ओशो के इस उद्धरण, "तांत्रिक कहता है भूत होते हैं, पुजारी कहता है ईश्वर होते हैं, दोनों का बाजार चल रहा है, आप पीड़ित नहीं हैं, आप ग्राहक हैं!!" का गहरा अर्थ है, जो धर्म, अंधविश्वास, समाज की सोच, और व्यापारिक मानसिकता के बीच छिपे हुए संबंधों पर प्रकाश डालता है। इस उद्धरण में ओशो यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि कैसे धर्म और अंधविश्वास का इस्तेमाल कुछ लोग अपने निजी लाभ के लिए कर रहे हैं और आम जनता इनसे प्रभावित होकर खुद को पीड़ित समझने लगती है। ओशो का यह दृष्टिकोण समाज में फैले अंधविश्वास और धर्म की व्यावसायिकता को उजागर करता है, जो आज भी हमारे समाज में व्याप्त हैं।
धर्म और अंधविश्वास के बाजार की वास्तविकता
ओशो ने अपने इस उद्धरण में "बाजार" शब्द का इस्तेमाल बहुत ही गहरी सोच के साथ किया है। यहाँ बाजार का मतलब केवल आर्थिक व्यापार से नहीं है, बल्कि मानसिक, सामाजिक और धार्मिक व्यापार से भी है। तांत्रिक और पुजारी दोनों ही धार्मिक और आध्यात्मिक संस्थाओं के प्रतिनिधि हैं, जो लोगों की मानसिकता का लाभ उठाकर अपना व्यवसाय चलाते हैं। तांत्रिक भूत-प्रेत और तंत्र-मंत्र के माध्यम से डर बेचता है, जबकि पुजारी ईश्वर और धर्म के नाम पर लोगों की आस्था का व्यापार करता है।
तांत्रिक का बाजार: भय का व्यापार
तांत्रिक यह दावा करता है कि भूत-प्रेत होते हैं और वे इंसानों को नुकसान पहुँचा सकते हैं। इस डर को फैलाकर वह अपने ग्राहक बनाता है। लोग, जो पहले से ही किसी न किसी मानसिक या शारीरिक समस्या से जूझ रहे होते हैं, तांत्रिक के पास समाधान की उम्मीद से जाते हैं। तांत्रिक इस डर को और बढ़ावा देता है, जिससे व्यक्ति को लगता है कि उसकी समस्याओं का कारण कोई अदृश्य शक्ति या भूत है। इस तरह, तांत्रिक भय का एक बाजार तैयार करता है, जहाँ लोग अपने डर को दूर करने के लिए पैसा खर्च करते हैं।
पुजारी का बाजार: आस्था और ईश्वर का व्यापार
दूसरी ओर, पुजारी धार्मिक अनुष्ठानों, पूजा-पाठ और ईश्वर की आस्था के नाम पर लोगों को अपने बाजार का ग्राहक बनाता है। वह यह दावा करता है कि ईश्वर की कृपा से ही जीवन में शांति, समृद्धि और सफलता मिल सकती है, और इसके लिए व्यक्ति को पूजा-अर्चना, यज्ञ या दान करना आवश्यक है। लोग, जो जीवन में किसी प्रकार की समस्या या कठिनाई का सामना कर रहे होते हैं, अपने दुखों से छुटकारा पाने के लिए पुजारी की सलाह मानते हैं और उसकी बताई विधियों का पालन करते हैं।
अंधविश्वास और धर्म का व्यापारिकरण
ओशो के इस उद्धरण का महत्वपूर्ण संदेश यह है कि तांत्रिक और पुजारी दोनों ही एक प्रकार से लोगों की भावनाओं और आस्थाओं का व्यापार कर रहे हैं। यह व्यापार केवल आर्थिक लाभ तक सीमित नहीं है, बल्कि यह समाज के मानसिक और भावनात्मक पहलुओं पर भी गहरा असर डालता है।
