यह प्रवचन उन आत्माओं के लिए है जो आज के इस आधुनिक युग में भावनाओं के प्रति उदासीनता और भय की चादर ओढ़े हुए हैं, जिन्होंने अपने अंदर के समृद्ध और बहते हुए भावों को दबा रखा है। जैसा कि ओशो ने कहा था – "जिस आदमी की आंखों ने आंसू बहाना छोड़ दिया, वह या तो पत्थर हो गया या परमात्मा हो गया..!" – यह कथन गहरे रहस्यों और अनदेखी सच्चाइयों का संकेत है। परंतु क्या वास्तव में यह कहा जा सकता है कि आंसू केवल दुःख के प्रतीक हैं? क्या यह नहीं कि आंसू करुणा, प्रेम, समर्पण और आनंद की भी अभिव्यक्ति हैं? आइए, आज हम ओशो की विशिष्ट शैली में इन प्रश्नों का अन्वेषण करें, हंसी-मज़ाक, कटाक्ष, कहानियों और रूपकों के माध्यम से, और साथ ही आधुनिक मनोविज्ञान तथा न्यूरोसाइंस के दृष्टिकोण को भी समाहित करें।
भावनाएँ – मानव अस्तित्व का अमूल्य रत्न
मानव जीवन का मूलमंत्र ही भावनाएँ हैं। यह भावनाएँ हमारे अस्तित्व के उस जादुई रंग हैं, जो हमारे जीवन को नीरसता, सूखेपन और कठोरता से भरने वाले पत्थरों से अलग पहचान देती हैं। यदि हम अपने दिल के दरवाजे बंद कर लें, तो हम न केवल जीवन के हर उस पहलू से वंचित हो जाते हैं जो हमें जीने का वास्तविक आनंद देती है, बल्कि हम खुद ही अपने अंदर के दिव्य प्रकाश को बुझा देते हैं।
सोचिए, एक नदी की तरह हमारे अंदर भी भावनाओं का प्रवाह है – कभी वह प्रेम की मृदुल लहरें होती हैं, कभी क्रोध के उग्र झटके, कभी हर्षोल्लास के उफान। इन सभी भावनाओं को अपनाने और अनुभव करने से हम स्वयं को जान पाते हैं। अगर हम इन भावनाओं को रोकने लगते हैं, तो यह बिलकुल वैसा ही हो जाता है जैसे नदी में एक अवरोध आ जाए – पानी कहीं जमा हो जाता है, और अंततः वह ठहर कर एक स्थिर, जड़ित रूप ले लेता है। ऐसे में हम कहते हैं – "जिस आदमी की आंखों ने आंसू बहाना छोड़ दिया", वह या तो पत्थर हो गया, या फिर उसने उस दिव्यता को पा लिया है जो निस्संकोच भावनाओं की अभिव्यक्ति से उत्पन्न होती है।
पत्थर या परमात्मा – दो मुंह वाले सिक्के
आइए, एक कहानी से शुरुआत करें। एक बार एक व्यक्ति था – एक साधारण मनुष्य, जिसने अपने बचपन से ही सीखा था कि आंसू बहाना कमजोरी का प्रतीक है। समाज की कठोर नज़र में, उसे हमेशा यह सिखाया गया कि पुरुषों को अपने भावों को दबाकर रखना चाहिए। दिन-प्रतिदिन वह अपने अंदर के दर्द को कसकर थामता गया। बाहर से तो वह मुस्कुराता हुआ दिखाई देता, लेकिन अंदर ही अंदर उसका हृदय चिरकालिक पीड़ा से झूमता रहता था। उसकी आंखों में वो चमक थी, लेकिन साथ ही उसमें एक सूखी कठोरता भी थी – जैसे किसी ने उसके दिल को पत्थर में बदल दिया हो।
वहीं दूसरी ओर, एक अन्य व्यक्ति था जिसने कभी भी अपने भावों को दबाया नहीं। उसने हर अनुभव, हर दर्द, हर खुशी को खुलकर जीया। उसकी आंखों से बहते आंसू न केवल उसके दुःख की निशानी थे, बल्कि प्रेम, करुणा, समर्पण और आनंद की भी अभिव्यक्ति थे। समाज उसे कभी-कभी 'असामान्य' कहता था, परंतु जो वास्तव में जानता था, उसने उसके अंदर छिपे उस दिव्य प्रकाश को पहचाना। ऐसे व्यक्ति के लिए आंसू न केवल आँसू होते हैं, बल्कि वे आत्मा की गहराई से निकली हुई सच्चाई की अभिव्यक्ति होते हैं।
