🌿 जो बिक सकता है, उसने आत्मा को नहीं जाना — ओशो प्रवचन
कभी एक बार ठहर कर अपने भीतर यह प्रश्न पूछो —
"मैं कितने में बिक जाऊँगा?"
क्योंकि हर मनुष्य किसी न किसी कीमत पर बिक रहा है। कोई पैसे में बिकता है, कोई पद में, कोई सम्मान में, कोई डर में, कोई मोह में। फर्क बस इतना है कि बाजार बदल जाते हैं — लेकिन बेचने वाला वही रहता है।
तुम सोचते हो कि केवल दुकान में चीजें बिकती हैं।
नहीं, जीवन भी एक बड़ा बाजार है।
यहाँ आदमी अपने ईमान तक को बेच देता है, अपने विचारों को, अपने प्रेम को, यहाँ तक कि अपनी प्रार्थनाओं को भी।
लोग भगवान को भी खरीदने-बेचने का व्यापार कर चुके हैं। मंदिर एक दुकान बन गया है — जहाँ अगरबत्तियों की खुशबू के पीछे सौदेबाज़ी की बू छिपी है।
तुम भी सोचो —
क्या कभी किसी क्षण तुमने खुद को किसी की स्वीकृति के लिए नहीं बेचा?
कभी किसी की मुस्कान पाने के लिए झूठ नहीं कहा?
कभी किसी पद या सुरक्षा के लिए अपने सत्य को दबाया नहीं?
अगर हाँ — तो तुम बिक चुके हो।
फर्क बस इतना है कि कीमत तय नहीं की गई थी।
जो बिक सकता है, वह आत्मा को नहीं जानता।
क्योंकि आत्मा कोई वस्तु नहीं है — उसे खरीदा या बेचा नहीं जा सकता।
वह तुम्हारे भीतर का वह अंश है जो अनंत है, जो अमर है, जो किसी सौदे का हिस्सा नहीं बन सकता।
लेकिन जब तक तुमने उसे जाना नहीं, तुम अपने ही भीतर के व्यापारी बने रहोगे।
🪶 आत्मा का बाजार
कभी-कभी मैं सोचता हूँ — अगर आत्मा भी बाजार में बिकने लगे तो उसकी कीमत कितनी होगी?
शायद अरबों-खरबों में भी नहीं मापी जा सके।
लेकिन ध्यान से देखो — जो भी अनमोल होता है, उसकी कीमत नहीं होती।
क्योंकि “कीमत” शब्द ही अपमान है उस वस्तु का, जो मूल्य से परे है।
तुम किसी बच्चे की मुस्कान की कीमत लगा सकते हो?
किसी प्रेम के स्पर्श की?
किसी ध्यान के मौन की?
नहीं।
क्योंकि ये सब आत्मा की झलक हैं।
जो चीज़ आत्मा से निकली है, वह अनमोल है।
और जो चीज़ मन से निकली है, वह बाज़ार की वस्तु बन जाती है।
🔥 तुम बिकते क्यों हो?
क्योंकि तुमने अभी तक स्वयं को जाना नहीं।
तुम्हें पता नहीं कि तुम्हारे भीतर कौन है।
तुम केवल “भूमिका” जानते हो — नाम, पद, पहचान, रिश्ते।
और जब पहचान झूठी हो, तो डर सच्चा होता है।
तुम डरते हो कि अगर बिके नहीं तो भूख लगेगी, अकेले रह जाओगे, लोग छोड़ देंगे।
इस डर में तुम खुद को सौंप देते हो — किसी भी खरीदार को।
संसार के सबसे बड़े व्यापारी वे हैं जो डर बेचते हैं।
राजनीति डर बेचती है, धर्म डर बेचता है, समाज डर बेचता है।
और जो डर गया, वह बिक गया।
स्मरण रहे —
जहाँ भय है, वहीं व्यापार है।
जहाँ प्रेम है, वहाँ स्वतंत्रता है।
🌸 स्वतंत्र आत्मा की गंध
जो स्वयं को जान लेता है, वह बिकने की नहीं, देने की बात करता है।
वह कहता है — “मैं कुछ नहीं बेचता, मैं केवल बाँटता हूँ।”
क्योंकि आत्मा जब भर जाती है, तो बाँटने की चाह पैदा होती है।
और यह बाँटना भी बिना मूल्य के होता है।
बुद्ध ने कहा, “मैंने कुछ नहीं सिखाया, बस दिया।”
मसीह ने कहा, “मैं मार्ग हूँ।”
ओशो कहते हैं, “मैं तुम्हें कुछ नहीं बेचता, केवल आईना देता हूँ।”
जो जान गया, वह बाजार से बाहर हो गया।
वह उस वृक्ष की तरह है जो फूल देता है बिना सोचे कि कौन खरीदने आएगा।
वह सूरज की तरह है जो रोशनी देता है बिना पूछे कि कौन उसके नीचे बैठेगा।
वह नदी की तरह है जो बहती है बिना यह सोचे कि कौन उसके जल से प्यास बुझाएगा।
स्वतंत्र आत्मा बिकती नहीं — बहती है, खिलती है, जलती है, लेकिन सौदा नहीं करती।
