मनुष्य को आदर चाहिए, इज्जत चाहिए, सम्मान चाहिए।
लेकिन प्रेम?
प्रेम तो जैसे उसके जीवन से ग़ायब ही हो गया है।
उसे आदर की भूख है — लेकिन उसे यह समझ ही नहीं है कि आदर एक सूखी रोटी है, और प्रेम एक मीठा फल।
एक में स्वाद नहीं, दूसरी में सुगंध है, जीवन है, नृत्य है।
ओशो कहते हैं —
"प्रेम आदर से कहीं ऊँची चीज़ है।
क्योंकि प्रेम में आदर समाहित होता है,
लेकिन आदर में प्रेम जरूरी नहीं होता।"
1. आदर — एक सामाजिक अनुशासन
आदर एक संस्कार है —
हमें सिखाया जाता है कि माता-पिता का आदर करो, गुरु का आदर करो, बड़े का आदर करो, नेता का, धर्म का, झंडे का, किताब का...
लेकिन क्या कभी किसी ने यह सिखाया कि प्रेम करो?
आदर तुम्हें दूसरों के सामने झुकाता है, लेकिन भीतर से तुम क्या महसूस कर रहे हो, वह महत्वपूर्ण नहीं।
तुम झुकते हो, लेकिन शायद गुस्से में, शायद डर के मारे, शायद मजबूरी में।
आदर एक सामाजिक अभिनय है —
प्रेम एक अस्तित्व का प्राकट्य है।
आदर सिखाया जाता है —
प्रेम स्वाभाविक होता है।
2. प्रेम — अस्तित्व का झरना
प्रेम वह है जो अपने आप फूट पड़ता है — जैसे वसंत में फूल, जैसे चिड़ियों का चहचहाना, जैसे नदी का बहना।
प्रेम में कोई नियम नहीं, कोई अनुशासन नहीं —
वह तो बहने देता है, बहकने देता है, पिघलने देता है।
और सबसे खूबसूरत बात यह है कि
प्रेम में जब तुम किसी से प्रेम करते हो, तो उसमें आदर अपने आप समा जाता है।
तुम उसे नीचा नहीं देख सकते, तुम उसे नुकसान नहीं पहुँचा सकते।
तुम उसके प्रति सहज श्रद्धा में भर जाते हो।
लेकिन जब तुम केवल आदर करते हो —
तो प्रेम जरूरी नहीं कि हो ही।
3. आदर में छिपा हो सकता है डर — प्रेम में होता है भरोसा
आदर कई बार डर का दूसरा नाम होता है।
तुम बॉस का आदर करते हो — क्योंकि तुम्हारी नौकरी उसके हाथ में है।
तुम पिता का आदर करते हो — क्योंकि तुम उसके घर में रहते हो।
तुम धर्मगुरु का आदर करते हो — क्योंकि समाज ने सिखाया कि यही सही है।
लेकिन प्रेम में कोई डर नहीं होता।
प्रेम में तो एक खुलापन होता है —
जहां दूसरा ‘ऊँचा’ या ‘नीचा’ नहीं होता, वह सिर्फ होता है — और तुम भी बस हो।
ओशो कहते हैं —
"जहाँ भय होता है, वहाँ प्रेम नहीं हो सकता।
और जहाँ प्रेम होता है, वहाँ भय की कोई गुंजाइश नहीं होती।"
4. प्रेम करने के लिए साहस चाहिए — आदर करने के लिए संस्कार ही काफी है
आदर करना आसान है।
तुमने जीवनभर यह अभिनय सीखा है।
लेकिन प्रेम?
