🌺 ओशो का दृष्टिकोण: अभय बनाम निर्भयता

🔹 प्रस्तावना

मानव जीवन में "भय" सबसे गहरी जड़ वाली भावनाओं में से एक है। चाहे वह मृत्यु का भय हो, असफलता का भय हो, अपमान का भय हो या खो देने का भय — हर मनुष्य किसी न किसी रूप में भय से संचालित होता है।
ओशो के अनुसार, जब तक भय भीतर सक्रिय है, तब तक मनुष्य वास्तव में अहिंसक नहीं हो सकता। यही कारण है कि उन्होंने कहा —

"अभय का अर्थ निर्भय हो जाना नहीं है, बल्कि भय का विसर्जन है।"

यह वाक्य छोटा जरूर है, लेकिन इसमें आध्यात्मिक परिवर्तन की पूरी यात्रा छिपी है।

🌿 1. भय क्या है? — ओशो की दृष्टि में

ओशो भय को कोई बाहरी परिस्थिति नहीं मानते। उनके अनुसार भय भीतर की मनोवैज्ञानिक संरचना है।
जब मनुष्य अपने "स्व" को शरीर या मन तक सीमित समझता है, तब भय उत्पन्न होता है।
क्योंकि शरीर नश्वर है, मन अस्थिर है — तो जो स्वयं को इन्हीं तक सीमित मानता है, वह हर क्षण भय में जीता है।

“भय तब तक रहेगा जब तक तुम अपने आप को सीमित मानते हो।”

इसलिए भय को मिटाने का अर्थ बाहरी परिस्थितियों को बदलना नहीं है, बल्कि अपनी पहचान को बदलना है।

🔹 2. निर्भयता: भय का उल्टा रूप

अब सवाल आता है — जब कोई कहता है “मैं निर्भय हूँ”, तो इसका क्या अर्थ है?

ओशो कहते हैं, निर्भयता वास्तव में भय का दूसरा छोर है।
निर्भय व्यक्ति ने भय को केवल दबा दिया होता है, मिटाया नहीं।
वह भीतर से भयभीत ही रहता है, लेकिन खुद को “साहसी” दिखाने के लिए भय के विपरीत प्रतिक्रिया करता है।

उदाहरण के लिए —
कोई व्यक्ति जो युद्ध में बिना डर के कूद जाता है, वह वास्तव में निर्भय दिख सकता है, लेकिन भीतर उसका भय ही है जो उसे हिंसक बना देता है।
वह अपनी असुरक्षा को हिंसा के माध्यम से ढक रहा है।

इसलिए ओशो कहते हैं,

“निर्भय व्यक्ति अहिंसक नहीं हो सकता। भीतर भय काम करता ही रहेगा।”

निर्भयता में अभी भी "प्रतिक्रिया" है, "द्वंद्व" है — यानी भय अभी भी मौजूद है, बस दिशा बदल गई है।

🌼 3. अभय: भय का विसर्जन

अब ओशो "अभय" शब्द की ओर ध्यान खींचते हैं।
संस्कृत में “अभय” का अर्थ होता है — भय का पूर्ण विसर्जन
यह केवल भय की अनुपस्थिति नहीं, बल्कि भय की ऊर्जा का रूपांतरण है।

अभय व्यक्ति वह है जिसने भय को देखा, समझा और उसके पार चला गया।
अब उसके भीतर भय का बीज भी नहीं बचा।

“अभय वह स्थिति है जब भय था, लेकिन अब नहीं है — क्योंकि तुमने उसे पूरी जागरूकता से जिया है।”

यह वही अवस्था है जो बुद्ध, महावीर या कृष्ण के भीतर होती है।
अभय व्यक्ति को मृत्यु का भय नहीं होता, इसलिए वह किसी को नुकसान पहुंचाने की जरूरत भी महसूस नहीं करता।
उसके भीतर सुरक्षा की मांग नहीं है, इसलिए हिंसा की आवश्यकता भी नहीं।

🌺 4. भय और हिंसा का संबंध

ओशो कहते हैं,

“भय सदा सुरक्षा चाहेगा। सुरक्षा के लिए हिंसा का आयोजन करना पड़ेगा।”

यह कथन आधुनिक समाज पर गहरी टिप्पणी है।
राष्ट्र एक-दूसरे के खिलाफ हथियार जमा करते हैं — क्योंकि वे भयभीत हैं।
व्यक्ति अपने चारों ओर दीवारें, दरवाजे, सुरक्षा सिस्टम लगाता है — क्योंकि भीतर भय है।
धर्म भी कई बार भय पर आधारित हो जाता है — नरक का डर, पाप का डर, भगवान का डर।

ओशो कहते हैं, जहाँ भय है, वहाँ हिंसा अनिवार्य है।
क्योंकि भय हमेशा सुरक्षा की तलाश करता है, और सुरक्षा हिंसा के माध्यम से प्राप्त करने की कोशिश की जाती है।