ओशो कहते हैं कि जब हम अपने भीतर के भावों को पहचानते हैं, बिना किसी दमन या किसी सामाजिक बंधन के, तभी हम सच्ची स्वतंत्रता की ओर बढ़ते हैं। अगर आप अपने अंदर के उस जीवन्त अनुभव को निहार सकें, तो आप पाते हैं कि आप वास्तव में जीवित हैं – और यही असली स्वतंत्रता है।
आधुनिक मनोविज्ञान और न्यूरोसाइंस का दृष्टिकोण
आज के वैज्ञानिक शोध से भी यह स्पष्ट होता जा रहा है कि भावनाओं को स्वीकारना न केवल मानसिक स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है, बल्कि यह हमारे न्यूरोलॉजिकल विकास का भी एक अहम हिस्सा है। न्यूरोसाइंस बताती है कि जब हम अपनी भावनाओं को दबाते हैं, तो हमारे मस्तिष्क के उन क्षेत्रों में तनाव और चिंता के हार्मोन का उच्च स्तर उत्पन्न होता है। इसके विपरीत, जब हम अपने भावों को बिना किसी झिझक के व्यक्त करते हैं, तो हमारे मस्तिष्क में एंडोर्फिन्स जैसे रासायनिक तत्वों का स्राव होता है, जो हमें शांति, आनंद और मानसिक स्पष्टता प्रदान करते हैं।
मनोविज्ञान में यह सिद्ध हो चुका है कि भावनात्मक दमन से डिप्रेशन, एंग्जायटी और अन्य मानसिक रोगों की संभावना बढ़ जाती है। जैसे-जैसे हम अपने अंदर की भावनाओं से दूर रहते हैं, हमारी आत्मा भी सूख जाती है। वहीं, जो व्यक्ति अपने अंदर के भावों को समझता है, उन्हें अपनाता है, वही वास्तव में आत्म-साक्षात्कार की ओर अग्रसर होता है।
कल्पना कीजिए – एक वृक्ष के समान, जिसकी जड़ें गहरी मिट्टी में फैली हुई हैं। अगर हम अपनी भावनाओं को निचोड़ कर दबा देते हैं, तो यह वृक्ष सूखने लगता है, उसका जीवन मंद पड़ जाता है। लेकिन वही वृक्ष, जो अपनी जड़ों को खुलकर फैलाने देता है, वह न केवल फल-फूल देता है, बल्कि अपने आस-पास की धरती को भी हरियाली से भर देता है। यही है जीवन की सच्ची प्रकृति – खुलापन, बहना और उभरना।
भावनाओं की बहार – हंसी, कटाक्ष और कहानियों के संग
समाज अक्सर यह सोचता है कि भावनाओं का होना, खासकर आंसुओं का बहना, असंयम या कमजोरी की निशानी है। लेकिन अगर हम थोड़ा हंसकर इस पर विचार करें, तो पाएंगे कि यह सोच स्वयं में एक विडंबना है।
एक दिन एक ज्ञानी व्यक्ति ने कहा, "बेटा, अगर तुम रोते नहीं हो, तो समझो तुम भगवान बन गए हो!" यह कथन सुनते ही लोग ठहाके लगा देते, परंतु उसमें छिपी हुई गहराई को समझना उतना ही आवश्यक है जितना कि अपने अंदर के आंसुओं को बहने देना। क्योंकि जब हम अपने आंसुओं को बहने देते हैं, तो हम अपने अंदर की नमी को बहने देते हैं, जो जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक है।
सोचिए, एक पत्थर पर जब पानी की बूंदें गिरती हैं, तो वह पत्थर कठोरता का प्रतीक बन जाता है। लेकिन वही पानी, अगर नदी बनकर बह जाए, तो वह जीवन का स्रोत बन जाता है। इसी प्रकार, हमारे आंसू भी दो रूप ले सकते हैं – एक, जब हम उन्हें दबा लेते हैं और वे हमारे अंदर एक कठोर, निर्जीव पत्थर का रूप धारण कर लेते हैं; या फिर दूसरा, जब हम उन्हें स्वाभाविक रूप से बहने देते हैं और वे हमारे अंदर के दिव्यता का उजागर स्वरूप बन जाते हैं।
