"जब प्रेम और नफरत दोनों ही ना हो, तब हर बात एकदम स्पष्ट हो जाती है।" - ओशो
ओशो के इस कथन में एक गहरा और आध्यात्मिक संदेश छिपा है, जो हमें जीवन के प्रति एक नई दृष्टि देता है। प्रेम और नफरत, दो सबसे महत्वपूर्ण और गहरे भावनात्मक अनुभव हैं, जो हमारे मन, विचार और कर्म को प्रभावित करते हैं। ओशो के अनुसार, इन दोनों भावनाओं के पार जाकर, एक ऐसी स्थिति आती है जहां मन एकदम शांत, स्पष्ट और निष्पक्ष हो जाता है। इस लेख में हम ओशो के इस कथन की विस्तृत व्याख्या करेंगे और यह समझने का प्रयास करेंगे कि इसका हमारे जीवन, मनोविज्ञान, और आत्म-ज्ञान के संदर्भ में क्या अर्थ है।
प्रेम और नफरत: द्वंद्व का प्रभाव
प्रेम और नफरत, दोनों ही हमारे जीवन में बेहद शक्तिशाली भावनाएँ हैं। ये भावनाएँ हमारे दृष्टिकोण, विचार और निर्णयों को प्रभावित करती हैं। जब हम किसी से प्रेम करते हैं, तो हमारा दृष्टिकोण उस व्यक्ति के प्रति सकारात्मक और स्नेहपूर्ण होता है। वहीं, जब हम किसी से नफरत करते हैं, तो हमारा दृष्टिकोण नकारात्मक और क्रोधपूर्ण हो जाता है। इन दोनों भावनाओं के कारण हम चीजों को वैसा नहीं देख पाते, जैसा वे वास्तव में हैं।
ओशो का कहना है कि प्रेम और नफरत दोनों ही द्वंद्वात्मक भावनाएँ हैं, जो हमें एक निष्पक्ष और स्पष्ट दृष्टिकोण से रोकती हैं। जब हम प्रेम में होते हैं, तो हम किसी व्यक्ति या वस्तु के दोषों को अनदेखा कर देते हैं। वहीं, जब हम नफरत में होते हैं, तो हम किसी के गुणों को भी नकार देते हैं। इन दोनों भावनाओं के प्रभाव में हम वस्तुओं और व्यक्तियों को उनकी वास्तविकता के अनुसार नहीं देख पाते, बल्कि अपनी मानसिक स्थिति और भावनाओं के अनुसार उनका मूल्यांकन करते हैं।
उदाहरण के लिए, यदि हम किसी व्यक्ति से अत्यधिक प्रेम करते हैं, तो हमें उसके दोष भी नजर नहीं आते, और हम उसे आदर्श मानने लगते हैं। दूसरी ओर, अगर हम किसी से नफरत करते हैं, तो हमें उसकी अच्छाइयाँ भी दिखाई नहीं देतीं, और हम उसे पूरी तरह से नकारात्मक दृष्टिकोण से देखते हैं। इस प्रकार, प्रेम और नफरत दोनों ही हमारी दृष्टि को धुंधला कर देते हैं और हमें सत्य से दूर ले जाते हैं।
भावनात्मक द्वंद्व से परे: समता की अवस्था
ओशो के अनुसार, जब व्यक्ति प्रेम और नफरत से मुक्त हो जाता है, तब वह एक ऐसी स्थिति में पहुंच जाता है, जहां हर चीज़ एकदम स्पष्ट हो जाती है। यह स्थिति "समता" की अवस्था है। समता का अर्थ है निष्पक्षता, जहाँ व्यक्ति किसी भी प्रकार की भावनात्मक बंधन से मुक्त होता है। इस अवस्था में व्यक्ति किसी भी वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति को बिना किसी पूर्वाग्रह या भावनात्मक रंग के देख सकता है।