अंधविश्वास का आधार: भय और अज्ञानता
अंधविश्वास का आधार होता है लोगों का भय और अज्ञानता। जब लोग किसी बात को समझ नहीं पाते या जब उनके जीवन में कोई अप्रत्याशित घटना घटती है, तो वे अक्सर तांत्रिकों और पुजारियों की शरण में जाते हैं। यहाँ पर अंधविश्वास की जड़ें गहरी हो जाती हैं, क्योंकि लोग अपनी समस्याओं का समाधान खुद ढूँढने की बजाय किसी बाहरी शक्ति या उपाय पर निर्भर हो जाते हैं। तांत्रिक और पुजारी इस अज्ञानता और डर का फायदा उठाते हैं और उसे अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करते हैं।
धार्मिक अनुष्ठानों का व्यापारिकरण
धर्म का व्यापारिकरण तब होता है, जब धार्मिक गतिविधियों को आस्था और विश्वास से हटाकर केवल आर्थिक लाभ के लिए इस्तेमाल किया जाता है। पुजारी यह दावा करता है कि यदि व्यक्ति नियमित रूप से पूजा-पाठ और धार्मिक अनुष्ठान करता है, तो उसकी सभी समस्याएँ हल हो जाएँगी। इस प्रकार, धर्म का व्यवसायीकरण होता है, और लोग इसे केवल एक प्रक्रिया की तरह मानकर अपने कर्मों को भूल जाते हैं।
समाज में धर्म और अंधविश्वास का प्रभाव
धर्म और अंधविश्वास के नाम पर जो बाजार चलता है, उसका समाज पर गहरा असर होता है। लोग, जो इन बातों पर विश्वास करते हैं, अपने जीवन के फैसले भी इसी आधार पर लेते हैं। इससे उनके जीवन में न केवल आर्थिक नुकसान होता है, बल्कि मानसिक और भावनात्मक अस्थिरता भी पैदा होती है।
समाज में अंधविश्वास का प्रसार
समाज में तांत्रिक और पुजारी द्वारा फैलाए गए अंधविश्वास का प्रसार बहुत तेजी से होता है। लोग अपने अनुभवों को एक-दूसरे के साथ साझा करते हैं, और धीरे-धीरे यह अंधविश्वास पूरे समाज में फैल जाता है। लोग किसी बीमारी, दुर्घटना, या अन्य समस्याओं के पीछे तांत्रिकों द्वारा बताए गए कारणों को मानने लगते हैं, और इस प्रकार उनका भय और बढ़ता है।
धार्मिक संस्थाओं का शक्ति का केंद्र बनना
धार्मिक संस्थाएँ जैसे मंदिर, मस्जिद, चर्च, या अन्य धार्मिक स्थल समाज में शक्ति का केंद्र बन जाते हैं। पुजारी और अन्य धार्मिक नेता इन संस्थाओं के माध्यम से अपनी शक्ति और प्रभाव का विस्तार करते हैं। वे लोगों को यह विश्वास दिलाते हैं कि ईश्वर की कृपा पाने के लिए उन्हें विशेष अनुष्ठान, दान, या अन्य क्रियाएँ करनी होंगी। यह एक प्रकार की मानसिक गुलामी है, जहाँ लोग अपनी स्वतंत्र सोच को खोकर धार्मिक नेताओं पर पूरी तरह से निर्भर हो जाते हैं।
ओशो का दृष्टिकोण: पीड़ित नहीं, ग्राहक हैं
ओशो का सबसे महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि लोग खुद को पीड़ित समझते हैं, जबकि वास्तव में वे ग्राहक हैं। इसका अर्थ यह है कि लोग स्वेच्छा से इस बाजार में शामिल होते हैं और अपनी समस्याओं का समाधान ढूंढने के लिए तांत्रिकों और पुजारियों की सेवाएँ खरीदते हैं।