ओशो की शैली में कटाक्ष का तड़का देते हुए कहें तो – "क्या तुम्हें पत्थर की तुलना में कुछ भी जीवंत और रंगीन नहीं लगता?" यदि हम अपने आंसुओं को बहने नहीं देते, तो हम अपने आप को उस गहन प्रेम और करुणा से वंचित कर देते हैं जो इस जीवन को जीवंत बनाती है।
आत्म-अन्वेषण का पथ – बिना दमन के अनुभव की ओर
आधुनिक समाज में बहुत से लोग इस भ्रम में जी रहे हैं कि भावनाओं का दमन ही शक्ति है। वे सोचते हैं कि अगर वे अपने आंसुओं को, अपने दर्द को, अपने प्रेम को व्यक्त नहीं करेंगे, तो वे मजबूत रहेंगे। लेकिन यह सोच एक बड़ी भ्रांति है। वास्तव में, जो व्यक्ति अपने सभी भावों को बिना किसी दमन के देख लेता है, वह स्वयं को जानने और समझने का सच्चा मार्ग प्रशस्त कर लेता है।
एक समय की बात है, एक साधु ने अपने शिष्यों से कहा, "तुम्हारे अंदर जो आग जल रही है, उसे बुझाने की कोशिश मत करो। उसे फैलने दो, उसे नाचने दो, क्योंकि उसी आग में तुम्हारा वास्तविक अस्तित्व छिपा है।" यह बात आज के मनोविज्ञान में भी गूंजती है – जब हम अपनी भीतरी आग, अपने भावों को मुक्त करने देते हैं, तभी हम मानसिक और आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ रह पाते हैं।
इसलिए, आओ हम अपने भीतर की भावनात्मक ऊर्जा को बिना किसी भय या संकोच के अपनाएं। चाहे वह हंसी हो, आँसू हों, क्रोध हो या प्रेम – सभी भावनाएँ हमारे अस्तित्व के अमूल्य रंग हैं। जब हम इन भावनाओं को महसूस करते हैं, तो हम स्वयं को उस अनंत ऊर्जा के संपर्क में लाते हैं, जो हमें जीवन के सच्चे अर्थ से रूबरू कराती है।
न्यूरोसाइंस की रोशनी में – भावनाओं का विज्ञान
आधुनिक न्यूरोसाइंस ने स्पष्ट कर दिया है कि हमारे मस्तिष्क में भावनाओं का स्थान एक अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जब हम अपने अंदर के भावों को दबाते हैं, तो हमारे मस्तिष्क के उन हिस्सों में, जो हमारे भावनात्मक अनुभवों से जुड़े होते हैं, असंतुलन आ जाता है। इस असंतुलन से हमारा मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित होता है। शोध बताते हैं कि भावनाओं के दमन से स्ट्रेस हार्मोन कॉर्टिसोल का स्तर बढ़ जाता है, जो न केवल मानसिक बल्कि शारीरिक स्वास्थ्य पर भी विपरीत प्रभाव डालता है।
दूसरी ओर, जब हम अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हैं – चाहे वह हंसी के रूप में हो, आँसुओं के रूप में या फिर गहरी संवेदनाओं के रूप में – तब हमारे मस्तिष्क में एंडोर्फिन्स, डोपामाइन और सेरोटोनिन जैसे रसायनिक तत्व स्रावित होते हैं, जो हमें खुशी, शांति और संतुलन का अनुभव कराते हैं। यह विज्ञान भी हमें यही संदेश देता है कि भावनाओं को अपनाना न केवल हमारे मानसिक, बल्कि हमारे शारीरिक स्वास्थ्य के लिए भी अनिवार्य है।