समता की यह अवस्था ध्यान (मेडिटेशन) के माध्यम से प्राप्त की जा सकती है। ध्यान एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें व्यक्ति अपने मन के सारे विचारों और भावनाओं से परे जाकर शून्यता की स्थिति में पहुँचता है। इस शून्यता में कोई प्रेम नहीं होता, कोई नफरत नहीं होती, केवल शांति और स्पष्टता होती है। जब व्यक्ति ध्यान की इस गहरी अवस्था में पहुँचता है, तब उसे हर चीज़ वैसी ही दिखती है जैसी वह वास्तव में है, बिना किसी मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक रंग के।
यह स्थिति केवल ध्यान के माध्यम से ही नहीं, बल्कि जीवन के विभिन्न अनुभवों के माध्यम से भी प्राप्त की जा सकती है। जब व्यक्ति जीवन की विभिन्न परिस्थितियों को निष्पक्ष रूप से देखना और समझना शुरू करता है, तब वह धीरे-धीरे भावनात्मक द्वंद्व से मुक्त हो जाता है।
प्रेम और नफरत से परे दृष्टिकोण
जब व्यक्ति प्रेम और नफरत से परे होकर चीजों को देखता है, तो उसका दृष्टिकोण पूरी तरह से बदल जाता है। वह किसी भी व्यक्ति, वस्तु या घटना को निष्पक्ष रूप से देखता है, बिना किसी व्यक्तिगत भावना या विचार के। इस स्थिति में व्यक्ति केवल वही देखता है जो सच है, न कि जो उसका मन उसे दिखाना चाहता है।
ओशो का कहना है कि प्रेम और नफरत दोनों ही एक प्रकार की बाधा हैं, जो हमें सत्य को देखने से रोकती हैं। जब हम इन भावनाओं से परे होते हैं, तब हमारा मन एक दर्पण की तरह साफ और निष्पक्ष हो जाता है। इस अवस्था में हम किसी भी चीज को वैसा ही देख पाते हैं, जैसा वह वास्तव में है।
उदाहरण के लिए, अगर कोई व्यक्ति हमें चोट पहुँचाता है, तो सामान्यतः हमारी प्रतिक्रिया नफरत की होती है। लेकिन अगर हम नफरत से परे जाकर उस व्यक्ति के कार्य को देखें, तो हमें समझ में आएगा कि उसकी यह प्रतिक्रिया उसकी अपनी समस्याओं या परिस्थितियों का परिणाम है। इसी तरह, जब हम प्रेम में होते हैं, तो हम किसी व्यक्ति की खामियों को अनदेखा कर देते हैं, और उसे आदर्श मानने लगते हैं। लेकिन अगर हम प्रेम से परे होकर देखें, तो हम उस व्यक्ति की खामियों को भी स्पष्ट रूप से देख सकते हैं।
ध्यान और आत्म-जागरूकता
ओशो के इस कथन को समझने के लिए ध्यान और आत्म-जागरूकता का महत्व बहुत बड़ा है। ध्यान के माध्यम से व्यक्ति अपने मन की गहराई में जाकर उन सभी भावनात्मक और मानसिक बंधनों से मुक्त हो सकता है, जो उसे स्पष्ट दृष्टिकोण से दूर रखते हैं।
ध्यान के दौरान व्यक्ति धीरे-धीरे अपने मन के विचारों और भावनाओं से दूरी बनाता है। जब मन शून्य की अवस्था में पहुँचता है, तब प्रेम और नफरत जैसी भावनाएँ अपने आप समाप्त हो जाती हैं। उस स्थिति में व्यक्ति केवल एक साक्षी के रूप में चीजों को देखता है, बिना किसी प्रकार के भावनात्मक बंधन के।
यह आत्म-जागरूकता की अवस्था है, जिसमें व्यक्ति अपने भीतर की गहराइयों को समझता है और अपने असली स्वरूप का अनुभव करता है। इस अवस्था में वह अपने चारों ओर की दुनिया को वैसा ही देखता है जैसा वह वास्तव में है, न कि जैसा उसका मन उसे दिखाना चाहता है। यही अवस्था व्यक्ति को सत्य और वास्तविकता के करीब ले जाती है।