प्रेम करने के लिए दिल चाहिए,
खुलापन चाहिए,
आत्मा चाहिए।
प्रेम में कोई स्क्रिप्ट नहीं है,
कोई रीति नहीं है —
वह तो एक आवेग है, एक भाव है, एक विस्फोट है।
तुम प्रेम में हो, तो तुम आदर के पार चले जाते हो।
तब सामने वाला केवल ‘सम्माननीय’ नहीं रह जाता —
वह ‘प्यारा’ हो जाता है।
5. तुम आदर कर सकते हो, और घृणा भी कर सकते हो — यह द्वैत प्रेम में नहीं
ओशो की इस पंक्ति को देखिए —
"जिसे हम आदर करते हैं, उसे हम घृणा भी कर सकते हैं।"
कितना सटीक वाक्य है!
बहुत बार आदर सिर्फ मुखौटा होता है।
तुम आदर तो करते हो, लेकिन भीतर जलन होती है, ईर्ष्या होती है।
– कोई बहुत सफल है, समाज कहता है आदर करो।
लेकिन भीतर जलन है — क्योंकि तुम उसकी जगह होना चाहते थे।
– कोई बहुत ज्ञानी है, तुम्हें उसे प्रणाम करना है।
लेकिन मन में द्वेष है — क्योंकि वह तुम्हारी मूर्खता को उजागर करता है।
यह द्वैत प्रेम में नहीं चलता।
प्रेम में तुम पूरी तरह समर्पित हो जाते हो —
न द्वेष, न ईर्ष्या, न तुलना।
प्रेम में तुम यह भी भूल जाते हो कि दूसरा कौन है —
वह तुम्हारा हो जाता है, तुम उसके हो जाते हो।
6. प्रेम में झुकना पूजा है — आदर में झुकना मजबूरी हो सकता है
जब प्रेम होता है, और तुम झुकते हो —
तो वह झुकना तुम्हारी आत्मा का नृत्य होता है।
– एक माँ अपने बच्चे को प्रेम से देखती है —
उसमें सम्मान भी है, आनंद भी है, समर्पण भी।
– एक मित्र अपने मित्र से प्रेम करता है —
उसमें बराबरी है, गहराई है, अपनापन है।
आदर में तुम झुकते हो — लेकिन भीतर खिंचाव हो सकता है।
प्रेम में तुम झुकते नहीं — पिघलते हो।
7. प्रेम बिना उपदेश के जीया जाता है — आदर सिखाया जाता है
शुरुआत से ही हमें कहा जाता है:
"बड़ों का आदर करो।"
"गुरु का आदर करो।"
"धर्मग्रंथों का आदर करो।"
लेकिन किसी ने कभी नहीं कहा:
"दिल से प्रेम करो।"
"जो है, जैसा है — उसे स्वीकारो।"
क्यों?
क्योंकि प्रेम खतरनाक है।
प्रेम तुम्हें स्वतंत्र बना देता है।
प्रेम तुम्हें सोचने पर मजबूर करता है।
प्रेम तुम्हें किसी ढांचे में नहीं रख सकता।
प्रेम विद्रोही है — आदर व्यवस्था के अनुकूल।
इसलिए समाज आदर सिखाता है — प्रेम नहीं।
8. प्रेम में जब तुम किसी को देखते हो, तो वो ‘दूसरा’ नहीं रहता
ओशो कहते हैं:
"प्रेम वही जानता है जो अद्वैत है।
जहाँ प्रेम है, वहाँ तुम और दूसरा अलग नहीं रह जाते।"
आदर में दूरी होती है —
‘मैं’ और ‘तुम’ अलग बने रहते हो।
लेकिन प्रेम में तुम एक ही ऊर्जा में बहने लगते हो।
तुम्हारा हृदय उस व्यक्ति में बसने लगता है।
तब वह कोई ‘बाहरी’ नहीं होता —
वह तुम्हारे ही अंश जैसा हो जाता है।
9. समाज को प्रेमियों से डर क्यों लगता है?