🧘 ध्यान की दृष्टि से
ध्यान तुम्हें उसी जगह ले जाता है जहाँ कुछ भी बेचने को नहीं रहता।
ध्यान में जब तुम बैठते हो, तो धीरे-धीरे झूठ की सारी परतें गिरती हैं।
तुम्हारे नाम की, धर्म की, प्रतिष्ठा की — सब मिट जाती है।
तब जो बचता है, वही आत्मा है।
और उस अवस्था में तुम देखोगे —
कि जो बच गया है, उसकी कोई कीमत नहीं लग सकती।
वह इतना विशाल है कि सारा ब्रह्मांड भी उसकी धूल के बराबर नहीं।
ध्यान का अर्थ है —
बाजार से निकलकर मौन की दुकान में प्रवेश।
जहाँ न कोई ग्राहक है, न कोई विक्रेता — बस अस्तित्व की उपस्थिति है।
🕯️ कहानी — फकीर और राजा
कहते हैं, एक राजा था जो हर चीज़ खरीद सकता था —
सोना, हीरे, महल, सेनाएँ।
एक दिन उसने सुना कि एक फकीर है जो “शांति” बेचता है।
राजा तुरंत पहुँचा — बोला, “मुझे शांति चाहिए। जो चाहे ले लो।”
फकीर मुस्कुराया और बोला,
“राजन, जो खरीदी जा सके, वह शांति नहीं होती।
जो खरीदी जा सके, वह वस्तु है, आत्मा नहीं।
तू पहले बेच जो बेच सकता है — फिर मैं तुझे शांति दे दूँगा।”
राजा बोला, “क्या बेचूँ?”
फकीर ने कहा, “अपना ‘मैं’ बेच दे।”
राजा चौंक गया। बोला, “वह तो मैं हूँ।”
फकीर बोला, “जब तक यह ‘मैं’ है, तब तक शांति नहीं हो सकती।
जब ‘मैं’ नहीं, तभी आत्मा प्रकट होती है — और आत्मा की कोई कीमत नहीं होती।”
राजा मौन हो गया।
उस दिन उसने जाना — जो बिक सकता है, वह झूठा है;
जो नहीं बिक सकता, वही सत्य है।
🌿 जब आत्मा को जान लोगे...
...तो तुम हँसोगे, क्योंकि तुम्हें एहसास होगा कि तुम इतने अमूल्य थे और फिर भी तुमने खुद को सस्ते में बेच दिया था — किसी की प्रशंसा के बदले, किसी की मुस्कान के बदले, किसी की झूठी सुरक्षा के बदले।
जो स्वयं को जान लेता है, उसके भीतर एक गरिमा आती है — अहंकार नहीं, गरिमा।
वह झुक सकता है, पर बिक नहीं सकता।
वह हार सकता है, पर सौदा नहीं कर सकता।
क्योंकि उसके भीतर की आग अब किसी की मोहर से नहीं बुझती।
वह आग आत्मा की है — जो हर सौदे को जला देती है।
🌼 मौन का संदेश
सच्चा साधक वही है जो भीतर से कह सके —
“अब मैं किसी कीमत पर नहीं बिकूँगा।
मुझे सारा संसार भी दे दो, मैं नहीं लूँगा।
क्योंकि मैं स्वयं ही ब्रह्मांड हूँ।”
और जब यह वचन भीतर से उठता है,
तो तुम्हारे चारों ओर एक नई सुगंध फैल जाती है —
स्वतंत्रता की, आत्म-ज्ञान की, मौन की।
यही आत्मा का बोध है।
यही वह क्षण है जब तुम बाजार से बाहर निकल आते हो —
और तुम्हारे भीतर पहली बार सन्नाटा गूंजता है।
वह सन्नाटा, जो कहता है —
“अब मैं बिकने योग्य नहीं, अब मैं होने योग्य हूँ।”
🔔 ध्यान सूत्र
रोज कुछ पल अपने भीतर उतरना।
और धीरे से पूछना —
“क्या आज मैं किसी के लिए बिक गया?”
“क्या मैंने अपने सत्य से कोई समझौता किया?”
अगर हाँ — तो प्रेम से देखना, बिना दोष के।
क्योंकि देखना ही परिवर्तन है।
जैसे-जैसे तुम अपने भीतर यह पहचान बढ़ाओगे,
एक दिन आएगा जब तुम मुस्कुराओगे और कहोगे —
“अब मैं बिकाऊ नहीं हूँ।”
उस दिन आत्मा का जन्म होता है।
“जो बिक सकता है, उसने आत्मा को नहीं जाना।”
क्योंकि आत्मा न खरीदी जा सकती है, न बेची जा सकती है —
वह केवल जानी जा सकती है।
और जिसने स्वयं को जान लिया,
वह इतना भरपूर हो गया कि अब कोई मूल्य नहीं रहा —
वह स्वयं ही मूल्य बन गया।
🌺 मौन में डूबो, और देखो — तुम्हारे भीतर कोई बाज़ार नहीं है, केवल एक असीम शांति है।
वही आत्मा है, और वही अमूल्यता का साक्षात्कार है। 🌺
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