एक उदाहरण से समझते हैं: एक व्यक्ति जो दिन भर अपने तनाव और पीड़ा को दबाता है, वह अंततः अपने शरीर में दर्द और थकान महसूस करने लगता है। वहीं, वही व्यक्ति अगर अपने दर्द को किसी प्रियजन के साथ साझा कर ले, या अपने दिल की बात कहने दे, तो वह हल्का-फुल्का महसूस करता है। यही कारण है कि आधुनिक मनोचिकित्सक और न्यूरोसाइंटिस्ट हमेशा सलाह देते हैं – अपनी भावनाओं को व्यक्त करो, उन्हें अपनाओ, क्योंकि यही तुम्हें मानसिक रूप से स्वस्थ बनाए रखने का सबसे प्रभावी उपाय है।
सामाजिक प्रतिबंध और आत्मिक मुक्ति
समाज में अक्सर यह धारणा प्रचलित है कि भावनाओं को व्यक्त करना असंयम या कमजोरी का प्रतीक है। पुरुषों से तो यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपने अंदर के आंसुओं को छिपाकर रखें, क्योंकि उन्हें 'सुदृढ़' और 'मजबूत' दिखना चाहिए। परंतु यह सोच स्वयं में एक गहरी विडंबना है। जब हम अपने भावों को दबाते हैं, तो हम केवल अपने अंदर की उस ऊर्जा को मारते हैं जो हमें वास्तव में जीवंत बनाती है।
सोचिए, अगर एक संगीतकार ने कभी भी अपनी भावनाओं को व्यक्त किया ही नहीं, तो वह कितना बेरंग हो जाएगा! वह अपने दिल की धड़कनों को, अपनी आत्मा की आवाज़ को दबा कर रखेगा और अंततः वह एक सूखे हुए पत्थर जैसा हो जाएगा। वहीं, एक सच्चा कलाकार वही है जो अपने अंदर की भावनाओं को खुलकर अभिव्यक्त करता है, चाहे वह हंसी हो या आँसू – और उसी अभिव्यक्ति में वह अपनी कला की अमिट छाप छोड़ जाता है।
समाज के ये नियम, ये प्रतिबंध हमें उस सत्य से दूर ले जाते हैं, जहाँ पर आत्मा स्वयं को प्रकट कर सकती है। जिस व्यक्ति ने अपने अंदर की भावनाओं को समझ लिया, उसे समाज के किसी भी नियम या बंधन की आवश्यकता नहीं रहती। वह अपने आप में पूर्ण होता है, वह स्वयं ही अपने जीवन का निर्माता होता है। इसी प्रकार, ओशो ने हमें बताया कि वास्तव में, जो व्यक्ति अपने अंदर के भावों को बिना किसी भय के अनुभव करता है, वह या तो पत्थर हो जाता है – समाज की कठोर नीतियों में जकड़ा हुआ – या फिर परमात्मा बन जाता है, जो अपने समर्पण और प्रेम से पूर्ण होता है।
भावनाओं का मर्म
ओशो कहेंगे, "देखो भाई, अगर तुम अपने दिल की बात सुनने से डरते हो, तो तुम केवल पत्थर के समान कठोर बन जाओगे। लेकिन अगर तुम अपने अंदर के आंसुओं को बहने देते हो, तो तुम स्वयं उस अनंत प्रेम के अनुभव में लीन हो जाओगे, जिसे शब्दों में बांधा नहीं जा सकता।" यह बात इतनी सटीक है कि आज के मनोवैज्ञानिक भी मानते हैं कि भावनाओं को दबाने से मानसिक अवसाद और तनाव बढ़ता है।
किसी ने मजाक में कहा, "हम अपने आंसुओं को इतने दबा लेते हैं कि शायद हमारा मस्तिष्क भी अब तक भूल चुका है कि कैसे रोना है!" इस पर हंसी तो तब आती है जब हमें एहसास होता है कि हमारी भावनाओं का वास्तविक उद्देश्य जीवन के उस प्राकृतिक प्रवाह को बनाए रखना है, न कि उसे रोक लेना।
एक बार ओशो ने कहा था, "जब तुम अपने आंसुओं को बहने दोगे, तो तुम्हें खुद पर गर्व होगा, क्योंकि उस वक्त तुम जीवन के सबसे गहरे रहस्य से रूबरू हो रहे होते हो।" और यह सच है – आंसू न केवल हमारी पीड़ा को दर्शाते हैं, बल्कि वे हमारे अंदर के करुणा, प्रेम, समर्पण और आनंद की अभिव्यक्ति भी होते हैं।
भावनात्मक मुक्ति – आध्यात्मिक जागरण का मार्ग