ग्राहक मानसिकता: समस्या का समाधान बाहर ढूँढना
लोग अपनी समस्याओं का समाधान बाहर ढूँढते हैं, चाहे वह तांत्रिक के पास हो या पुजारी के पास। वे यह सोचते हैं कि कोई बाहरी शक्ति उनकी समस्याओं को हल कर सकती है, और इसीलिए वे तांत्रिकों और पुजारियों की बातों पर विश्वास कर लेते हैं। ओशो यहाँ यह कहना चाहते हैं कि लोग खुद अपनी समस्याओं का हल नहीं ढूँढते, बल्कि वे ग्राहक बनकर किसी और से उम्मीद करते हैं कि वह उनकी परेशानियों का समाधान करेगा।
स्वयं पर निर्भरता: वास्तविक समाधान की ओर
ओशो का संदेश यह है कि व्यक्ति को खुद पर निर्भर होना चाहिए और अपनी समस्याओं का समाधान खुद ढूँढना चाहिए। तांत्रिक या पुजारी केवल एक बाहरी साधन हैं, जो लोगों की भावनाओं और आस्थाओं का फायदा उठाते हैं। व्यक्ति को अपने भीतर की शक्ति और समझ पर विश्वास करना चाहिए और बाहरी साधनों पर निर्भरता को खत्म करना चाहिए।
आध्यात्मिकता का सही अर्थ
ओशो के इस उद्धरण के माध्यम से हमें यह भी समझ में आता है कि आध्यात्मिकता का सही अर्थ क्या है। आध्यात्मिकता का मतलब केवल धार्मिक अनुष्ठानों या तंत्र-मंत्र में विश्वास करना नहीं है, बल्कि यह अपने भीतर की चेतना और ज्ञान को जागृत करना है।
आध्यात्मिक जागरूकता
ओशो ने हमेशा आध्यात्मिक जागरूकता पर जोर दिया है। उनका मानना है कि व्यक्ति को अपनी आत्मा की गहराई में जाना चाहिए और अपने भीतर की शक्ति और शांति को पहचानना चाहिए। बाहरी साधनों से कुछ हासिल नहीं होता, जब तक व्यक्ति अपने भीतर की चेतना को नहीं समझता। आध्यात्मिकता का सही अर्थ है अपने भीतर की गहराई में जाना और अपनी वास्तविक पहचान को जानना।
ध्यान और आत्म-साक्षात्कार
ओशो ध्यान को आध्यात्मिकता का सबसे महत्वपूर्ण साधन मानते हैं। ध्यान के माध्यम से व्यक्ति अपने भीतर के शोर को शांत कर सकता है और अपने वास्तविक स्वरूप को जान सकता है। जब व्यक्ति ध्यान के माध्यम से अपनी आत्मा के साथ संपर्क करता है, तो उसे किसी बाहरी तांत्रिक या पुजारी की आवश्यकता नहीं होती।
समापन: ओशो का अंतिम संदेश
ओशो के इस उद्धरण का सार यह है कि तांत्रिक और पुजारी दोनों ही समाज में अपनी-अपनी सेवाएँ बेच रहे हैं, और लोग अपनी समस्याओं का समाधान ढूंढने के लिए उनके ग्राहक बन जाते हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि व्यक्ति अपनी समस्याओं का समाधान खुद कर सकता है, यदि वह अपने भीतर की शक्ति और समझ को पहचानता है।
ओशो हमें यह सिखाते हैं कि बाहरी साधनों पर निर्भर रहना हमारी मानसिक और आध्यात्मिक कमजोरी को दर्शाता है। हमें अपने भीतर की शक्ति को पहचानना चाहिए और अपनी समस्याओं का समाधान खुद ढूँढना चाहिए। यही ओशो का अंतिम संदेश है: स्वतंत्रता, आत्मनिर्भरता, और आत्मज्ञान।
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