लेकिन जो व्यक्ति अभय है — उसे न खुद को बचाने की जरूरत है, न किसी से कुछ छीनने की।
वह स्वतः ही अहिंसक हो जाता है।

🌿 5. अहिंसा की जड़ — अभय में

महावीर ने भी कहा था — “अहिंसा परमो धर्मः।”
लेकिन ओशो कहते हैं कि केवल वही व्यक्ति अहिंसक हो सकता है जो अभय है।
क्योंकि भय से भरा हुआ व्यक्ति, चाहे कितनी भी कोशिश करे, भीतर से हिंसक ही रहेगा।

उदाहरण के लिए —
अगर कोई व्यक्ति किसी जानवर को नहीं मारता, लेकिन भीतर डरता है कि “अगर मैंने पाप किया तो नरक मिलेगा”, तो वह वास्तव में अहिंसक नहीं है।
वह केवल भय से नियंत्रित है, प्रेम से नहीं।
वह “निर्भय” नहीं, बल्कि “भयग्रस्त संयमी” है।

ओशो के अनुसार, सच्ची अहिंसा तभी प्रकट होती है जब भीतर भय का विसर्जन हो चुका हो — यानी जब व्यक्ति अभय हो जाए।

🔹 6. अभय की यात्रा — जागरूकता से

ओशो का पूरा ध्यान “जागरूकता” पर है।
वे कहते हैं, भय को दबाने या नकारने से कुछ नहीं होता।
भय को पूरी सजगता से देखो, महसूस करो, उसे स्वीकार करो — तब उसका स्वभाव बदल जाता है।

जब तुम भय को प्रत्यक्ष देखते हो, तो तुम जान जाते हो कि “भय मैं नहीं हूँ।”
भय केवल एक ऊर्जा है जो मन में गुजर रही है।
तुम साक्षी बन जाते हो — और उसी क्षण भय पिघलने लगता है।

“जैसे-जैसे साक्षी बढ़ती है, भय घटता है।
और जब साक्षी पूर्ण हो जाती है — भय विसर्जित हो जाता है।”

यही अवस्था अभय की है।

🌸 7. भय से प्रेम तक — ओशो का मार्ग

ओशो के अनुसार, भय और प्रेम साथ नहीं रह सकते।
भय का अर्थ है — “मैं अलग हूँ, मुझे बचना है।”
प्रेम का अर्थ है — “मैं सबमें हूँ, मुझे कुछ खोना नहीं है।”

जब व्यक्ति अभय होता है, तो उसके भीतर प्रेम स्वतः प्रवाहित होने लगता है।
फिर उसका जीवन हिंसा, प्रतिस्पर्धा, या स्वार्थ से मुक्त हो जाता है।
वह “समर्पण” की स्थिति में जीता है।

ओशो कहते हैं,

“जहाँ भय समाप्त होता है, वहीं प्रेम प्रारंभ होता है।”

🌼 8. आधुनिक सन्दर्भ में “अभय”

आज के युग में भय हर रूप में व्याप्‍त है —
सोशल मीडिया का भय (क्या लोग क्या सोचेंगे?),
भविष्य का भय,
आर्थिक असुरक्षा का भय,
रिश्तों में खो देने का भय।

ओशो का “अभय” दर्शन इन सबका समाधान है।
वह हमें सिखाता है कि वास्तविक सुरक्षा बाहर नहीं, भीतर है।
भय का समाधान किसी व्यवस्था में नहीं, बल्कि जागरूकता में है।

जब हम अपने भीतर की असुरक्षा को देखना शुरू करते हैं,
तो धीरे-धीरे भय का आवरण गिरने लगता है।
तब व्यक्ति समाज से नहीं भागता, बल्कि समाज में रहते हुए अभय बन जाता है।

🔹 9. ओशो का निष्कर्ष

ओशो के अनुसार,

“जो व्यक्ति अभय हुआ, वही अहिंसक हुआ।
जो अहिंसक हुआ, वही प्रेममय हुआ।
और जो प्रेममय हुआ, वही समाधि को प्राप्त हुआ।”

इसलिए उन्होंने कहा —
“अभय का मतलब निर्भय नहीं होना है। निर्भय व्यक्ति अभी भी भयभीत है। अभय व्यक्ति भय के पार चला गया है।”

यह कथन केवल दार्शनिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक प्रयोग का सूत्र है।

🌺 निष्कर्ष

ओशो के शब्दों में “अभय” जीवन की सर्वोच्च अवस्था है —
जहाँ मनुष्य न तो भय में है, न निर्भयता के अहंकार में,
बल्कि एक गहरी शांति में है जहाँ भय का अस्तित्व ही नहीं।

ऐसा व्यक्ति ही सच्चे अर्थों में अहिंसक, प्रेमपूर्ण और ध्यानमय होता है।
ओशो का यह संदेश केवल विचार नहीं, बल्कि जीवन जीने की दिशा है।
जब भय का विसर्जन होता है — तब जीवन एक उत्सव बन जाता है।

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