“भीतर का दिया जो कभी नहीं बुझता”

सब जहां सोए हैं — यह वाक्य केवल रात के अंधकार का बोध नहीं कराता, यह मनुष्य की अचेतनता का प्रतीक है।
लोग चलते हैं, बोलते हैं, खाते हैं, सोते हैं — लेकिन सब कुछ नींद में।
नींद केवल आंखों की नहीं होती; नींद का अर्थ है, अवचेतनता में जीना।
जहां तुम हो, वहां तुम्हारा होश नहीं है — बस वही नींद है।

मनुष्य एक चलता-फिरता स्वप्न है।
वह सोचता है कि वह जागा हुआ है, लेकिन वह सपनों की परतों में, इच्छाओं की धुंध में, भय और आशाओं की परछाइयों में भटक रहा है।
और यही कारण है कि अष्टावक्र कहते हैं — “सबके लिए तो निशा है।”
क्योंकि जब भीतर अंधकार है, तब दिन भी रात बन जाता है।
जब भीतर की आंख बंद है, तब सूरज भी व्यर्थ है।

जागरण का अर्थ

संयमी — यह शब्द बहुत गहराई रखता है।
ओशो कहते हैं, संयम का मतलब दबाना नहीं है; संयम का अर्थ है जागरूकता।
जो व्यक्ति जागा हुआ है, वही संयमी है।
जो व्यक्ति अपनी हर क्रिया में, हर भावना में, हर श्वास में सजग है, वही सच्चा संयमी है।
संयम का अर्थ यह नहीं कि तुमने किसी चीज को त्याग दिया, बल्कि यह कि अब तुम नींद में नहीं हो।
तुम जो भी करते हो, उसे करते हुए जाग रहे हो।
तुम भोजन करते हो तो तुम्हारा ध्यान भोजन पर है; तुम बोलते हो तो वाणी में साक्षी बना है; तुम प्रेम करते हो तो उसमें भी एक भीतर का साक्षी मौजूद है।

यह साक्षी ही वह दीपक है, जिसके बारे में अष्टावक्र कहते हैं —
“गहरी से गहरी अंधेरी अमावस में भी उसके भीतर दिया जलता रहता है।”
यह दिया बाहर का नहीं, भीतर का है।
यह दिया किसी साधन से नहीं जलाया जा सकता — यह तो तुम्हारे अस्तित्व की ज्योति है, जो तुम्हारे होश से प्रकट होती है।

अंधकार का अर्थ और उसका पार होना

अंधकार से डरने की जरूरत नहीं।
वह केवल प्रकाश की अनुपस्थिति है।
और प्रकाश भी कहीं बाहर नहीं है — वह भीतर से ही फूटता है।
संयमी वह है जिसने बाहरी दीपक पर निर्भर रहना छोड़ दिया।
जिसने भीतर के दीपक को खोज लिया।

जब तुम अपने भीतर उतरते हो, तो पाओगे कि भीतर एक निस्तब्ध केंद्र है —
न वहां कोई हलचल है, न वहां कोई आवाज़ है, न वहां कोई समय है।
वहां बस शांति है — और उसी शांति में एक मौन ज्योति जलती है।
यही ज्योति तुम्हारा साक्षी है, तुम्हारी आत्मा है।

लोग मंदिरों में दीप जलाते हैं, क्योंकि उन्हें भीतर का दीप ज्ञात नहीं।
वह बाहर दीया जलाते हैं ताकि भीतर का अंधकार थोड़ी देर को भूल जाएं।
पर संयमी वह है, जिसने बाहरी मंदिर से भीतर का मंदिर खोज लिया।
जिसने बाहरी दीये से भीतर की लौ पहचान ली।

जागरण की अखंडता

अष्टावक्र कहते हैं — “जागरण अखंड है, अविच्छिन्न है।”
ओशो इस वाक्य को समझाते हैं —
जागरण का मतलब केवल ध्यान के समय जागना नहीं है।
वह तो सतत् अवस्था है —
तुम सोते हुए भी जागरूक हो सकते हो।
क्योंकि नींद शरीर की है, आत्मा की नहीं।
शरीर सोता है, आत्मा नहीं।

संयमी जब सोता है, तो केवल शरीर विश्राम करता है —
लेकिन भीतर एक साक्षी बना रहता है, जो नींद में भी देख रहा है।
वह देख रहा है कि शरीर गहरी नींद में जा रहा है, और वह स्वयं मौन साक्षी बना है।
इसलिए कहा गया — “संयमी सोता ही नहीं।”
उसका अर्थ यह नहीं कि उसे नींद नहीं आती —
बल्कि यह कि उसके भीतर नींद नहीं आती।
उसका चेतन कभी बंद नहीं होता।

भीतर का घर और रोशनी का रहस्य

“उसका घर रोशनी से कभी खाली नहीं होता।”
क्या सुंदर वाक्य है!
जिसने भीतर का दीपक जला लिया, उसका घर हमेशा उज्जवल है।
अब चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी अंधेरी हों, चाहे बाहर तूफ़ान हो, युद्ध हो, मृत्यु हो —
वह भीतर के प्रकाश से प्रकाशित रहता है।

ओशो कहते हैं, बाहर की रोशनी चंचल है —
एक हवा का झोंका आया और बुझ गई।
पर भीतर का प्रकाश कोई हवा नहीं बुझा सकती, क्योंकि वह बाहरी नहीं, चेतना का है।
वह न तेल से जलता है, न बाती से — वह तो स्वयं-स्फुरित है।
जिसे दीपक बिना जोत कहा गया है।

