"बुद्धि से ऊपर उठो, दीवाने होओ, थोड़े पागल होओ। इस संसार में जो थोड़ी सी गरिमा है, गौरख है, सौंदर्य है, यह उन पागलों के कारण है, जो कभी-कभी बुद्धि को छोड़कर दीवाने होते रहे।" – ओशो

ओशो का यह कथन हमारे जीवन के बुनियादी दृष्टिकोण और उसके अनुभव की ओर एक गहरा संकेत है। यह कथन केवल तर्क और बुद्धि से ऊपर उठकर जीवन के भावनात्मक, रचनात्मक और आत्मिक पक्षों को अपनाने की बात करता है। ओशो ने अपने विचारों में बार-बार इस बात पर जोर दिया है कि हम, मनुष्य, केवल तर्क और बौद्धिकता के दायरे में बंधकर जीवन को पूरी तरह से समझ नहीं सकते। हमारे भीतर दीवानगी का एक तत्व भी है, जो हमें वास्तविक जीवन के सौंदर्य, प्रेम और सृजनात्मकता का अनुभव कराता है।

इस लेख में हम ओशो के इस विचार की गहराई से व्याख्या करेंगे, यह समझेंगे कि वे बुद्धि से ऊपर उठने और दीवानगी को अपनाने की बात क्यों कर रहे हैं, और कैसे यह विचार हमारे जीवन के हर पहलू में लागू होता है।

बुद्धि का महत्व और उसकी सीमाएँ

मनुष्य का बुद्धि पर आधारित जीवन बहुत महत्वपूर्ण और प्रभावी है। बुद्धि हमें तर्क, विश्लेषण, और निर्णय लेने की क्षमता देती है। यह हमें समस्याओं का समाधान निकालने, जीवन को व्यवस्थित करने, और समाज के साथ तालमेल बैठाने में मदद करती है। हमारा शैक्षिक और व्यावसायिक जीवन मुख्य रूप से बुद्धि पर आधारित होता है, जहाँ हम अपने ज्ञान, अनुभव और तर्कशक्ति का उपयोग करके आगे बढ़ते हैं।

लेकिन, ओशो के अनुसार, बुद्धि की एक सीमा होती है। बुद्धि हमें केवल तर्क के दायरे में काम करने देती है और यह हमें हमेशा एक निश्चित ढांचे में सोचने को मजबूर करती है। जीवन के बहुत सारे पहलू ऐसे होते हैं जो तर्क से परे होते हैं। उदाहरण के लिए, प्रेम, कला, संगीत, और आध्यात्मिकता का अनुभव केवल तर्क या बुद्धि से नहीं किया जा सकता। इन चीजों का अनुभव हमें तभी होता है जब हम तर्क की सीमाओं से बाहर जाते हैं और जीवन को एक स्वतंत्र दृष्टिकोण से देखने लगते हैं।

बुद्धि हमारे जीवन में सुरक्षा और स्थिरता प्रदान करती है, लेकिन यह हमें कुछ नया करने, जोखिम लेने, या जीवन के अद्वितीय अनुभवों को अपनाने से रोक सकती है। जो लोग केवल बुद्धि पर आधारित जीवन जीते हैं, वे अक्सर सीमित सोच और अनुभवों में बंधे रहते हैं। वे जीवन के गहरे और रहस्यमय पहलुओं को नहीं समझ पाते, क्योंकि वे हमेशा तर्क की दृष्टि से चीजों को देख रहे होते हैं।

दीवानगी और उसकी भूमिका

ओशो का दीवानगी से तात्पर्य उन क्षणों से है जब हम तर्क और बुद्धि की सीमाओं से ऊपर उठते हैं और जीवन को उसकी पूरी स्वतंत्रता में अनुभव करते हैं। दीवानगी का मतलब यहाँ यह नहीं है कि हम मानसिक संतुलन खो दें या विवेकहीन हो जाएँ। बल्कि, यह एक प्रकार की सहजता और स्वाभाविकता को अपनाने की बात है, जहाँ हम अपने अंदर की सच्ची भावनाओं और इच्छाओं को बिना किसी बाधा के अभिव्यक्त करते हैं।

ओशो के अनुसार, जब हम दीवाने होते हैं, तब हम समाज के नियमों और परंपराओं से मुक्त होते हैं। हम अपने भीतर की स्वतंत्रता और क्रिएटिविटी को अनुभव करते हैं। दीवानगी में एक अनंत संभावनाएँ छिपी होती हैं, जो हमें जीवन के गहरे और रहस्यमय पहलुओं को समझने और अनुभव करने का मौका देती हैं।