क्योंकि प्रेम नियंत्रण को तोड़ता है।
आदर करने वाला व्यक्ति नियंत्रण में रहता है —
उसे आदेश दिए जा सकते हैं, वह अनुशासित रहेगा।
लेकिन जो प्रेम करता है,
वह किसी से डरता नहीं, किसी से दबता नहीं —
वह स्वयं की रोशनी में चलता है।
प्रेम क्रांति है।
प्रेम आग है।
प्रेम एक भीतर का विस्फोट है — जो तुम्हें ज़िंदा कर देता है।
10. प्रेम ही अंतिम मूल्य है — बाकी सब मूल्य उस तक पहुँचने के साधन हैं
ओशो कहते हैं —
"धर्म, ध्यान, योग — सब प्रेम तक पहुँचने के प्रयास हैं।
और प्रेम?
वह खुद मंज़िल है।"
आदर एक सीढ़ी हो सकता है,
प्रेम एक आकाश है।
तुम आदर करो और वहीं रुक जाओ —
तो तुम मर गए।
तुम आदर को प्रेम में रूपांतरित कर सको —
तो तुम जिंदा हो गए।
समापन:
तो ध्यान रखो —
प्रेम वह है जिसमें आदर स्वयं फूट पड़ता है,
लेकिन आदर वह नहीं, जिसमें प्रेम की गारंटी हो।
इसलिए जीवन में प्रेम को चुनो —
न कि केवल आदर को।
प्रेम को चुनो — क्योंकि वह तुम्हारे हृदय की मांग है।
आदर को भूल भी जाओ, तो कोई बात नहीं —
लेकिन प्रेम को मत भूलना।
प्रेम है तो सब है।
प्रेम नहीं है — तो आदर भी बोझ है।
ओशो कहते हैं:
"प्रेम में रहो — फिर चाहे वह प्रेम ईश्वर से हो, किसी स्त्री से हो, फूल से हो या मौन से।
प्रेम ही अंतिम सत्य है।"
ॐ प्रेम में विश्रांति हो।
ॐ आदर से आगे, प्रेम तक पहुँचो।
ॐ जीवन प्रेम बन जाए।
💞 प्रेम बनाम आदर – अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)
❓ क्या प्रेम वास्तव में आदर से अधिक मूल्यवान है?
उत्तर:
हां, प्रेम एक गहरी मानवीय भावना है जो आदर को स्वाभाविक रूप से समाहित करता है। लेकिन आदर में प्रेम की अनिवार्यता नहीं होती। इसलिए प्रेम कहीं अधिक व्यापक और सशक्त भावना है।
❓ आदर में प्रेम क्यों नहीं होता हमेशा?
उत्तर:
आदर कभी-कभी सामाजिक स्थिति, उम्र या अधिकार के कारण होता है, जबकि प्रेम आत्मा से जुड़ा होता है। इसलिए हर आदर में सच्चा प्रेम होना आवश्यक नहीं।
❓ क्या बिना प्रेम के आदर दिखाना पाखंड हो सकता है?
उत्तर:
कई बार ऐसा होता है। जब आदर केवल औपचारिकता बन जाए और उसमें भावना न हो, तो वह केवल सामाजिक मुखौटा बनकर रह जाता है।
❓ प्रेम में आदर कैसे समाहित होता है?
उत्तर:
जब हम किसी को प्रेम करते हैं, तो हम स्वाभाविक रूप से उनकी भावनाओं, सोच और अस्तित्व का सम्मान करते हैं। यह सम्मान ज़बरदस्ती नहीं होता, बल्कि प्रेम से उपजा होता है।
❓ क्या केवल आदर करना घृणा को जन्म दे सकता है?
उत्तर:
अगर आदर केवल सामाजिक बाध्यता बन जाए और उसमें प्रेम न हो, तो वह दूरी और अंततः घृणा में बदल सकता है। यह तब होता है जब हम दिखावे के लिए आदर करते हैं।
❓ इस विचार से हमें क्या सीख मिलती है?
उत्तर:
हमें प्रेम को प्राथमिकता देनी चाहिए, क्योंकि प्रेम आत्मिक और गहन होता है। आदर यदि प्रेम से उत्पन्न हो, तो वह सच्चा होता है; वरना वह केवल सामाजिक रीति बनकर रह जाता है।
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