आत्मिक मुक्ति का मार्ग वही है जिसमें हम अपने अंदर की भावनाओं को बिना किसी रोक-टोक के बहने देते हैं। जब हम अपने आंसुओं को रोकने लगते हैं, तो हम अपने आप को उस अनंत ऊर्जा से दूर कर देते हैं जो हमारे भीतर विद्यमान है। आंधियों में भी जिस फूल को खुलने का साहस होता है, वही वास्तव में अपनी सच्चाई को समझता है।
आज की दुनिया में, जहाँ हम तकनीकी उन्नति के साथ-साथ मानसिक बंदिशों में भी उलझे हुए हैं, यह आवश्यक हो जाता है कि हम अपनी भावनाओं के प्रति जागरूक हों। आधुनिक मनोविज्ञान हमें यही सिखाता है कि जब हम अपने अंदर के भावों को स्वीकार करते हैं, तो हम स्वयं को एक नई दिशा में अग्रसर करते हैं – एक ऐसी दिशा जिसमें मानसिक स्वास्थ्य और आध्यात्मिक विकास का मिलाजुला स्वरूप होता है।
सोचिए, यदि आप एक फूल की कल्पना करें – जो हर सुबह सूरज की किरणों के साथ खुलता है। अगर वह फूल अपने अंदर की तरंगों को दबा ले, तो वह कभी भी अपनी खूबसूरती बिखेर नहीं पाएगा। वही स्थिति हमारे मन की है – जब हम अपने दर्द, अपनी खुशी, अपने प्रेम और अपने क्रोध को दबाते हैं, तो हम अपने जीवन से उस प्राकृतिक रंग और उजाला छीन लेते हैं।
इसलिए, हमें यह समझना होगा कि आंसू बहाना कोई कमजोरी नहीं, बल्कि जीवन का एक अनिवार्य अंग है। यह हमें याद दिलाता है कि हम जीवित हैं, हम अनुभव कर रहे हैं, और हम उस अनंत प्रेम का हिस्सा हैं जो ब्रह्मांड में व्याप्त है।
समाज के दमन से ऊपर उठना – सच्ची स्वतंत्रता की ओर
समाज के नियम, उसकी नैतिकताएँ और परंपराएं अक्सर हमें यह सिखाती हैं कि भावनाओं को नियंत्रित करना ही श्रेष्ठता है। लेकिन यह सोच वास्तव में हमें उसी कठोर पत्थर में बदलने की ओर ले जाती है, जिससे हम अपनी आत्मा की आवाज़ सुनने में असमर्थ हो जाते हैं। ओशो कहते हैं कि सच्ची स्वतंत्रता तभी मिलती है, जब हम अपने अंदर के उस अनुभव को अपनाते हैं – चाहे वह दर्द हो या आनंद, रोना हो या हंसना।
आज के इस दौर में, जहाँ हम अपने मोबाइल फोन और सोशल मीडिया के पीछे छिपकर अपने असली भावों से दूर भागते हैं, वह समय आ गया है जब हम उस दमन को तोड़ें और अपने अंदर के आंसुओं को खुलकर बहने दें। एक तरफ जहां न्यूरोसाइंस बताता है कि दबी हुई भावनाएँ हमारे मस्तिष्क के प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ देती हैं, वहीं आधुनिक मनोविज्ञान हमें यही समझाता है कि सच्ची मुक्ति और मानसिक शांति तभी प्राप्त होती है, जब हम अपने अंदर की गहराईयों को स्वीकार करते हैं।
समाज की इन बंधनों को छोड़कर, हमें अपने दिल की सुननी होगी – उस आवाज़ की, जो हमें बताती है कि हम अपने आप में कितने समृद्ध हैं। जब हम अपने असली भावों को अपनाने लगते हैं, तो हम न केवल अपने आप को जान पाते हैं, बल्कि हम उस दिव्य प्रेम में लीन हो जाते हैं, जो किसी भी बाहरी सत्ता से ऊपर है।
भावनाओं का समर्पण – प्रेम और करुणा की अनुभूति