प्रेम और नफरत से मुक्त होना: साधारण जीवन में इसका अर्थ
प्रेम और नफरत से मुक्त होना का मतलब यह नहीं है कि व्यक्ति को भावनाएँ नहीं होतीं। इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति उन भावनाओं से बंधा नहीं रहता। वह प्रेम और नफरत दोनों को अनुभव करता है, लेकिन उनके प्रभाव में नहीं आता।
उदाहरण के तौर पर, जब व्यक्ति किसी से प्रेम करता है, तो वह उस प्रेम का अनुभव करता है, लेकिन वह उस प्रेम से अंधा नहीं होता। वह उस व्यक्ति के गुणों और दोषों को निष्पक्ष रूप से देख सकता है। इसी तरह, जब वह किसी से नफरत करता है, तो वह उस नफरत को अनुभव करता है, लेकिन वह उस नफरत से प्रभावित होकर किसी निर्णय या क्रिया में शामिल नहीं होता।
ओशो का कहना है कि प्रेम और नफरत से मुक्त होना एक उच्च मानसिक और भावनात्मक स्थिति है, जिसमें व्यक्ति जीवन को उसकी वास्तविकता के अनुसार देखता और समझता है। यह स्थिति व्यक्ति को मानसिक शांति और संतुलन प्रदान करती है, और उसे जीवन की कठिनाइयों और संघर्षों से ऊपर उठने में मदद करती है।
जीवन के निर्णयों पर प्रभाव
जब व्यक्ति प्रेम और नफरत से मुक्त होता है, तो उसके जीवन के निर्णय भी बहुत स्पष्ट और संतुलित होते हैं। वह किसी भी परिस्थिति में निर्णय लेते समय भावनाओं के प्रभाव में नहीं आता, बल्कि वह तर्कसंगत और निष्पक्ष दृष्टिकोण से स्थिति का मूल्यांकन करता है।
उदाहरण के लिए, अगर कोई व्यक्ति भावनात्मक रूप से जुड़ा हुआ है, तो वह किसी कठिन परिस्थिति में सही निर्णय नहीं ले पाएगा, क्योंकि उसकी भावनाएँ उसके निर्णय को प्रभावित करेंगी। लेकिन अगर वह प्रेम और नफरत से परे है, तो वह स्थिति को निष्पक्ष रूप से देखेगा और सही निर्णय लेगा।
यह दृष्टिकोण केवल व्यक्तिगत जीवन में ही नहीं, बल्कि व्यवसायिक और सामाजिक जीवन में भी बहुत महत्वपूर्ण होता है। जब व्यक्ति अपने भावनाओं से परे होकर निर्णय लेता है, तो उसके निर्णय अधिक तार्किक और सटीक होते हैं। यही कारण है कि ओशो ने इस प्रकार की मानसिक अवस्था को बहुत महत्वपूर्ण माना है।
प्रेम और नफरत के पार: मुक्त चेतना
ओशो के अनुसार, प्रेम और नफरत के पार जाने का अर्थ है चेतना की उच्चतम अवस्था को प्राप्त करना। जब व्यक्ति इन द्वंद्वात्मक भावनाओं से ऊपर उठ जाता है, तो वह जीवन को उसकी संपूर्णता में अनुभव करता है।
यह अवस्था केवल विचारों या समझ से प्राप्त नहीं की जा सकती, बल्कि यह ध्यान और आत्म-जागरूकता के माध्यम से अनुभव की जाती है। जब व्यक्ति इस अवस्था में पहुँचता है, तो वह जीवन को एक साक्षी के रूप में देखता है। वह प्रेम और नफरत दोनों को अनुभव करता है, लेकिन उन भावनाओं से प्रभावित नहीं होता।
निष्कर्ष
ओशो का यह कथन हमें यह सिखाता है कि प्रेम और नफरत जैसे द्वंद्वात्मक भावनाओं से मुक्त होकर ही हम जीवन को उसकी वास्तविकता में देख सकते हैं।
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