वह प्रकाश तुम्हारे भीतर तब प्रकट होता है जब तुम साक्षीभाव में जीना शुरू करते हो।
जब तुम हर क्षण देखते हो कि क्या घट रहा है, बिना किसी निर्णय के।
तुम बस गवाह बन जाते हो।
तुम्हारे भीतर जो चलता है, उसे देखने लगते हो —
वहां कोई दमन नहीं, कोई नियंत्रण नहीं, बस समझ है।

अचेतनता की भीड़ और सजग व्यक्ति की एकांतता

सब जहां सोए हैं —
इसलिए संयमी अकेला है।
भीड़ अंधकार में जीती है, और जो जाग गया वह भीड़ से कट गया।
क्योंकि जो अंधकार में है, वह प्रकाश को सह नहीं सकता।
प्रकाश उसे चुभता है।
और इसीलिए जाग्रत व्यक्ति हमेशा अकेला दिखाई देता है।

लेकिन ओशो कहते हैं — यह अकेलापन नहीं, यह एकांत है।
अकेलापन दुख देता है, पर एकांत आनंद देता है।
अकेलापन कमी है, एकांत पूर्णता है।
संयमी का एकांत उसकी समृद्धि है।
उसने भीतर ऐसा दीपक पा लिया है कि अब किसी संग की आवश्यकता नहीं।

जागरण की शुरुआत कहां से करें?

ओशो कहते हैं,
“पहला कदम है — अपने भीतर उतरना।”
जब भी तुम कुछ कर रहे हो, बस थोड़ी सजगता लाओ।
खाना खा रहे हो — देखो, कौन खा रहा है।
बोल रहे हो — देखो, कौन बोल रहा है।
गुस्सा आ रहा है — देखो, गुस्सा किस पर हो रहा है, और कौन देख रहा है।

धीरे-धीरे यह देखने की क्षमता मजबूत होती जाती है।
और एक दिन तुम पाओगे कि तुम्हारे भीतर एक ऐसा साक्षी जाग गया है जो कभी सोता नहीं।
वह देख रहा है —
वह तुम्हारे दुख को भी देखता है, तुम्हारे आनंद को भी देखता है,
पर स्वयं दोनों से परे रहता है।
यही वह जागरण है, जिसकी बात अष्टावक्र करते हैं।

ध्यान की अवस्था और अमावस की प्रतीकात्मकता

अमावस — जीवन का सबसे गहरा अंधकार।
और फिर भी संयमी के भीतर दीपक जलता है।
ध्यान इसी रहस्य की कुंजी है।
ध्यान का अर्थ है,
“अपने भीतर उतर जाना, बिना किसी लक्ष्य के, बिना किसी आकांक्षा के।”

जब तुम भीतर उतरते हो, तो पहले अंधेरा दिखाई देता है।
मन भ्रमित होता है, भय आता है, क्योंकि वहां कोई सहारा नहीं।
पर संयमी उस भय से भागता नहीं, वह उसी अंधकार में टिकता है।
और फिर उसी अंधकार के गर्भ से प्रकाश जन्म लेता है।
जैसे रात से ही सुबह निकलती है।
अमावस से ही पूर्णिमा जन्म लेती है।
संयमी जानता है — अंधकार भी आवश्यक है, क्योंकि उसी में प्रकाश की संभावना छिपी है।

संयमी का जीवन

संयमी व्यक्ति कोई विशेष व्यक्ति नहीं होता —
वह वही साधारण व्यक्ति है, पर अब उसके भीतर सजगता का दीपक जल गया है।
अब वही चलना ध्यान है, वही बोलना ध्यान है, वही मौन ध्यान है।
अब कुछ करना बाकी नहीं, बस जीना ही ध्यान है।
और यही जीवन — जीवित ध्यान बन जाता है।

ओशो कहते हैं —
“संयमी का जीवन कोई अनुशासन नहीं, कोई नियम नहीं, बल्कि एक सहज प्रवाह है।”
वह जो करता है, प्रेम से करता है, होश से करता है।
वह न बीते कल से बंधा है, न आने वाले कल से।
वह इस क्षण में जीता है।
और इस क्षण में ही सत्य है।

निष्कर्ष: भीतर का दीपक जलाओ

अष्टावक्र की यह पंक्ति हमें याद दिलाती है —
बाहर का जगत् अंधकार से भरा है,
पर जो भीतर दीप जला लेता है, उसके लिए कोई अंधकार नहीं।

जागरण का अर्थ है —
“जो कुछ भी घट रहा है, उसे बिना सोए देखना।”
यही ध्यान है, यही मुक्ति है, यही संयम है।

एक दिन ऐसा आता है जब तुम्हें महसूस होता है —
अब भीतर कभी रात नहीं होती।
अब भीतर सूर्य सदा उदित है।
अब तुम्हारा घर — यह शरीर, यह मन, यह अस्तित्व —
सदैव प्रकाशित है।

और तब तुम जान जाते हो —
“अंधेरी अमावस में भी भीतर का दिया जलता रहता है।”

अगर तुम भी उस दीपक को जलाना चाहते हो,
तो किसी और की प्रतीक्षा मत करो।
अपनी आंखें खोलो,
अपने भीतर देखो —
वह दीप पहले से जल रहा है।
बस तुम सोए हुए हो।

जागो।
और तब देखो —
सारी रात दिन में बदल जाएगी।

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