष्य एक ही है — सत्य।
पर वैज्ञानिक जब कण में उतरता है,
तो अंततः उसे भी मौन मिलता है।
क्योंकि जितनी सूक्ष्म परतें खोलो,
वहाँ पदार्थ नहीं, ऊर्जा का मौन नृत्य है।

ओशो कहते हैं — “विज्ञान और ध्यान दोनों एक ही यात्रा के दो छोर हैं।”
एक बाहर से भीतर आता है, दूसरा भीतर से बाहर जाता है —
दोनों मिलते हैं वहीं जहाँ खोज समाप्त हो जाती है।

🔹 खोज और समर्पण

ईश्वर को खोजना मतलब अपने अहंकार को त्यागना।
अहंकार कहता है — “मैं जानता हूँ।”
खोज कहती है — “मैं नहीं जानता।”
यहीं से द्वार खुलते हैं।
जो कहता है “मुझे सब पता है,”
उसके लिए ईश्वर का कोई रास्ता नहीं।
पर जो कहता है “मुझे कुछ नहीं पता,”
उसके भीतर प्रकाश झरने लगता है।

समर्पण का अर्थ है — अब मैं नहीं खोज रहा,
अब खोज स्वयं घट रही है।
“लेट गो” — छोड़ देना।
और उसी क्षण सब हल्का हो जाता है।

🔹 मौन — खोज का फल

जब खोज अपने चरम पर पहुँचती है,
तो वह किसी वस्तु में नहीं ठहरती,
वह मौन में विलीन हो जाती है।
तुम खोजते रहो, खोजते रहो —
फिर एक क्षण आता है जब खोजने वाला ही नहीं बचता।
तुम बस मौन हो जाते हो।
और वही मौन ईश्वर है।

🔹 समापन

अब कुछ मत खोजो।
सिर्फ रुक जाओ।
क्योंकि ईश्वर को पाना नहीं है —
ईश्वर में गिर जाना है।

आँखें बंद करो, श्वास को देखो।
वह जो श्वास के मध्य मौन है — वही “वह” है।
जिसे खोजते थे, वही खोज रहा था।
जिसे पाने निकले थे, वही भीतर बैठा प्रतीक्षा में था।

ओशो कहते —

“जब खोजने वाला नहीं रहता,
तब खोज मिलती है।
खोज ही खोज का फल है।”

अब कुछ मत बोलो…
बस मौन हो जाओ।
ईश्वर अभी-अभी यहाँ है। 🌿

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