जब हम अपने अंदर के भावों को बहने देते हैं, तो हम अपने आप में एक नई ऊर्जा का संचार करते हैं। यह ऊर्जा प्रेम की होती है, करुणा की होती है, और समर्पण की होती है। हमारे आंसू हमें उस अद्भुत शक्ति से जोड़ते हैं, जो हमें हमारे अस्तित्व के सच्चे मायने का एहसास कराती है।
एक बार एक साधु ने कहा था, "जब तुम अपने आंसुओं को बहने दोगे, तो तुम्हें अपने आप में वह अद्भुत प्रेम मिलेगा, जो किसी और से माँगा नहीं जा सकता।" यह प्रेम न तो समाज के नियमों से बाँधा जा सकता है, न ही उसे किसी भी तरह के दमन से रोका जा सकता है। यह प्रेम तो वह है जो तुम्हें तुम्हारे अस्तित्व के सबसे गहरे रहस्यों से रूबरू कराता है।
वास्तव में, आंसू केवल दर्द के प्रतीक नहीं हैं; वे उस अनंत करुणा के साक्षी हैं जो हमारे अंदर विद्यमान है। जब कोई व्यक्ति अपने आंसुओं को बहने देता है, तो वह न केवल अपने दर्द को प्रकट करता है, बल्कि वह उस दिव्यता को भी उजागर करता है जो हर इंसान के अंदर छिपी होती है। यह वही क्षण होता है जब मानवता का असली चेहरा सामने आता है – एक ऐसा चेहरा जो दर्द, प्रेम, समर्पण और आनंद से भरपूर होता है।
आधुनिक मनोविज्ञान भी यह कहता है कि जब हम अपने आंसुओं को बहने देते हैं, तो हमारे अंदर एक स्वाभाविक रूप से निर्मल ऊर्जा का संचार होता है, जो हमें मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ रखती है। यह ऊर्जा हमें उस अनंत प्रेम में लीन कर देती है, जो ब्रह्मांड की विशालता को दर्शाती है।
आत्म-साक्षात्कार – वास्तविक स्वतंत्रता की ओर कदम
अंत में, आइए उस महत्त्वपूर्ण बिंदु पर ध्यान दें – आत्म-साक्षात्कार। वास्तविक स्वतंत्रता की ओर बढ़ने का रास्ता वही है, जिसमें हम अपने अंदर के सभी भावों को बिना किसी भय या संकोच के स्वीकार करते हैं। जब हम अपने अंदर के आंसुओं को बहने देते हैं, तो हम न केवल अपने आप को जान पाते हैं, बल्कि हम उस अनंत ऊर्जा के संपर्क में भी आ जाते हैं, जो हमें हमारे अस्तित्व का सच्चा अनुभव कराती है।
किसी भी व्यक्ति के लिए सबसे बड़ा संघर्ष वही होता है – अपने आप से। अगर आप अपने अंदर के उस अनंत अनुभव को पहचान लेते हैं, तो आप समाज के किसी भी नियम, किसी भी दमन को पार कर जाते हैं। आप उस स्थिति में पहुँच जाते हैं, जहाँ न तो आप पत्थर बन जाते हैं और न ही किसी सामाजिक बंधन में जकड़ जाते हैं, बल्कि आप स्वयं परमात्मा बन जाते हैं – उस प्रेम, समर्पण और आनंद के साथ जो जीवन को वास्तविकता प्रदान करता है।
समाज अक्सर यह कहता है कि भावनाओं का दमन ही परिपक्वता है। परंतु इस भ्रम में फंसकर हम उस अद्भुत ऊर्जा से दूर हो जाते हैं, जो हमें सच्चे आनंद और मानसिक शांति की ओर ले जाती है। ओशो की इस शिक्षण में निहित है कि यदि हम अपने अंदर के आंसुओं को बहने देते हैं, तो हम स्वयं को उस अनंत प्रेम से जोड़ लेते हैं, जो हमारे अस्तित्व का आधार है।
आज के इस आधुनिक युग में, जहाँ तकनीक ने हमारे दिलों को भी मशीनों के नियमों में बाँध दिया है, वहाँ यह और भी जरूरी हो जाता है कि हम अपने अंदर के उस जीवंत अनुभव को पुनः खोजें। अपने आंसुओं को बहने दें, उन्हें रोकने की कोशिश न करें। क्योंकि जब आप अपने आंसुओं को बहने देते हैं, तो आप स्वयं उस दिव्यता के पास पहुँच जाते हैं, जहाँ कोई भी बाहरी दबाव, कोई भी सामाजिक नियम आपको रोक नहीं सकता।