बहुत सारे महान कलाकार, लेखक, संगीतकार, और विचारक अपनी सफलता का श्रेय इस दीवानगी को देते हैं। वे अपने कार्यों में उस क्षण को अपनाते हैं जब वे तर्क से परे जाते हैं और अपनी रचनात्मकता को स्वतंत्र रूप से अभिव्यक्त करते हैं। उदाहरण के लिए, महान पेंटर विन्सेंट वैन गॉग, जिन्हें समाज ने पागल कहा, लेकिन उनके द्वारा बनाई गई पेंटिंग्स आज भी दुनिया भर में प्रशंसा पाती हैं। यह दीवानगी ही थी जिसने उन्हें समाज की सीमाओं से परे जाकर एक अद्वितीय कला शैली का निर्माण करने में मदद की।

सौंदर्य और दीवानगी का संबंध

ओशो यह कह रहे हैं कि इस संसार का जो भी सौंदर्य, गरिमा, और गौरव है, वह उन पागलों के कारण है जिन्होंने कभी-कभी अपनी बुद्धि को छोड़कर दीवानगी को अपनाया। इसका मतलब यह है कि जो लोग तर्क और बुद्धि की सीमाओं से बाहर जाकर जीवन को जीते हैं, वे ही असली सौंदर्य और क्रिएटिविटी का निर्माण करते हैं।

सौंदर्य केवल भौतिक वस्तुओं में नहीं होता, बल्कि यह हमारी दृष्टि और अनुभव के तरीके में होता है। जब हम बुद्धि के स्तर से ऊपर उठते हैं और जीवन को उसके गहरे और अद्वितीय पहलुओं से देखते हैं, तभी हम असली सौंदर्य का अनुभव कर सकते हैं। ओशो यह कह रहे हैं कि जो लोग दीवाने होते हैं, वे जीवन को एक अद्वितीय दृष्टि से देखते हैं, जो सामान्य लोगों की दृष्टि से परे होता है। यही कारण है कि वे जीवन में असली सौंदर्य और गरिमा को खोजने में सक्षम होते हैं।

दीवानगी और आध्यात्मिकता

ओशो का यह कथन आध्यात्मिकता से भी गहराई से जुड़ा हुआ है। आध्यात्मिकता का अनुभव केवल तर्क और बुद्धि से नहीं किया जा सकता। यह एक ऐसा अनुभव है, जो हमारे आत्मा के गहरे स्तरों से जुड़ा होता है। जब हम ध्यान करते हैं या ध्यानस्थ होते हैं, तो हम अपने तर्क और बुद्धि को पीछे छोड़कर अपने भीतर की शांति और सच्चाई से जुड़ते हैं। यही वह क्षण होता है जब हम तर्क से परे जाकर अपनी आत्मा का अनुभव करते हैं।

ओशो के अनुसार, ध्यान और साधना की गहराई में जाने के लिए हमें अपनी बुद्धि को पीछे छोड़कर दीवानगी के उस स्तर पर जाना होता है जहाँ हम अपने अस्तित्व की सच्चाई का अनुभव कर सकें। यह दीवानगी हमें एक नया दृष्टिकोण देती है, जहाँ हम जीवन की वास्तविकता और उसकी अपार संभावनाओं को समझ पाते हैं।

तर्क और दीवानगी के बीच संतुलन

ओशो का यह कथन केवल हमें पागल होने की सलाह नहीं देता, बल्कि यह तर्क और दीवानगी के बीच संतुलन बनाने की बात करता है। बुद्धि का उपयोग हमारे जीवन के व्यावहारिक पहलुओं के लिए आवश्यक है, लेकिन यह हमें जीवन के उन पहलुओं को समझने में मदद नहीं करती जो तर्क से परे होते हैं। इसलिए, ओशो यह कहते हैं कि हमें दोनों के बीच एक संतुलन बनाना चाहिए। 

हमारे जीवन में ऐसे क्षण होने चाहिए जब हम बुद्धि का उपयोग करके निर्णय लें, लेकिन हमें ऐसे क्षण भी चाहिए जब हम अपनी बुद्धि को पीछे छोड़कर जीवन के गहरे और रहस्यमय अनुभवों को अपनाएँ। यही संतुलन हमें एक पूर्ण और समृद्ध जीवन की ओर ले जाता है।

निष्कर्ष

ओशो का यह कथन हमें जीवन के एक महत्वपूर्ण सत्य से अवगत कराता है। बुद्धि और तर्क जीवन के लिए आवश्यक हैं, लेकिन यह हमें सीमित भी कर सकते हैं। जीवन का असली सौंदर्य, गरिमा, और गौरव उन लोगों में होता है जो कभी-कभी तर्क और बुद्धि की सीमाओं से ऊपर उठते हैं और दीवानगी को अपनाते हैं। यह दीवानगी हमें जीवन के गहरे और रहस्यमय अनुभवों का अनुभव करने का अवसर देती है।

इसलिए, ओशो हमें सिखाते हैं कि हमें अपनी बुद्धि से ऊपर उठकर जीवन को उसकी पूरी स्वतंत्रता और क्रिएटिविटी के साथ जीना चाहिए। यही जीवन का असली सौंदर्य और सच्चाई है, जिसे केवल वे लोग अनुभव कर सकते हैं जो कभी-कभी दीवाने होते हैं।

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