निष्कर्ष – भावनाओं का सच और जीवन की सच्ची राह
तो आइए, हम सब मिलकर उस सच्चाई को अपनाएं कि भावनाएँ हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं। वे हमारे भीतर की गहराई से निकलकर हमें जीवन के असली अर्थ से रूबरू कराती हैं। चाहे वह आंसू हों, हंसी हों, दर्द हो या खुशी – सभी भावनाएँ एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं, और केवल तभी जब हम उन्हें स्वाभाविक रूप से व्यक्त करते हैं, तभी हम उस अनंत प्रेम और करुणा का अनुभव कर पाते हैं, जो हमारे अस्तित्व का सार है।
समाज के कठोर नियमों और बंधनों को छोड़कर, हमें अपने अंदर की उस अमूल्य ऊर्जा को पहचानना होगा। क्योंकि जो व्यक्ति अपने भावों को पहचानता है, वही वास्तव में स्वतंत्र होता है। वह न तो पत्थर बन जाता है, जो समाज के दबावों में जकड़ कर रह जाता है, न ही वह केवल एक ऐसा व्यक्ति बन जाता है जिसे समाज के नियमों ने सीमित कर रखा हो – बल्कि वह उस परमात्मा के समान बन जाता है, जो अपने अंदर के आंसुओं को बहने देता है, अपने दर्द को गले लगाता है, और अपने प्रेम को फैलाता है।
आधुनिक न्यूरोसाइंस और मनोविज्ञान की खोजें भी यही संदेश देती हैं कि भावनाओं का दमन हमारे मानसिक संतुलन को बिगाड़ता है, जबकि भावनाओं का मुक्त प्रवाह हमारे जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाता है। यह विज्ञान हमें यह भी बताता है कि जब हम अपने अंदर की भावनाओं को स्वीकार करते हैं, तो हम न केवल मानसिक रूप से स्वस्थ रहते हैं, बल्कि हमारी आत्मा भी एक नई ऊंचाई पर पहुँच जाती है।
तो अब यह समय है कि हम उस पुरानी सोच को छोड़ दें, जिसमें हम अपने आंसुओं को दबाकर रखते हैं। आइए, हम अपने अंदर की भावनात्मक ऊर्जा को उस खुली हवा की तरह बहने दें, जैसे कि एक नदी जो अपनी राह खुद ही चुनती है, बिना किसी रोक-टोक के, बिना किसी डर के। क्योंकि जब आप अपने आंसुओं को बहने देते हैं, तो आप स्वयं उस अनंत शक्ति का हिस्सा बन जाते हैं, जो इस ब्रह्मांड को जीवंत और अर्थपूर्ण बनाती है।
याद रखिए, जीवन में सच्ची स्वतंत्रता वही है, जो आपके दिल के हर कोने को, आपकी हर संवेदना को बिना किसी दमन के अपनाने में निहित है। यह वह मार्ग है जो आपको न केवल मानसिक स्वास्थ्य प्रदान करता है, बल्कि आपको उस दिव्यता से भी जोड़ता है, जो आपके अस्तित्व का सबसे प्रबल स्रोत है। तो चलिए, अपने दिल के दरवाजों को खोलिए, अपने आंसुओं को बहने दीजिए, और उस सच्चे प्रेम और करुणा का अनुभव कीजिए, जो आपके अंदर छिपा है।
समाप्ति पर, मैं यही कहना चाहूंगा कि जीवन के हर क्षण में अपने भावों को महसूस कीजिए, उन्हें व्यक्त कीजिए, क्योंकि यही भावनाएँ आपको सच्चे जीवन का स्वाद चखाती हैं। अगर आप कभी भी महसूस करें कि आपके आंसू बहने से आप कमजोर हो रहे हैं, तो याद रखिए – ओशो ने ही कहा है कि "जिस आदमी की आंखों ने आंसू बहाना छोड़ दिया, वह या तो पत्थर हो गया या परमात्मा हो गया..!"
यह कटाक्ष हमें यह याद दिलाता है कि आंसू केवल दु:ख के प्रतीक नहीं हैं, बल्कि वे उस असीम करुणा, प्रेम और आनंद का भी प्रतिबिंब हैं, जो जीवन को पूरा बनाते हैं। आधुनिक मनोविज्ञान और न्यूरोसाइंस ने भी इस सत्य को पुष्टि की है – जब हम अपने भावों को स्वीकारते हैं, तो हम मानसिक संतुलन, शांति और आत्मिक विकास की ओर अग्रसर होते हैं।
इसलिए, हर उस व्यक्ति से अपील है, जो अपने अंदर के गहरे भावों को दबा कर रखता है – अपनी आत्मा के उस अनदेखे प्रकाश को जगाने के लिए, अपने अंदर के आंसुओं को बहने दीजिए। क्योंकि वही आंसू, जो कभी दर्द के रूप में बहते हैं, वह उसी समय आपके अंदर के प्रेम, करुणा और समर्पण की अमिट छाप छोड़ जाते हैं। यही है जीवन की सच्चाई – कि हम जितने अधिक खुले होकर अपने आप को अपनाएंगे, उतनी ही अधिक गहराई से हम उस दिव्य प्रेम को अनुभव कर पाएंगे, जो हमारे अस्तित्व को एक अनंत यात्रा पर ले जाता है।
और अंततः, जब आप अपने दिल की सुनते हैं, बिना किसी सामाजिक दबाव या मानसिक दमन के, तो आप पाते हैं कि आपकी आत्मा स्वयं एक मुक्त, असीम और अनंत सागर बन जाती है – जहाँ हर एक बूंद अपने आप में जीवंतता का संदेश देती है। यह वह अवस्था है, जहाँ आप न केवल अपने आंसुओं को बहने देते हैं, बल्कि आप स्वयं उस दिव्य प्रकाश में विलीन हो जाते हैं, जो आपको जीवन का असली सार प्रदान करता है।
तो, चलिए आज से ही उस परिवर्तन का संकल्प लें – अपने अंदर के हर भाव को महसूस करने का, उसे अपनाने का, और उसे बहने देने का। क्योंकि यही है सच्ची स्वतंत्रता, यही है जीवन की वास्तविक महिमा। और यही है वह मार्ग, जिस पर चलकर हम न केवल समाज के कठोर नियमों से पार पा सकते हैं, बल्कि उस परमात्मा के करीब पहुँच सकते हैं, जो हमारे भीतर निहित है।
इस प्रवचन में मैंने आपको यह समझाने की कोशिश की है कि भावनाएँ केवल कमजोरियों का प्रतीक नहीं हैं, बल्कि वे हमारे अस्तित्व का आधार हैं। वे हमारे अंदर की नमी, हमारे जीवन का संगीत, और हमारे दिल की धड़कन हैं। इन्हें दबाने से हम स्वयं को उस अनंत ऊर्जा से दूर कर देते हैं, जो हमें जीवन का असली स्वाद चखने में सक्षम बनाती है।
समाप्ति में यही संदेश है – अपने आप को न दबाएं, अपने भावों को न छुपाएं, क्योंकि यही आपके जीवन का वह अनमोल हिस्सा है जो आपको उस परमात्मा से जोड़ता है, जिसे आप स्वयं के अंदर खोजते हैं। अपने आंसुओं को बहने दीजिए, क्योंकि जब वे बहते हैं, तो आप अपने आप में वह अनंत प्रेम, करुणा और समर्पण महसूस करते हैं, जो आपको जीवन के हर क्षण में पूर्ण बनाता है।
यह प्रवचन न केवल भावनाओं के महत्व को दर्शाता है, बल्कि हमें यह भी बताता है कि कैसे आधुनिक विज्ञान – मनोविज्ञान और न्यूरोसाइंस – भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि भावनाओं का मुक्त प्रवाह हमारे मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य है। इसलिए, अपने जीवन के हर पल में इन भावनाओं को अपनाइए, उन्हें व्यक्त कीजिए, और स्वयं को उस अनंत प्रेम से भर दीजिए, जो इस ब्रह्मांड के हर कण में विद्यमान है।
बस याद रखिए – जब आप अपने आंसुओं को बहने देते हैं, तो आप वास्तव में अपने भीतर छिपे उस दिव्य प्रकाश को जगाने का साहस दिखाते हैं। और यही साहस, यही स्वतंत्रता, आपको पत्थर की कठोरता से दूर, आत्मा की अमरता की ओर ले जाती है।
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